Saturday, March 11, 2017

इंसान ये तेरा इतना , दिलचला है


ढनढन घर  में  ,
टाट का  पैबंद है।
ढकने को तन है ,
अर्थ के आभाव में ,
ठंडी गर्मी , बारिश ,
लिपलिपाते ही ,नंगे बदन है।

मजमून इतने तंगी में ,
कैसे इस अंजुमन में ,
इंसान ये तेरा इतना,
निहायत ही सभ्य है।  

घर है ,  घर के बाहर , एक गली है ,
टिप टिप सी  बारीश में,
खोजे है गली है या गड्ढा है।
ऐसे आसियाने में ,
कालिख में  रहते भी ,
कीचड़ के छिटो से ,बचते बचाते ,
ख्वाबो का कारवाँ उड़ाते ,
इंसान ये तेरा , पत्थर सा  अविचल  है।

मच्छर है , मक्खी है ,
कीड़े है, मकोड़े है,
धोखे है , मक्कारी है।
सियासत की पिचकारी से ,
इंसान , तेरे इस लश्कर को ही, नुकसान है ।

लेकिन किन्तु परंतु  या और भी उपमा है ,
इस बर्रे में भिनभिनाते,
हड़्ड़ो का सितमगर  काफिला है।
डगमग इस डगर पे , निश्चित ,
कुदरत की खुदाई का ही, ये  जलवा है ,
जो कि पल पल के बलवे  में भी ,
इंसान ये तेरा इतना , दिलचला है।

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Wednesday, March 8, 2017

भूखी जिंदगी


अर्थ की प्रार्थना है , अनर्थ की प्रसाद है  ,
जिंदगी अपनी तो , एक जीवंत अवसाद है।

गरीबी , लाचारी , हकीकत की ये  बेचारगी  ,
कौन जिन्दा  ?
यहाँ सब मरे पड़े , इस  मुफलिसी बेचारगी के मियाद में।

हाथ पे हाथ धरे बैठे है , काम की तलाश है ,
दिन में चाँद तारे देखते , राते बीते ,भूखे पेट।

मज़बूरी ,मुफलिशी , मुमकिन नहीं ये जिंदगी है।
खुदा  भी बंद आंख , बंद कान कर,
न बताये, ये बंदिगी, ये  आवारगी , क्यों  कुछ ही करते।

करने की तमन्ना  है , इरादा है , दिल नेक है ,
यकीन किसको ,  मिलती है सजा दौड़ने की,
हर भूख को , और भूख से ।

आज तो कोख चिपका गुजरता, कल तो निश्चित  ही मरता।
शर्मिंदिगी भूल कर , वो  दौड़ती भूख की इस होड़ में।

बहुत है ज्यादा , बहुत है कम , , सारे सपने है पराये।
समाज की ये निर्देशिका , बनाये क्यों ?
इस भ्र्म में हर वक्त, अवसान  है, जिंदगी ,भूखी बेदम।

दौर ये शोर का है , सुन रहा खुदा भी  नही ,
बिक गई है शोख़िया जिंदगी की ,पूंजी के बाजार में।

अठखेलिया ले रही है ,सड़क पे , हाथ फैलाये ,
भूखी जिंदगी मर रही ,  पूंजी तंत्र के गठजोड़ के, इस दौर में।

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Tuesday, March 7, 2017

शांति के नवसंचार को

सोच अपनी निःशब्द है , नीति  भी स्तब्ध है।
समाज में बचा कौन , व्यग्र है  सभी यहाँ ,
विकास की  इस राह में , सर्वत्र भस्मासुर यहाँ।

जवलन्त विषय ख़ामोश है ,दुराचार का संचार है।
पतन है व्यक्ति का , समाज का , नैतिक मूल्य का।
निज स्वार्थ में खोये आपा सब ,
सोचे कौन ,सब है  गौण।

वर्तमान अपना शून्य है ,
समाज  भी पूर्णरूपेण मूर्धन्य है।

हम कौन ,
रुग्ण है  , निष्प्राण है , एक अभिशाप है।
इस समाज के जीवंत, कोढ़ के प्रतिबिम्ब है।

विषय ,प्रसांगिकता ,अन्वेषण का ,पता नहीं ,
युद्ध  का अभिषेक कर, बस  लड़ पड़े  है।

चारो ओर हाहाकार है , विध्वंश  की चीत्कार है।
क्या सोच कर ,  प्रतिकार कर ,
सृष्टि का तिरस्कार कर,  क्यों चल पड़े है ,
अधीर बन ,सर्वविनाश को।

विराम क्यों है , ठहराव  क्यों है  ,यशस्वी हो ,
निकल  पड़ो , उत्थान की राह पर।

नवयुग का सूत्रपात्र कर , युगपरुष  बन ,
बस चल पड़ो शांति के नवसंचार को ।

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ये जमी है अपनी हिंदोस्तान की ।



बसते  है, फरिश्ते हर डाल पर ,
कहते है हम इसे हिंदोस्तान।

मौसम है, जहाँ खुशनुमा ,
आबोहवा है ,यहाँ हर ओर जंवा, ये जमी  है अपनी हिंदोस्तान की ।


हर रात यहाँ  रौशनी ,  कातिल यहाँ कोई नहीं ,
सैयाद भी गाते जहा , प्यार  के  नगमें सदा।
कहते  है दुनिया में, अगर कोई जन्नत है कही ,
वो  जमी कोई और नहीं ,  वो हिन्दोस्तान है।


बहती है गंगा चतुरार्थ  की ,
खेतो  में है फसल पुरुसार्थ की।
क्या आदमी क्या जानवर ,
मिलजुलकर हर जीव जहाँ,
संबल देता अनेको अनुष्ठान की ,  ये जमी  है अपनी हिंदोस्तान की ।

वक्त की जहाँ पहचान है ,
संसार की हर जीव का जहाँ सम्मान है, वो  हिंदोस्तान है ।


हर सख्स यहाँ शहंशाह  है,
हर गुलिस्तां यहाँ गुलजार है  ,
हर पर्व  है यहाँ उल्लास का ,
हर पैगाम है यहाँ अमन  का  ,   ये जमी  है अपनी हिंदोस्तान की ।


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Monday, February 27, 2017

कुछ ऐसा लिखू ,लिखकर,
मैं ,
अमर हो जाऊ। 

कुछ ऐसा करू ,सपनो को,
मैं ,
हकीकत कर  दू। 

कुछ ऐसा देखु ,गिरते हुए को ,
मैं 
खुदा की रहमत दिला  दू। 

कुछ ऐसा चलु ,
मैं। 
भटके हुए मंजिल मिल जाये। 

दिल ने कुछ भूले यादो को,
तराशा तो सोचा ,
माँ ने ,कुछ ऐसा ही, बचपन में कहा था। 
कसक सी उठी , खुद में , 
कुछ करने की कीमत, क्यों है इतनी। 

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फैशन की दुनिया

घोंसला पेड़ो का ,
देखा है ,सर पे उगते हुए।

फैशन की दुनिया है ,
जुराबे भी काफी है, तन ढकने के लिए।

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Sunday, February 26, 2017

मैं वफ़ा हु बेवफा का


मैं वफ़ा हु बेवफा का ,
गमजदा हु बेवफा से  ,
खफा हु खुद मैं  ,वफ़ा क्योंकि, बेवफा से ।

काफिर हो गया हु,
मैं ,
बेवफा की दिलफरोशी से।

हाल  ऐ दिल ,
खुद की बयाँ कर रहा हु ,
इंतिहाँ इस सदा ,की, जुबाँ कर रहा हु।

बेवफा की मंजर में, चमन ये गुलिसिता की  ,
दगा ऐसा जालीम ने मुझको ,
कयामत के जलवे से ,जिंदा ही,
रूबरू करा दी।

जख्म उस बेवफा की, दिल में छिपाये हुए ,
फिर रहा हु मैं, दर बदर, ठोकर खाता।

फरेबी से  इकरार,इजहार ,न जो की होती,
गुलिस्ता अभी मेरा रंगीन होता,
वफ़ा मेरा न यु , संगीन   होता।

तलाशता हु मैं  , बेवफा का ठिकाना,
संजोये हुए, बेवफा का, वो मंजर।
करारे वफ़ा है ,
बेकरार ,लिए हाथ में ,
वफ़ा का ये खंजर।

लहू वफ़ा का जम सा गया है ,
तमन्ना दिल का मर सा गया  है ,
न चाहत है तेरी , बस बेचैनीं है ,बस बेचैनीं है।

आफताब ये तेरा, जो साथ है ,
कर्ज बेवफ़ा का,ये रोके हुए है।
नहीं तो उस मंजर ही , कर्ज ,अदा कर देता।
बेवफा का ये जलन ,  दिल में रिसते  हुए ,
शहर दर शहर ,न यु ही , कराहता फिरता, कराहता फिरता।

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Saturday, February 25, 2017

आदमी से इंसान तो बन जाओ

हवा का रुख हम न भांप पाये  ,
टूटते हुए घरो को हम न जोड़ पाये ,
कुछ करने की चाहत थी, मन में ,
दिल से जुबाँ पे चाहत ,तो ले आये , 
न  जाने क्यों , 
बाजुओ में, वो हौसला न ला पाये। 

वक्त के इस मंजर पे ,अभी जो तुम न सम्भल पाये ,
घुट घुट के मरोगे तुम।  
जो कि , अपने बचेंगे कहाँ , तुम्हारे आसपास ,
उम्र के इस आखिरी पड़ाव पे। 

समस्या है बड़ी ये , 
कौन है अपना इस अंतिम दौर में।

रातो नींद उड़ाई थी, जिस बबुआ के लिए ,
नासमझ, वो कमाने को ,
क्यों इतनी दूर निकल है, पड़ा।  

पढ़ा है उम्र जीने का बढ़ गया है, दोस्त।
देखा है मौत और दूर थोड़ा चल गया है, दोस्त। 
क्या फायदा , अपने जिसके लिए जिये  थे, सदा,
वही हाथ छोड़.
किसी और के साथ , उसके  घर चला गया है, सदा। 


दोस्त  , वो खुद को संभालेंगे कि,
गैर की मुसीबत को गले लगाएंगे। 

वक्त है आदमी से इंसान तो बन जाओ  ,
कब्र में चैन से सोने के लिए , कुछ भला तो कर जाओ। 

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Friday, February 24, 2017

शोर है -शोर है

शोर है शहर में ,
शोर है गाँव में।

शोर की दरकार है,
मुहर्त है चुनाव का ,
हिसाब का किताब का ,
अपनों से अपनों के ,
वादाखिलाफी का।

शोर में आत्मविभोर है ,
गर्व से कहते है,
पर्व है,
ये तो  प्रजातंत्र है।

शोर में  उड़ते हुए ,
धूल फाँकता ,
हर उम्र यहाँ।

बच्चा भी समझता है ,
जुमला है।
मामला तो स्वार्थ का है,
राज का है ,
प्रजातंत्र तो, नाममात्र का है।

शोर के  इस दौर में  ,
बड़ा , मंझला , सँझला , कन्झला ,
नेताओ की  चौकड़ी,
लोमड़ी सी बन धूर्त ,
धकियाने को, है केंद्रित।

शोर  के इस दंगल  में ,
सब है निर्लज्ज।
लुटता है, बिकता है,
खुद ही उतारता है ,
अस्मिता स्वयम का , ये निर्लज्ज ।

शोर तो तंत्र का है ,
विकास के मंत्र  का है।

न जाने क्यों फिर  ,
आज इनकी,
जिव्हा तो निर्लज्ज है, कपटी है ।
स्वयम के शोर में ही  ,
स्वाहा को झपटी है।

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Thursday, February 23, 2017

जाग उठो

भ्रष्ट आचरण ,
भ्रष्ट विचार ,
भात भात के  भ्रष्ट विकार  ,
लील रहा, ये संसार।

भ्रष्ट का साया ,
भ्रष्ट का राज ,
भ्रष्ट का  चक्रव्ह्यु ,
भेद न पाये, कलयुग का  ,
ये भीरु,  अभिमन्यु।

भीतर ,भीतर धधक रहा है ,
भ्रष्ट  ह्रदय में ,
पैशाचिक भ्रमजाल ।

भांति भांति  के रूप लावण्य के ,
ओज से चौंधियाकर ,
भ्रमित मन,निरुत्तर हो ,
सींच रहा है ,क्यों रुग्ण,
अचार, विचार।

विलासिता की आडंबर से,
भरमाये इस निगमित संसार में ,
 मानव कब का  ,भूल गया है,
 समग्र खुमार।

भ्रष्ट वक्त है ,
भ्रम की लीला ,
मदमस्त है दुनिया।

सब खोये है , सब सोये है ,
चकाचौंध की दमक में सारे ।
मन की ज्वाला, भभक रही है ,
बुझने को है, सब्र नहीं अब।

विनती है ,ऐ  दुनियावालो,
वक्त की जंजीरो को तोड़कर ,
जाग उठो,
ऐ  दुनियावालो।

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Wednesday, February 22, 2017

जमी पे बिखरा पत्ता

घूमते फिरते ,हिलते डुलते ,
सुबह सबेरे , की बेला में ,
सर्द मस्तिष्क में ,
रोधक अवरोधक ख्यालो का ,
माप बनाते ,  कितने दूर
गर्म लहू के लकीरो को ,
मन ये तेरा मेरा ,
क्यों  उकेरे जाते ।

फुदक रही गौरइया रानी  ,
कुते टप टप , लार टपकाते।
बंदर , मस्ती की उधम मचाता।

धमाचौकड़ी , पकड़म पकड़ी,
मधुरमय करती सूर्योदय की.
इस बेला को ।

गिरा  जो पत्ता , अपनी डाली से ,
सुर्ख समय से सूखता जाता।
टूटी पत्ती ,बिखरी जमी पे ,
कीट, पतंग, चट पट ,
कुतरती इनको।

जमी पे बिखरा , धूल  खाता ,
रंग विहीन, टुकड़ो में कुतरा ,
पड़ा ये  पत्ता  , आज ,
तलाश रहा है ,
मंजर अपना।

मानव अपना,
शून्य इन संयोगो से।
खाका बुनता ,  उठा पटक का,
दिल  में क्यों रखकर ,
अहम का कोलाहल।

पिकचु






Tuesday, February 21, 2017

अस्थिर मन

अस्थिर मन,
स्थिर होने की अभिलाषा में ,
खोज रहा है,
भोर के उजियाले को।

त्याग क्या तेरा ,
चाह तो तेरा ,
शापित करता। 
नागिन बनकर , मेरे इस जीवन को ,
पल पल डंसता। 

उजाला मन मेरा ,
श्यामल तन मेरा ,
कुचक्र व्यहु की , 
चक्र में फंसकर ,
पल पल, तील तील ,जीवन लीलता। 

स्थिर मन का , 
प्रण था, प्रण है, 
नहीं प्राण प्रतिष्ठा ,तेरा 
इस जीवन  करना। 
उद्देलित , ये अस्थिर मन,
न जाने ,
फिर क्यों ,मेरी बात न  सुनता। 

टुटा दर्पण , 
बिखरा सिंदूर ,
फैला काजल , 
छन छन पायल  ,
बिसरि यादो को ,
अस्थिर करके ,
काले अंधियारे कि , चादर क्यों ओढ़े।  

पाप तो इस मन, 
का धूल सा गया है ,
ज्योति जीवन का ,
बुझ सा  गया है। 
कटुता दिल की , आज तो निश्छल । 
लज्जा तेरी ,
क्यों,
अबतक निर्लज्ज है।

पिकचु 

Monday, February 20, 2017

कर्म-कर्तव्य के , नई शगूफे तू गढ़


अशांत है ,
सब कुछ बिखर गया है ,
कुछ न पाने की चाहत में इतना ,
सबकुछ पा गया हु ।

आज क्या है मेरा ,
कौन सा रूप है ,
मित्र , शत्रु , भाई ,बहन , माँ , बाप।
सारे है,
कृत्य ही मेरे।

और क्या चाहे , ये मन तेरा ,
अमर अजर बनने की चाहत ,
फिर , क्यों पाले।

खोया है किस भ्रम जाल में ,
उमड़े क्यों ये मन ,
दुनियादारी की मकड़ जाल  में।

मन का मन से कटाक्छ है ,
कर्मवीर न धर्मवीर है ,
इस मिथ्या शीशमहल
का क्यों बन बैठा है,
राजा रंक तू।

जो है सो है ,
जड़ या  चेतन ,
खड़ा हुआ मूक ही अब रह।

मन की अलाप का,
ये विलाप है,
जीवन के बचे ,
अभी कई प्रलाप है।

मूढ़ मत बन ,
धैर्य धीर से ,
बेबस मन को सृजित कर ,
कर्म-कर्तव्य के , नई शगूफे तू  गढ़।

पिकाचु

Sunday, February 19, 2017

"भूखे है , नंगे है , मरते है , चिल्लाते है:-"

बैठे हुए लिखते है, किस्मत ,
चंद  मेहरबान।
गिरते हुए उठाने को बैठे है,
चन्द मेहरबान।

पढ़ा आज ,
किसानों की जमी होती है बंजर।
भूखे है , नंगे है , मरते है , चिल्लाते है ,
फिर भी ,
बैठे है कुछ, भद्र ,
लिखने को किस्मत ,
सूली पे लटके ,
इन इंसानो की किस्मत ।

देश है अपना ,
लोग है अपने ,
सियासत है उनकी ,
दुखिया है कौन , मरता है है कौन ,
सब है गौण।

पूंजी ही  बोलता ,
पूंजी ही दौड़ता ,
पूंजी के सामने ,
सारी नीति है मौन।

लिखते है कुछ   ,
प्यार  , मोहबत ,
हारे हुए ,तराने अफ़साने के।
सिमटी , है , तमन्ना ,
बस महबूबा  की।

खोये है कुछ ,
सामानों की दुकानों की,
रौनक बढ़ाने।
जनता भी ऐसी ,
भद्र भी ऐसे , युवा भी ऐसे ,
फिर ,
जुआ कौन खेले ,
ब्यार बदलाव की,
भई  हो कैसे।

लिखता हु मैं , डरता हु मैं ,
सहमता हु मैं।

घबराता है  मन ,
रहने को  संग ,
सियासती की मस्ती में खोये हुए ,
शमशानो की बस्ती में।

चलो हम तुम कुछ करते है ,
पूंजी -सियासत की गठजोड़ को ,
मिलकर बदलते है।
चलो हम तुम कुछ करते है।

पिकाचु





सुनो मत , देखो मत , चुप रहो


भूख ,गरीबी , शोषण ,
बिकता नहीं ,
शून्य समाज में ज्वलंत विषय,
दिखता नहीं।

तड़पता , बिलखता ,
जमी पे पड़ा ,
इंसान है या जानवर ,
कोई समझता नहीं।

मौसम , चाहे सर्द हो या गर्म ,
तपीश या कंपकपी ,
नंगे पैर , फटेहाल ,  कौन।
सोच ही हवा है।

मजा है , कुछ का , इन्हें ,
गर्म , सर्द का फर्क है कहाँ।
दौड़ता है बैठा इंसान  गाड़ियों में ,
आबोहवा,  इसे कहा दीखता।

रोता हुआ  इंसान , सर्वत्र है।

हरे टाट के पीछे छिपा ,
वक्त से परे ढकेलता ,
सियासत है कैसा।
सादिया बीती , सियासत  न गई।

वसूला महसूल परिवर्तन को  ,
आशियाना, अस्पताल ,  रोजी रोटी को ।
रहे वही के वही ,
कर रहे  गुलामी ,
कल थे सामंत ,आज है पूंजीपति।

कैसा  लाईलाज मर्ज है ,
कोख से जन्मा  सिर्फ अपना , परे सब पराये।
सोच है इंसान है या जानवर ,
सोच है ये कैसा।

बोलता जो इंसान , उसे कोई सुनता नही।
सुनो मत , देखो मत , चुप रहो।
न जागने की कसम खाई तो क्या कर लेगा कोई।

चकाचौंध , ही बिकता यहाँ ,  बाकि सब गौण।

पिकाचु 

Saturday, February 18, 2017

दो पैर , दो हाँथ, दो आंख तीक्ष्ण इंसान

युद्ध का अभिषेक ,
मस्तिष्क में आवेग ,
बाजुओ में है वेग , लेकर चल पड़ा 
ध्वंश विध्वंश की चाह में ,
दो पैर , दो हाथ , दो आंख , तीक्ष्ण बुद्धि का या मानव परिवेश। 

खंड खंड में बाँट दिया अक्षांश ,देशान्तर  । 
दो पैर दो हाथ तीक्ष्ण बुद्धि ने चीर का रख दिया,
धरातल की सतत  गति। 

युद्ध की मनोभाव ,में,
बह रहा है राजनीती की दशा। 
कौन रोके इस दहशत को , 
इंसान, अपना कही सो गया है। 

क्षेत्र क्षेत्र  सूचना , भोंपू से कर रही उद्घोष,
जयकार ले रही विध्वंस।  
सत्ता लोलुपता  की , कर रही सर्वनाश । 

मौत तो मौत है , अपना या तेरा ,
इसका या उसका। 
मौत तो मौत है।

अधीरता , कुटिलता बह रहा लहू में ,
तंज करती मानवता , युग युग में खोई हर सभ्यता,
विध्वंश की इस खोज में। 

युद्ध का अभिषेक कर  ,
मैंने तो नहीं कहा,
बोलता है इंसान , यहाँ ,वहाँ , जहाँ , तहाँ। 
फिर कौन है , ढूंढो जरा , चाह किसे है विध्वंश का। 

पूछता है अमन ,
क्यों , इंसान अपना इंसान,
से डरा हुआ।

स्वार्थ , लालच , उत्पाद का उपभोग की मीमांशा में, 
क्यों बंटा  वर्ग , फीट,  खंड खंड में, मैं,
दो पैर , दो हाँथ, दो आंख तीक्ष्ण इंसान, मैं। 

उतर चल , निकल चल ,  शांति की चाह में ,
खोज तू , मैं कौन , अस्तित्व क्या।

इंसानियत हु , इन्तेजार है अशोक का ,
चल पड़ा , गिर पड़ा , थक पड़ा  , रुका नहीं, बस चल पड़ा।

पिकाचु 

Tuesday, February 14, 2017

भगवन कितना कंद्रन करता

भगवन कितना परेशान होगा ,
मन ही मन , इंसान देख,
कंद्रन करता।

सृष्टि की रचना की मद में , भूल गया ,
भगवन अपना , साधुवाद की अमृतवाणी।

रचते रचते,  इतने इंसान ,शिथिल हो गया,
भगवन अपना।
मंद पड़ गयी , इसकी शिल्पशाला।

किट,  कीटाणु , खग या  खर ,
परिस्थिति परिवेश में पलते बढ़ते।
मिलजुल कर ये ताल तन्मयता से ,
धरती को धुरी धरा पे चलने  देते।

क्या सोचा था , नर नारी रचकर ,
सहज सुगमता की, अलाख जगेगी।

मन ही  मन  क्या सोच रहा है ,
कर्म किया है,  तो , भोग तू  भगवन।

इतने  मानव , कितनी मस्तिष्क ,
असंख्य सृजनशीलता , कब तक,
तू ,सहन करेगा।

कही लूट -  खसोट , कही झूठपाट  ,
कही ऊंच नीच  , कही भेद भाव।
राजनीति की इन दोधारी पाटो को ,
कौन रीत से विध्वंश करेगा।

समझ रहा हु ,पीड़ा  तेरी।
इंसान तेरा,  सर्वेसर्वा ,
अहम के,छद्मम में ,लील रहा है,
तेरी , पुण्य प्रताप की मायाजाल।

भगवन कितना निशब्द है ,
इंसान इसका  आज हैवान है।

पिकाचु

Monday, February 13, 2017

मन मेरा हौले हौले डोले

मन मेरा  हौले हौले डोले ,
प्यार तेरा दिल में हौले हौले डोले।

दिल में रख तुझे मैं ,
खाता कसमे , गाता  नगमे,
हौले हौले।

तक़दीर है मेरी , जान है मेरी ,
अभिमान मेरी , दिल है मेरी।
पास मैं तेरे , पास तू मेरे ,
दिल धड़के , यारा , हौले हौले।

पिकाचु 

Sunday, February 12, 2017

टूटे टूटे, दिल ये टूटे

टुटा पत्ता , टुटा टहनी ,
टुटा पेड़  , टुटा आसमान  ,
टुटा टुटा , है , टुटहा मंजर।
टूटे टूटे, दिल ये टूटे।


टूटे लम्हे की सदायी ,
टूटे यादो की तन्हाई ,
टूटे टूटे, दिल ये टूटे।

टूटे तारो की रौशनी में ,
टुटा दिल, वो अपना ,
टुटा अंजुमन, ढूंढता है।
टूटे टूटे, दिल ये टूटे।

टूटे रिश्तो में , झूठे अफ़साने है,
टूटे संसार में , अपने सारे , आज बेगाने है।
टूटे टूटे, दिल ये टूटे।

टूटे धागों से जुड़ा ,
टुटा ये, जो अपना बंधन।
टुटा मैं हु, यहाँ  , गिरता मैं हु, यहाँ।
टूटे किस्से, जो मैं,  गाता हु, अब सदा ।
टूटे टूटे, दिल ये टूटे।

पिकाचु 

Saturday, February 11, 2017

ठहरे हुए, हम यही मिलेंगे

सुबह सवेरे, मन ये इतना चंचल ,
कहता  है , दिन मेरा चिड़ियों सा ,
उड़ने जैसा हो। 

देख  रहा हु , उगती लालिमा, 
कि हरियाली में, सब  झूम रहे है। 

कुछ पेड़ो पर पतझर है, कुछ पे कोपल, 
कुछ सदाबहार हो , बहती पवन संग ,
हौले हौले लहराते, इतराते।  

घूम रहा है वक्त ,
एक छोटी  बगिया है  , बैठे  वृद्ध, 
सुबह सवेरे का मेल मिलाप,
और दुआ सलाम। 

वक्त काटने की है, कवायत, 
एक समय की बात से होता,
भूत ही इनका वर्तमान होता। 
न जाने वर्तमान इनका,
क्यों रूठा  होता।

मन ये पूछता, धर्म कोई भी ,
अभिवादन , प्राण  प्रतिष्ठा, 
है , बड़े बुजुर्गो का,
फिर वक्त का चक्कर, ऐसा क्यों। 

मन ये सोचता ,वक्त ये अपना
बदल गया है, इतना  क्यों।

मन ही मन, थोड़ा ठहरा , ठिठका ,
नफा नुकसान का किया हिसाब।
अंध दौड़ में कुछ पाने की चाहत में ,
किया अवहेलना कर्म , कर्त्यव्य , ज्ञान का। 

जब लगे हुए थे अहम के छदम जयकार को ,
फिर वक्त तो ऐसा आना ही था। 

मैं कौन, सोच ,रहा हु ऐसा क्यों ,
बदल गया हु मैं भी, कितना।  
मैंने  इनसे अपना स्वार्थ निचोड़ा,  
और बस छोड़ दिया। 

मन मेरा कहता ,वक्त की चाल  है ,
बदला  मौसम , लोग आते जाते। 
भान है सबको , ज्ञान है सबको,
फिर कौन ठहरता,  धैर्य है किसको। 

मन मेरा कहता,
तू क्यों ठिठके , ये फल है तेरा। 
जा तू भी,  हवा के झोके संग कोसो फिर ,
तेरे वक्त जो आएगा , 
ठहरे हुए ,  हम यही  मिलेंगे। 

पिकाचु 

लब्ज ये मेरे : पापिष्ठ कौन

लब्ज ये मेरे, आज न ये ,
न  शरमाते ,न लजराते।
त्तपर  है,
झटफट  , फटफट,
करकस अभिमानी ,
ककहरा करने।

लब्ज ये मेरे, आतुर है,
एक का दो , दो का चार , तीन का नौ ,
कम ज्यादा,जो भी हो,
ले, दे, के,
पल पल लिखने को ,
मनोविकार के नव आधार।

लब्ज ये मेरे,  मौन है ,
स्वयं की सुभीता,शुचिता के मद में।
क्यों खेल रहे है, आपा ,
वैर भाव का।

लब्ज ये मेरे, देख रहे है ,
गौण , मूक  है,  प्रेम ज्ञान का।
सोम, सुरा की धारा  बहती ,
अमर संस्कार की,
चिता यहाँ ,
क्यों पल पल  सजती।

लब्ज ये मेरे,  हक्का बक्का ,
कृत्रिम विचार का, इंसान अपना,
मिटा चूका है , त्याग भाव का।
क्यों ,भूल गया है, रिश्तो की ये ,
मान मनवल।

लब्ज ये मेरे , मोहताज है  ,
विश्वासों का अहसासों के,
अमिट संवेगों के अमरत्व,
प्रवाहो का।

लब्ज ये मेरे , कहता  है ,
और नहीं है,
मैं ही मैं, हु।

लब्ज ये मेरा , पूछ रहा है ,
स्वयंभू मैं , फिर पापिष्ठ कौन।

पिकाचु

Thursday, February 9, 2017

मामला है, इश्क का

बेरुखी, बेहयाई , बदतमीजी ,
मामला है,
इश्क का , मुश्क का , जिस्म का।

क्या बादशाह , क्या फ़क़ीर ,
निजाम ऐसा, इश्क का,
गुलाम है सब इश्क का।

बेचैन है , बेताब है , बेकस है ,
दोस्त ,
डाका है ये  इश्क का ,
जो यहाँ,
काजी भी गिरफ्तार है,
बेइंतहा इश्क का।

पिकाचु


  • क़ाज़ी= न्यायक

  • निज़ाम= प्रणाली, क्रम, रीति, प्रबन्ध
  • बे कस= अकेला, मित्रहीन

Wednesday, February 8, 2017

टाट का पैबन्द : वो बुजुर्ग हु, मैं

घर पर पड़ा,
पत्थर का  मूर्त हु मैं,
या
भकभकता हुआ दीपक का, लौ हु, मैं ।

कुछ न कहो ,
कहे अनकहे ,
चाहे अनचाहे ,
मैं टाट  का पैबन्द सा लटकता ,
वो बुजुर्ग हु, मैं।

मैं,
तो तेरा,
भुला हुआ ,
अतीत हु,
मैं।

मैं तो एक बुजुर्ग हु ,
तेरा आनेवाला ,
भविष्य हु,
मैं।

मैं तो अनुभव था।
मैं तो ज्ञान था।
मैं तो  खुली किताब था।
मैं तो धुरी था, परिवार का।
मैं  तो मान सम्मान था।
मैं तो हम का, स्वाभिमान था।

मैं तो अब हु ,
सिकुड़ा , रंगहीन , उद्देश्ये विहीन ,
लाठी से टिका , अकेला ,
खाँसता ,खखारता,
एक बुजुर्ग इंसान।

मैं तो तेरा शाम हु ,
मैं तो  वर्तमान का अतीत हु ,
मैं तो तलाशता तुझमे अपना भविस्य हु।
मैं तो वही टाट  के पैबंद का बुजुर्ग हु।


पिकाचु

Tuesday, February 7, 2017

मोहब्बत मुझको है पसंद

मोहब्बत को, मैं नहीं पसंद ,
मोहब्बत मुझको, है पसंद।

मोहब्बत है तो  बेचैन हु ,
मोहब्बत नहीं तो,
मैं नम हु।

दिल  नासाज है, मुहब्बत का ,
फिर क्यों ,
धड़कन हमारे, मोहब्बत, मोहब्बत कह ,
बेधड़क, धड़क रहे  है।

मोहब्बत से  इजहार,
मोहब्बत से इकरार ,
मोहबत का करार ,
कुछ न कर पाया।
सिर्फ ,
मैं मोहब्बत में बेकरार, हो पाया।

मोहब्बत की भी, तो,
किस से की,
आधे रस्ते में ही ,
वो मोहब्बत का तिजारत कर ,
खाक ए  सुपुर्द कर  ,
किसी और के मोहब्बत गुनगुनाते ,
यु ही ,रुखसत हुए जा रहे है।

मोहब्बत न तू, यु घबरा ,
तसव्वुर कर की, मैं कबूल हु ,
तो मैं बादशाह,
नहीं तो मोहबत्त के कलम का,
मैं एक जलता फ़क़ीर हु।

पिकाचु 

प्यास

प्यास है एक आस की ,
एक छोटी सी जज्बात की ,
तेरे - मेरे , टूटे दिल की,
जुड़ने की एहसास की।

प्यास है  एक आग की ,
जिस्म की अधूरे तृप्त की ,
बिखरे हुए बेइंतिहा  लम्हो  को,
खयालो की किताब में समेटने की।

प्यास है , मेरे बाजुओ को  ,
अलिगन कर,
बिसरे यादो की अनुभूति की।

प्यास है एक जज्बे  की ,
एक रूहानी जज्बात की।
खोये अपने सपनो को ,
यथार्थ की धरातल की ।

प्यास है , एक रूठे को मानाने की,
बिछड़े अपने से मिलने की।

अहसासों की अनगिनत प्यास में ,
अविरल है मेरी तलाश,
सिर्फ और सिर्फ ,
एक मुकम्मल जिंदगी जीने की।

पिकाचु

Monday, February 6, 2017

मकदूम चकदुम :

मकदूम चकदुम ,
अकड़म पकड़म ,
लटकम झटकम ,
मकई का दाना।

चूहा बिल्ली ,
हाथी घोडा,
गाय , भैस ,
सपने है।

आज तो केवल
दिखेंगे मकदूम,
दिखेंगे चकदुम।

छोटा , बड़ा ,
शहर हो कैसा ,
मकदूम चकदुम,
है जेब से,
ठन ठन।
लेकिन पैसा,
मिले है इनको , किस्तो में।

मकदूम चकदुम,
सोच को बेच ,
बने है राजा ,
दो कमरो की पाटो में।

रानी अपनी और सयानी ,
ठोर की लाली ,
लब लब रद पद,
लाड़ लगाके ,
ठोर सजाके ,
लटकम झटकम ,
देख  दिखाने  ,
बनी  सयानी ।

झुमा झटकी,
पकड़ा पकड़ी ,
मकदूम चकदुम,
है पिया लुगाई,
लगे है भाई।

समय की करवट
उल्टी  पलटी ,
ज्ञानी आज, बना है मुर्ख।
सोच तो सबकी ,
मकदूम चकदुम।

सपने में ही रहना भाई ,
लटकम झटकम , है एक बीमारी ,
फिसले  अगर तो ,
चालू हो जाये ,
खेल ये अपना
अकड़म पकड़म ,
लटकम झटकम।

पिकाचु

तेरा ,मेरा , इसका, उसका

ये मेरा है ,
ये तेरा है ,
ये उसका है ,
ये इसका है
सब अहम  की माथा पच्ची   है।

ये कौन  ,
वो कौन ,
तुम कौन ,
अनजाने , अनचाहे रस्ते पे ,
निकल पड़े है ,
मुर्दो  की कौम।

इस ओर ,
उस ओर ,
सब ओर ,
काली मैली चादर ,
पसर चुका  है।

अँधियारी  वीरानी ,बस्ती में ,
इंसान, अपना हैवान बनकर ,
मौत का तांडव, खेल रहा है।

तेरा , मेरा , इसका , उसका,
करते करते ,
अपना  इष्ट भी ,
टूटकर,  बँट चूका है।

डोल रहा  हु ,
इसके , उसके , तेरे, मेरे ,
अहम के  गांठो के  ,
दोराहे - चौराहे पे।

सोच रहा हु ,
तेरा ,मेरा , इसका, उसका में  ,
क्या , कुछ  अपना भी है ।

पिकाचु

अकड़ बकड ,

अकड़ बकड ,
मकई का दाना।
इमली तीखी , चुप चुप खाना।

लपड़ झापड़ चले है फुलटुस ,
फैंटम फाटी ,चप्पल जूता ,
खट पट , झटपट सुलटा, ले  बेटा।

मास्टर तेरा आता होगा,
दंड का पाठ पढ़ायेगा।

उठक बैठक , मुर्गा, बकरी,
बनाकर बेटा ,
अल्फा, बीटा, थीटा, गामा ,
सतरंगी तारे , दिन में ही दिखायेगा।

पिकाचु 

Saturday, February 4, 2017

थोथा ज्ञान , आधा आंगन

देखो वक्त ये खूब है  ,
थोथा ज्ञान , बजता ढपली ,
की ही  धूम  है ।

हर कुछ , यहाँ जो दीखता है ,
एकमुस्त वही पैमाना बन
इस वक्त यहाँ  बिकता है।

समता असमता की बात तो  कल की  ,
ज्ञान अज्ञान का तौल,
बात है बेमानी।
आलास ही है, आज सुहानी।

आधा गगरी , आधा आंगन ,
आधा सत्य ,आधा मिथ्या ,
अनुयायी हर शख्स है इसका।

सपने हकीकत का आधार,
थाप है , उपभोग का।
अज्ञान की स्वरबद्ध गूंज,
एक सच है सौ झूठ का।

ये देख सब ,
हृदय की कम्पन्न ,
सृजनता का दर्पण ,
ठहर रहा है।
चारो ओर अज्ञान की प्रतिध्वनि ,
सुन ,
अंधियारे अनुयुग में,
इंसान   मेरा , कुछ सहम रहा है।

पिकाचु




कोरे कागज

कुछ लिखना है कुछ भूलना है ,
बिसरे यादे , मुझे इस ,
कोरे कागज में क्रमबद्ध  करना है।

आज तो सब कुछ कोरा है ,
कर्म कर्तव्य ज्ञान भी  अधूरा है।

कल क्या है ,
एक भूल भुलैया, आप धापी,
जोड़ तोड़ की आँख मिचौनी।
एक बेचैंनी,
आने वाले पल की।

मेरा कल क्या था ,
ये खोज रहा हु।
बिसरे पल का  लेखा जोखा ,
कोरे कागज में  ढूंढ रहा हु।

कसमकश की बेदी पे ,
तन मन धन का दर्पण ,
बिखर चूका है।
खोये हुए अहसासों को ,
फिर क्यों ,वक्त आज ये,
तलाश रहा है।

छिपा हुआ है,
आज जो मेरा कल के अंधियारे में।
ढूंढ रहा है , निश्छल होकर,
कोरे कागज को रौशन करने ,
भोर का उजियाला।

पिकाचु



कब तक

कब तक लिखता मिटाता रहूँगा ,
ख्यालो से तेरा नाम हटाता  फिरूँगा  ,
संभलना अगर आता तो ,
तेरी ख्यालो में खुद को दफन कर  ,
आलम आशिकाना बना  जाता।  

पिकाचु 
  

Friday, February 3, 2017

सच्चा मन , सच्चा धन

सच्चा मन , सच्चा धन ,
सर्वत्र  नमन ,सदा  सान्निध्य।

याद करे दुनिया इनको ,
रक्षक , सर्वहारा,माने इनको।
धन बल की नहीं कामना ,
कुचक्र , क्लेश, काम की,
करते नहीं, ये आराधना।

सच्चा मन , सच्चा धन ,
स्वजनों की सेवा उपासना ,
मन की हो, ये सदा कामना।

सत्य असत्य की भाव विचार,
सहैवे  साथ तीर कमान सा।
उग्र , अधीर , दुर्भावना,
कोप, रोष , द्वेष की भावना ,
का ही सर्वभूत सम्भावना।

वर्तमान अपना स्वार्थ साधना ,
निर्दयी विचार का उद्विग्न प्रहार।
संरक्षित कर ले तू ,
सत्य विचार की भावुक कामना।

धरती , आकाश या हो ब्रह्माण्ड।
सच्चा मन , सच्चा धन ,
रहे हमेशा, हर पल साथ।

डर मत,
आगे बढ़ ,
प्रेम शांती की अमर ये वाणी,
ईश्वर है।


पिकाचु 

Thursday, February 2, 2017

आमोदक


जोशीले नौजवानों ,
कहाँ गुम हो  तुम।

ढूंढ  रहा है जोश तुम्हारा , 
दर दर भटके , गुहार लगाये ,
मेरा नौजवान  दोपहरिया छोड़,
वातानुकूलित में बंद क्यों । 

कुछ पल की ये आमोदक  ,
नौजवान क्या  तेरा, तल चिन्ह इतना उथला। 
मान  पड़ा क्यों कैसे तू ,
जब 
धरती  माँ की दोहन को,
सब ओर खड़े मंदबुद्धि हैवान । 

धार  प्रवाह , पे  ,
धुँए का मैला चादर,
तेरे जोश को ढक कर  ,
वर्तमान , भविष्य का , चिंतन, ज्ञान को ,
मजे मजे में ,
पंगु , लुल्हा ,  टुटहा करता। 

कुछ  करने को ठाना है तो ,
जोश में आओ , ओ जोशीले ,
सब्र बांध का तोड़कर तुम ,
हाथ में  ,
कील  हथौड़े  औजार और , पाना ,
ले ठोक दो तुम,  इस आमोदक को। 

पिकाचु 



Wednesday, February 1, 2017

माँ के सपनो को पूरा करना है

मुझे कुछ बनना है ,
ख्वाबो को हकीकत से रूबरू करना है।
फड़फड़ाते हुए पंछियो संग,
आसमान की  बुलंदियों को छुना है।
मुझे  बनना है।

मुझे कुछ रचना है,
सृष्टि की सरंचना को , संजोये रख ,
कुछ रचना है।

मुझे बहना  है ,
धारा के बहावो को ,
बांधो में न ऊकेर के  ,
मुझे बहना  है।

मुझे रहना है ,
माँ के आँचल के छाँव में ,
ममता के आँगन के बीच  ,
मुझे रहना है।

मुझे बस उस माँ के,
कांधो का सहारा बन ,
उसके ,
अधूरे सपने में  कुंचो से रंग भरना है।
बस ,
मुझे माँ के सपनो को पूरा करना  है।

पिकाचु

Tuesday, January 31, 2017

मन मेरा मौजा ही मौजा


चुप रहना , कुछ न कहना ,
मन  मेरा , मौजा ही मौजा।

भीड़ में मैं अकेला , सोच रहा ,
क्यों  कुछ न कहता , क्यों  मैं  अकेला।
न जाने फिर भी क्यों ,
मन  मेरा  मौजा ही मौजा।

झुण्ड में पेशेवर ,
गर्म हवा , विषय गंभीर ,
चर्चा परिचर्चा ,शास्तार्थ ,
क्या ये  बहस मुनासिब।

सोचता मन ,
चुप रहना , कुछ न कहना ,
मन  मेरा , मौजा ही मौजा।

पास दूर होते निष्कर्ष ,
क्रोध , कटुता , अतिक्रमण,
विचारो से उतर  द्वेष विद्वेष का माहौल।
मन का मैल  से , बड़ा होता गर्म गुब्बार।
फट पड़ा  पेशेवर मजदूर ,
गिरह खोल , गिरेबान चढ़ा तैश में आ ,
बकवादी बन करता , आबोहवा  दूषित।

सोचता मन ,
चुप रहना , कुछ न कहना ,
कितना अच्छा , स्वयम आनंद ,
मन  मेरा , मौजा ही मौजा।

पिकाचु 

Sunday, January 29, 2017

जमी पे मैं पड़ा

जमी पे, मैं पड़ा ,
दोस्त मेरे ,
कंकड़  , पत्थर , रेत।

जमी से, मैं जुड़ा ,
दोस्त मेरे ,
पेड , पौधे , ख़र -पतवार।

जमी पे, मैं  खड़ा ,
दोस्त मेरे   ,
इंसान , हैवान , शैतान।

जमी का साथ ,
दोस्त मेरे ,
मैं खो पड़ा ,
जब से !
लुघडना ,सरकना,  छोड़ ,
मैं खुद के दो पैरो पे ,
हो पड़ा ,
मैं खड़ा।

पिकाचु





Saturday, January 28, 2017

कफ़न बेचता हु

मैं ईमानदारी से ईमान बेचता हु ,
कफ़न की एक दुकान है , कफ़न बेचता हु।

मैं फक्र से जुआ जिंदगी का, खेलता हु ।
जिंदगी है कि, पल पल की ख़ामोशी में ,
मौत का जुआ बेचता है।

मैंने  प्यार, ज्योति , जाया , सीरत से किया ,
सभी ने बड़े प्यार से,
मुझे प्यार का, मूर्त बना दिया।

मैं दुनियादारी नहीं जानता,
बड़े इत्मिनान से,
इस जहाँवालों ने दुनियादारी, का दुकान दे दिया ।

मैं जिंदगी की मुकाम से,
क्या जरा फीसल सा गया ,
जिंदगी की हर दुकान ने ,
नाकारा ,आवरा करार ,
मुझे भिखारी बना दिया ।

मैं कफ़न की दुकान खोलने,
फिर निकल तो चला ,पुकारा किसी  ने  ,
थोड़ा रुक, ठहर तो जरा ।
यहाँ हर इंसान, नंगा है खड़ा ,
कफ़न किसको बेचेगा ,
ये तो बता , तू जरा।

पिकाचु 

धोखा

सौदा  दिल का उसने ही किया ,
जिसे दिल, मैंने , संभालने को दिया ।

बेवफा वो नहीं , बेवफा ये है ,
दफन ,मुर्दे को भी  जिन्दा कर दिया,
एहसासों से मरने के लिए ।

थमाया था विश्वास  की पूंजी  इंसान को  ,
उसी ने भोंक दिया खंजर
बड़े ईमान से।

पड़ा हु फर्श पर लथपथ खून या पसीने से ,
फिक्र किसे है ।
यहाँ हर शख्स  लगा है होड़ में,
लहू पिने को ,
जिन्दा रहने  के लिए।

राजनीति होती थी , ताज तख़्त के ताजपोशी को ,
राजनीति होती है , इंसानियत को  दफनाने की।

कभी रौशनी थी रहनुमाओ  की इंसाफ की   ,
आज बस लौ  जिन्दा है, शमशान के रूहो से।


पिकाचु

Friday, January 27, 2017

वो कहते

वो कहते, कुछ हो गया है,
दिल  फुस तार  हो गया है,
इशिक़या  बुखार हो गया है।

वो कहते,
रातो रात, ये क्या हो गया है ,
दिल क्यों, बेजार हो गया है।
मैं कहता ,
मुझको मेरा प्यार मिल गया,
४४० वाल्ट का इश्किया औजार चल गया ।

वो कहते,
कुछ नशा सा हो  गया है।
मयख़ाना का प्रमाचार  मिल गया है।
मैं कहता , नूरे  दीदार हो गया ,
इस  मधुशाला से प्यार हो गया है।

वो कहते,
कविता में  रूह आ गई है ,
मैं कहता,
मेरी अरमान आ गई है।
इस मयखाने की बंद  ,
वो  सुरा की  दुकान फिर खुल गई ।

पिकाचु




इश्क तो खेल है

इश्क तो पागल है ,
इश्क तो आवारा है ,
सुबह , शाम ,धुप  छाँव ,
गम ख़ुशी ,सा चलता है।

इश्क की उम्र नहीं ,
इश्क कभी तनहा नहीं ,
इश्क कभी आसान नहीं ,
मेरी जान, मैं नहीं , तू नहीं , तो इश्क नहीं।

इश्क कमशीन है ,
बड़ा  संगदिल है।  

इश्क तरसता है, 
मैं और मेरी जान
लब से लब को।
इश्क बैचेन है, मेरी जान के आलिंगन को।

इश्क की उम्र नहीं ,
इश्क जब जवां है , कोई रोधक नहीं।
इश्क जब अधेड़ है , एक पेसोपेश है।
इश्क जब बूढा है ,  तब ही परवान चढ़ता है।
इश्क पे जोर नहीं , मेरी जान , जब तू नहीं।


पिकाचु 

Thursday, January 26, 2017

हुस्न


हुस्न की चाह ,
छुपाये नहीं छुपता।

दिल लगाया है हुस्न से ,
धड़कनो को थमने,
का एहसास  नहीं होता ।

दिल तो मानता नही , चंद लम्हे ही चाहता है ,
हुस्न की ,
पर हुस्न है कि ,
मानता ही नहीं।

हसीना का हुस्न क्या ,
आशिक़ की आशिक़ी ,
दीवाना का दीवानापन।
और क्या ?
एक लाईलाज रोग।

खड़ा था हुस्न के चौराहे पे,
ले  रहा था ,
गुजरे हुए हुस्न का  एहसास।
लगा था रेला हुस्न का ,
चाट , गुपचुप के रेले पे।

हुस्न अब बस एहसासों  के,
हम साये में ही रह गया है।
हुस्न अब , गुपचुप,
चुप चुप खाकर ,
भई गुब्बारा हो गया ।

वक्त के एहसासों में
हुस्न हुस्न करता फिर रहा  हु ,
बुढौती है,
फिर भी हुस्न को तलाशता फिर रहा हु।

पिकाचु



ये क्या हो रहा है

ये क्या हो रहा है।
मन कुछ ठहर सा ,
सहम सा ,
क्यों हो  गया है।

गम क्या, ख़ुशी क्या ,
जीत क्या, हार क्या।
जज्बात क्यों ,
ठिठक से गये है।

ये क्या हो रहा है,
ये क्यों हो रहा है ,
अंदर ही अंदर ,
अपना जीवन,
क्यों , उलझ के
सुलग  सा गया  है ।

जीवन का अभ्यास ,
तनिक भी रफीक न रहा।
इंसान अपना मगरूर,
संगदिल,मशगूल
आवारा , काफिर   ,
क्यों हुए जा रहा है।

ये क्या हो रहा है।
अबूझ पहेली,
क्यों,
जीवन हम सब का ,
रफ्ता रफ्ता हुए जा रहा है ।

पिकाचु 

Wednesday, January 25, 2017

धमाचौकोडी

इधर उधर की धमाचौकोडी
नाच नचाये बच्चो की चौकड़ी।

चिलम चाली , अकडम ,पकड़म ,
धूम धड़ाका ,
गूंज रहा है आवाजो से ,
नन्हे मुन्ने , राज दुलारो का,
ये गुलिस्ता।

एक पल की इनकी लड़ाई ,
दूजे  पल है प्रीत निभाई।
खेल बड़ा ये निराला है ,
प्यार तो इनकी पाठशाला ।

छुप्पा -छुप्पी, , छुक  छुक गाड़ी ,
लप्पड़ थप्पड़ , अकड़म पकड़म।
फिक्र नहीं  है जीत हार की।
पक्के है , सतरंगी है ,
रमे  है अपनी धुन में ये ,सच्चे। .





पिकाचु 

Tuesday, January 24, 2017

मैं अजनबी हु ,


मैं अजनबी हु ,
तटस्थो के मरुस्थल में खोजता ,
अपनी जमी।
मैं वो अजनबी हु।

मैं  बवंडर  हु ,
हवाओ के वेगो को थामे हुए ,
निरंतर खड़ा।
दबाव के समुन्दर को छितराते हुए ,
जीवन को समर्पित।
मैं  बवंडर हु।

मैं पथिक हु ,
न सफर का पता  ,
न रास्ते का पता ,
न मंजिल की उम्मीद ,
बस चले जा रहा हु।
मैं  पथिक हु।

मैं भूख हु ,
मेरी क्षुधा में सिर्फ मैं।
मैं भूख हु।

पिकाचु 

Monday, January 23, 2017

तुम, ठीक व्यक्ति नहीं

लो एक और कहकशा  ,
लो एक और दुआ ,
लो एक और बददुआ ,
सुना के कोई,
अभी अभी, ही गया।

स्तब्ध, नि:शब्द,
लड़खड़ा, संयम हो।
मैं ढूंढने चल पड़ा,
फिर एक नई बददुआ।

आहिस्ता-आहिस्ता,
एकनिष्ठ हो, निपुण मैं ,
झेलने में , ये  बददुआ।

वो आज फिर आई ,
बोला तुम, ठीक व्यक्ति नहीं।
फर्क नहीं पड़ता तुम्हे।
गुरेज ही नहीं ,
क्यों ? कोई अभिव्यक्ति नहीं।

हँस पड़ा खिलखिलाकर मैं।
कोई शिकन नहीं।
लगे कौन सी बददुआ ।
यहाँ तो रुके , खड़े है अरसो से।
क्रमबद्ध कतार  में ,ये बददुआ ।

पिकाचु


मैं कैसा

एक समाज है ,
वाणी विराम पे ,
सोच  निःशब्द ,
प्रवृत्ति जड़ता ,
गति  शून्य ,
शरीर  पक्षघात।
ये हमारा  समाज  है।

लोग कैसे ,
एक पल गर्म ,
दूजे पल  नरम ,
पलके बोझिल ,
धड़कन  डब डब ,
रिश्ते  सुखाड़ ,
आषाढ़ विपदा ,
निरुत्तर मन ,
ये हम लोग है।

मैं कैसा ,
अँधेरा पूनम का ,
रौशनी अमावस्या की ,
ईष्या खुद से ,
निकाला जमात से ,
कर्म निम्न।
कोढ़ मन का।
मैं हु ऐसा।

लिखे तो क्या लिखे ,
निरुत्तर मन,कुछ न लिखे।

पिकाचु

Sunday, January 22, 2017

दिल का आंगन खुला है मेरा:-

घर आंगन खुला है मेरा ,
इन्तेजार है ,  तेरा दशको से,
पल दो पल का ,पतझर छोड़,
प्यार का कोपल, आने दे।

मन मेरा ढूंढ रहा है ,
फिजा में फूलो की, भीनी भीनी  खुशबु।
खुले  आंगन में खोज रहा हु  ,
खोया अपना संसार जहाँ।

घर आंगन खुला है मेरा ,
रुके वक्त को  दौड़ लगाने ।
रुके रहोगी,  तुम कब तक निर्मोही ,
समय का  लेखा-जोखा, ठहरा मेरा।

बाट जोह रहा, और भी कोई ,
दिल का आंगन खुला कर अपना।
अपराध  तो  तेरा अछम्य है।
दुआ है उसका, छोड़ दिया।

घर आंगन  खोलो अपना ,
हवा का झोंका आने दो।
जीवन का बसंत जो बिता ,
लेख जोखा, बचा है ,अभी अश्को का।
पतझर जाये ,
खुले आंगन में वसन्त तो आने दो।

पिकाचु




टूट गया है

सपना अपना इस  जीवन का ,
टूट गया है। 

पूंजी अपनी इस संगत का  ,
बिखर  गया है। 

राही रास्ता , इस मंजिल  का ,
खो  गया है। 

दर्द है इतना , इसको सहते  ,
टूट  गया हु। 

किदन्ती इतनी , इस व्यथा की  ,
संकलन करना, छोड़ दिया है । 

कैसे बताऊ ,
मौला अपना, इस  अनुयायी को ,
इस मंझधार में,
क्यों  भूल  गया है। 

पिकाचु 

Saturday, January 21, 2017

चर्बी बढ़ता , थुलथुल देश

चर्बी बढ़ता , थुलथुल देश ,
आहार का बदला ,ऐसा  परिवेश।
भोजन सूची ,सुबह है पास्ता ,
दोपहर पिज़्ज़ा , शाम को बर्गर।

बोतल , डब्बा , थैली ,पैकेट ,
संसाधित खाना, का मौजूद जमाना।

दाल भात , रोटी सब्जी ,
पुआ पूड़ी,लिटि चोखा।
समय से पहले ,पच कर  गायब।

सब्जी रोती  एक किनारे,
रंग हरा से हो गया पीला।
हँसता अपना आलू भैया ,
मांग तो इसकी बनी है, अभी तक।

कलयुग की है, कैसी ब्यार ,
हाँथ  किसे  है ,आज हिलाना ,
खाना किसको, आज बनाना।
अधिकारों का है  पिंग  बढ़ाया ,
पाकशाला  की चिता सजाई,
उलझे जिसमे भैया-भौजी, सास- लुगाई।

पिकाचु 

वक्त के हाथो में

दे दो अपने ,वक्त को,
वक्त के हाथो में।

पल पल का हिसाब ,
रहने दो ,
वक्त के हाथो में।

रेतो में, यादो की तस्वीरो,
उकेरना,छोड़ दो,
वक्त के हाथो में।

हवाओ के बवंडर में ,
रेतो को लड़ने,
छोड़ दो,
वक्त की हाथो में।

वक्त से खेला था, हमने कभी ,
वक्त ही खेल रहा है ,
तब से अभी।


वक्त था, ये  भ्रम था,
की मैं हु ,
वक्त है कि , पूछता फिर रहा ,
मैं क्यों हूँ।

वक्त है , संभल जा ,
वक्त सा पिघल जा ,
वक्त सा अमर बन ,
एक इंसान तो बन जा।

पिकाचु








Friday, January 20, 2017

अंदाज ए बयां , वक्त का :

अंदाज ए बयां , वक्त का  ,
शाज , शहनाई , श्रृंगार  कर,
छठा-घटा में ,कर्म की साधना की ,
ज्योति,
अंदाज ए बयां , वक्त के साथ जलायेगा।

विस्मित है वो , मदहोश है वो ,
प्रीत के ब्यार के नव बौछार  से।
पल ये अगला , रीत क्या लायगा।

धड़कते  दिल की, धधकते अग्न से ,
श्रुति मीत का , संगीत प्रणय का ,
मन आंगन में,यौवन  की कोपल,
अंदाज ए बयां , वक्त के साथ खिलायेगा।

भँवरे कली की.संयोग की बेला ,
मन ये बावला , तन ये कम्पन।

मित  प्रीत के सम्भोग के उद्धव से ,
सृष्टि में अब फिर कोई,  नव ब्यार,
प्रेम का ,
अंदाज ए बयां , वक्त के साथ   बहायेगा।

पिकाचु 

Thursday, January 19, 2017

ये कौन सी बात है

ये कौन सी बात है,
दौड़ पड़ी वो ,छोटी सी लड़की  ,
हरी बत्ती से लाल होते।
गति तेज , लगे जैसे ,
करंट का झटका ,
गाड़ी चलती , लड़की दौड़ती ,
पहुँच चुकी वो बत्ती पर, फिर।

भीख मांगना, बुरी बात है ,
दूर बैठे रुकी, चलती, गाड़ी में ,
चुपचाप,ये देखना,
अच्छी बात है!
अपना देश , अपना माट्टी ,
कैसे भ्रष्ट हुये विचार ,
ये कौन सी बात है।
ये कैसा विकास है।

चर्चा, परिचर्चा ,
कभी खाट पे ,
कभी चाय पे ,
कितने बार , दौड़ लगाये ,
लाल और हरे के खेल में ,
कब तक लड़की, यु  बौराये।
ये कौन सी बात है ,
ये कैसा विकास है।

वक्त से लड़ाई , सब लड़ते है ,
कुछ ठहरते , कुछ सुस्ताते , फिर लड़ते है।
पल पल की वो,
लाल हरे की,
बत्ती की ये,
लड़की से लड़ाई ,
ये कौन सी बात है ,
ये कैसा विकास है।

पिकाचु

जीना ये आसान नहीं है

जी नहीं है , जान  नहीं है ,
जीने की अरमान नहीं है।
रफ्ता , रफ्ता , वक्त ,
जो चलता ,
जीना ये आसान नहीं है।


जीतेजी जो हार गये ,
जज्बात अपने जो गये ,
जज्बे तो सारे, सो गये ,
जलने को , तन्हा ,
जो  छोड़ गये।
जीने की अरमान नहीं है,
जीना ये आसान नहीं है।

जाने क्यों इस रूह में ,
जाने का भी कोई गम नहीं।
जालिम जो  तेरे जेर से,
जाते हुए भी दूर से ,
जमते हुए अश्को से मैं ,
जा रहा हु, रफ्ता , रफ्ता ।
जीना ये आसान नहीं है।

जिन्दा हु बस, जान नहीं है ,
जन्नत की आजार नहीं ,
जख्म तेरे, मेरे है जेबा
जीनत जुदा तो  जिस्म क्या ,
जायज नहीं अब ये वक्त जो
जीना ये आसान नहीं है।


पिकाचु( कॉपीराइट शोभा सचिन्द्र: १९०१२०१७  )






Wednesday, January 18, 2017

अविश्वाशो के मकड़ जाल

दो चिड़ियों की ऊँची उड़ान ,
सुबह सवेरे ,देख रहा ,
रुका  हुआ ,
मैं एक  इंसान।

मेरा घर , मेरा सम्पति ,
मेरा बेटा  , मेरा बेटी ,
इस मिथ्या के भ्रम जाल ने ,
बांध के रखा ,
मेरी उड़ान।

मेरा क्या , सम्पति !
वर्ग फुट ,बीघा  एकड़ ,
ये तो सीमित है।
फिर क्यों  भाग रहे है ?,
इनके पीछे।
दरकार है जब, कुछ गज की ही।

उड़ने की अभिलाषा   , नभ छूने की जिज्ञासा ,
मूल पाठ है, इस जीवन पथ का।
गिरकर उठना , उठकर गिरना ,
गती है ये,  दिन- रात   जैसी।

कर्म ज्ञान का , कर्तव्य त्याग का ,
भाव है जब ग्रंथो का।
क्यों मानव की  उड़ने की अभिलाषा ,
कालचक्र ने लील  लिया है।

देखो विश्वास है कितना,
इन चिडयों का ,
उस  ठूठे पेड की घोसले पे।
छोड़ के, अपने  चीची करते बच्चो को ,
भ्रम जाल से ,निकल पड़े है।
मैं , तुम , हम क्यों फिर  ,
अनुरागी बन,
उलझ रहे है , अविश्वाशो के मकड़ जाल  में।

पिकाचु








Tuesday, January 17, 2017

लटकम , झटकम , दही का मट्ठा

लटकम , झटकम ,
दही का मट्ठा ,
गुपचुप , चप चप  ,
दही का भल्ला ,
चाट पापड़ी , कुरकुरे समोसा ,
जीभ चटकाते , खाते झटपट।

छोटा , छोटी , मोटा , मोटी ,
दीदी, भैया , पापा , मम्मी,
पलटन लेकर खड़े है, सब।
गिनती अपना कब आएगा।
इन्तेजार में अपनी ,
कही,
चाट पापड़ी , खत्म न हो जाये।

लार टपकाते कब तक बैठे ,
इन्हें  चबाने कब दोगे भैया।
कब तक रोके अपनी जिह्वा ,
लटकम झटकम , चिल्ला  रहे भैया।

चाट, पकौड़ी , गुपचुप , पापड़ी ,
जल्दी जल्दी खाने दो।
नशा तो अपना  खाना है ,
खाकरा , थेपला ,ढोकला ,
अभी तो बाकी ,
लटकम झटकम दही का मट्ठा।

पिकाचु 

भोली भाली मनमौजी

भोली भाली  मनमौजी ,
पिया संग खेले,  हमजोली।

संग संग पिया  संग  ,
बिखरे सतरंगी रंग।
उड़े मनवा भोली भाली  के ,
बसंती हवा संग।

खन खन ,  मन - मन ,
टुकुर टुकुर चुपचाप देखे,
पिया हो।
भोली भाली के बहते कदम।

टुकुर टुकुर, दीवाने जैसे ,
पिया ,
तुम क्यों हो गए ऐसे।

भोली भाली मनमौजी संग ,
पिया  हो गए है  बावले।
मुँहवा  में निवाला डाले ,
धीरे धीरे भोली भाली।

ऐसें ही मौसम रहे ,
भोले भाली पिया संग रहे।
चाहे, ये दुनिया,
ऐ भैया  ,
सबके ऐसे ही हमजोली मिले।
भोली भाली संग पिया के ,
ई कहानी, हमेशा ही  अमर रहे।

पिकाचु

एक लड़की थी-एक लड़का था

एक लड़की थी ,
कहती थी , वो ,
मैं सुंदर हु।

एक लड़का था ,
अँधेरे में देखता था।
कैसे कहे,  वो ,
तुम सुंदर हो।

उस लड़की के पास,
वो, लड़का गया।
पूछा, कौन हो तुम।
बोली , मैं सुंदर  हु।
कौन तुम ?.
हाँ मैं ?.

भोलापन , अल्हड़पन ,
में भींगा ,
कोमल सा ,वचन।
छु गया ,
उस लड़के का मन।
बोला,
हाँ , तुम  सुंदर हो।

सच है ,
मन की आँखे,
पास जिसके , वो सुंदर है।

पिकाचु 












Monday, January 16, 2017

अमिता का अमिताभ

चढ़ती खुमार ,
है ये, प्यार  का बुखार ,
भूलते है यार ,
रब की दरकार,
बस चाहे तेरा प्यार , ओ मेरे यार।

कितने ही किस्से हो ,
कितने अफ़साने हो,
हम तो बेगाने हो ,
प्यार के दीवाने हो ,
बस चाहे तेरा प्यार , ओ मेरे यार।

ढलता नहीं है तेरा नशा ,
चढ़ता है, ये अंगूरी नशा,
जितने पुराने होये ,
बस चाहे तेरा प्यार , ओ मेरे यार।


कौमुदी का कौमार्य हो  ,
अमिता का अमिताभ हो  ,
मिश्री सा सहचर बन ,
सागर सा असीम बन ,
चाहता हु ,
सिर्फ तुम्हें  मैं। ओ मेरे यार।


पिकाचु 

Saturday, January 14, 2017

अटकन , भटकन , इन्हें उड़ाए



चलो कुछ हवा बनाये ,
अटकन , भटकन , इन्हें उड़ाए।

कुछ बाते करते आज ,
काफी , चाय , ठंडी ,  ठंडई , सुरासर  की।

उठक बैठक , ताल ठोक कर ,
जोर का धक्का  या ठेलम कर ,
गड्डी तो स्टार्ट कर  भईया।
कब तक बैटरी गिरा  रहेगा ,
पंजा ,  त्वरक,स्टार्टर गुमा रहेगा ,
चलो कुछ हवा बनाये ,
अटकन , भटकन , इन्हें उड़ाए।

नट बोल्ट टाइट कर  ,
छेनी , हथौड़ा , कील ठोक  दे बाबु ,
आज तो अपनी गड्डी दौड़ेगी,
गतिरोधक भी  उड़ा  देगी।
अटकन , भटकन भूल कर ,
ओ बालक  ,
चलो कुछ हवा बनाये ,
अपनी गड्डी हवे में उड़ाए।

पिकाचु




Friday, January 13, 2017

आईना देखा , मन का


आईना देखा , मन का ,
तन की रंग से  मैला था।
दन्त विषैला, जिव्हा लपलप ,
लार टपकते लालच के ,
चक्छु थे  वासना की भूखे।
मैंने पूछा ,
मेरा तन- मन क्यों ऐसा।


उदर पीत से विष का पाचन ,
ह्रदय - धमनियों में ,
प्रवाह तरल गरल का ,
फेफड़ा सिकुडा , गुर्दा मुर्दा ,
आंत निष्चेश्ट , लहू है  ठोस,
मैंने पूछा ,
मेरा तन- मन क्यों ऐसा।

कर्म है मेरा ,
खुदगर्जी , मनमर्जी का।
पदचाप  अहम से,
हिलोरे मारे।
बंद मुठी है ,
भुजा भुजंग बन।
ठोकर मारे ,
धीर विचार को।
आवाज , आगाज में,
लहू का सैलाब ।
मैंने पूछा ,
मेरा तन- मन क्यों ऐसा।


क्रोध, वासना  का
कर्तव्य प्रतिमान है  ।
स्वजन पक्षपात का ,
प्रचार प्रसार है।
होड़ में तेरे मिथ्या , स्वार्थ है।
फिर क्यों पुछे,
मेरा तन- मन क्यों ऐसा।

पिकाचु



कटी पतंग


कटी रे कटी , 
चिल्लाये सारे,
नजर घुमाया , छत पर देखा , 
उतरण , मकरसक्रांति,
में मचा है, 
कटी  पतंग  का रेलम पेला। 

खुशीया  है , चारो ओर। 
पीहू , बैशाखी , पोंगल , लोहड़ी। 
उड़ा  के सारे गम। 
लगे है ,
बच्चो के संग ,
कटी पतंग के उधम में,
हम। 

उम्र का पारा , जोड़ो का  दर्द ,
झुकी कमर , धुंधली नजर ,
सबको उड़ाकर  , 
खो गये हम, 
नन्हे मुन्हे ,बच्चो के संग। 

झाड़ लिया और दौड़ पड़े ,
कटी जिंदगी, हारी  किस्मत ,
भूल के सब ,
दौड़ पड़े हम। 
लूटने चले , अपने जैसी,
किस्मत के हिचकोले खाते , 
कटी पतंग,
 रे भैया,
कटी पतंग  । 

पिकाचु 








कील , हथौड़ा ,

कील , हथौड़ा , 
सम्बन्ध है कैसा  
खटपट खटपट,
कैसे क्यों । 

निकल पड़ा है , 
कील जो  अपना ,
आंगन के दो कोने को ,
इस  डोर से मैं, बाँधु कैसे। 

मन का आंगन मैल से गीला ,
कौन से हथौड़ा, 
मारू मैं। 

संबंध जो अपना,
उधड़  पड़ा है , 
सुई से सिलाई न होये जो। 

कौन से हथौड़ा , 
आज जो मारू , 
रिश्तो की गांठ ,  न  उधड़े। 

मन तो मेरा ,
चाह है तेरा , 
फिर कील हथौड़े सा 
खटपट  क्यों। 

पिकाचु 

 




Sunday, January 8, 2017

वो नौनिहाल

बड़ा घर , कई कमरे ,
रहने वाला कोई नहीं।
कहानी है, ये  इंडिया की ,
अमीरजादों , ऐशजादों की।


सर्द , शीत , अंधड़ , बरसाती ,
दिन या रात, बीच सड़क के बीचोबीच,
बेघरों से  , रहते जो ,
दो बिजली के खम्बो के बीच ,
कहानी है , ये हमारे हिंदुस्तान की।


मर्म है , प्यार है ,त्याग है ,
जिन्दा रहने और जीने की,
जुनून है।
सर्द रातो को चीर के , बुलंदी की ,
परचम लहराने की आस है।
वर्तमान है  , ये हमारे हिंदुस्तान की।

यही वो नौनिहाल है ,
बैठा है जमी पे आज  ,
सड़क की मध्यम सी रौशनी में,
हाथो में  ले फटी किताब ।
भविष्य  है , ये हमारे हिंदुस्तान की।

गरीबी , बदहाली, कुपोषित ,
से लड़ता , असंख्य नामो से नेमित ,
छोटू , नन्हे , राजू , आमीर या हैदर है।
यह तो वह  अग्र, अधीर वीर है ,
जो  कल का कर्मवीर  है।

मंगल , शुक्र , चंद्र, तारो ,के बीच,
पहुँचने वाला अपना वही ,
सड़क के पाटो के बीच ,
बैठनेवाला  शूरवीर है।

पिकाचु





Saturday, January 7, 2017

संवेदनहीन हो चला

बुरे के साथ बुरा ,
भले के साथ भला ,
हिसाब - किताब करने ,
मैं ,चल पड़ा,
अब मैं ,चल पड़ा ।

मुरब्त नहीं ,
कर्म कर्तव्य में ,
इंसानियत का ज्ञान ,
मैं ,भूल चला ,
अब मैं  ,भूल चला।

निकल पड़ा,
अब मैं ,
बही खाता करने ,
संवेदनहीन हो,
मैं निकल पड़ा ,
अब, मैं निकल पड़ा।


क्या दीन , दुनिया,
अब ,
दिन हो या रात ,
जमी हो या आकाश ,
वक्त के साथ ,
मैं ,बदल चला,
अब मैं ,बदल चला।

प्यार या नफरत,
फसल कैसी भी हो ,
सबकी कटाई करने,
मैं  निकल पड़ा  ,
अब मैं निकल पड़ा।

गांठ बांध ली ,
अब मैंने।
न दया , न मोह ,
न क्रोध , न लालच ,
न सत्ता की अभिलाषा ,
न अपना न पराया।
सभी की आहुति दे ,
जैसे तो तैसा करने ,
मैं चल पड़ा,
अब मैं चल पड़ा।

पिकाचु

Thursday, January 5, 2017

हिसाब - किताब

क्यों तुमने  ,
यु ही मेरे संग ,
वादा वफ़ा का ,
बेफिक्री से,यु ही,
धुंए में  उड़ा दिया। 


खुश रहो, यु ही तुम ,
सोच में पड़े  , क्यों यु ही हम। 
ख़त्म किया , रहम दिया ,
बेवफा तूने ,यु ही हमको ,
ऐसा ,क्यों मरहम दिया। 

हर सुबह , खवाब के एक पन्ने में ,
जिक्र क्यों ,
यु ही तेरा हो जाता है। 
फिक्र का सैलाब , उमड़ घुमड़  ,
दिल को ,
क्यों यु ही,  
भूली यादो को उघेड़ ,
तेरी दीवानगी का   ,
फिर एक बार ,
यु ही ,
आशिक़ बना  जाता है । 

शिकन नहीं , कोई बात नहीं , 
वक्त की झुर्रियों की सौगात ,
खुदा से तुम्हे ,यु ही मिलेंगे। 

वक्त ही वक्त होगा , 
फिर यु ही,
हुस्न  की हिजाब का,
हिसाब - किताब , 
बख्त मेरी क्या ,
तेरा हमसंग हमसाया ,
वक्त लेगा। 

पिकाचु 


घर है ये क्या

घर है ये क्या ,
चूल्हा , बर्तन , बिस्तर , तकिया ,
चारदीवारी की चौहदी में ,
सीमित  अपना , 
ये रोजमर्रा का ,
कूड़ा करकट अपना। 
घर है , ये क्या। 


सफ़ेद , काला , सिंचित धन ,
साथ लेकर मटमैला सा,
सौंधा सा रंगविहीन पसीना 
लगाते , ईट , गारे , पत्थर में । 
फिर  बनता, ये  घर अपना सा। 


धूप , छांव , हवा , पानी ,
ऊंच - नीच , किस्मत की रवानी, 
आधार विश्वास जीवन की रवानगी 
सपने , हकीकत , कालचक्र से , 
बचने का आधार, क्या यही है ,
ये अपना सा घर। 

जीवन की पूंजी ,खर्चते ,
इसे व्यवस्थित करने। 
जच्चा ,बच्चा , 
मात पिता ,
पति-पत्नी,
कर्म कर्तव्य या जन्म मृत्यु,
रिश्ते, धर्म  की मर्यादा का ,
श्रृंगार  तो बनता, 
अपना सा ये घर। 

कितने घर , खड़े अकेले,
धरती की सम्पदा का दोहन कर,
सम्पति  की लोलुपता का आधार बन,
बाट जोहते ,खड़े अकेले।

ऐ मानव तुम ,
जागना है तो जाग उठो तुम ,
जाते वक्त सिर्फ तुम ही तुम ,
कोई खड़ा नहीं साथ, जो तेरे  ,
फिर क्या रखा है इट और गारे में।
बाँट तो जाओ ,
मटमैले से बच्चे की ,
खुशियो की आधार बनने,
अपना सा ये घर।

पिकाचु 




Wednesday, January 4, 2017

ऐ मेरी किस्मत

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एक बार तो मुस्करा दे ,
एक बार तो इतरा दे ,
एक बार तो थोड़ा उठा दे ,
ऐ मेरी किस्मत , एक बार  तो साथ दे।

कौन से चौराहे पर खड़ा हु।
एक बार तो रास्ता दिखा दे।
ऐ मेरी किस्मत ,
एक बार तो उस पीर से मिला दे।

एक  बार तो रंक से राजा बना दे ,
एक बार तो किसी हीर का राँझा बना दे ,
एक बार तो खुदा का मुखबीर   बना दे
ऐ मेरी किस्मत,
एक बार तो इस बुत में जान डाल दे।

एक बार नहीं अनेको बार देखा है ,
बस छू कर , फिसल कर जाते हुए।
एक बार तो ठहर जा मेरे साथ ,
एक बार तो दर्द बाँट जा।
ऐ मेरी किस्मत।
एक बार तो अपनी हिम्मत दिखा दे।


एक बार तो खुशियो की सौगात,
इस झोली में डाल दे ,
नहीं तो ,
एक बार, इस किस्मत को ,
ऐ खुदा ,
अपनी  कहर का इंतिहा  तो ,दिखा दे।

पिकाचु







Tuesday, January 3, 2017

खुदगर्ज ,खुदा ,खुदगर्जी बन

चौसर की बिसात बिछी है ,
पासा पास है , चलने को ,
कौन सी चाल, चल  चलु ,
कर्म , ज्ञानी , कुकर्म या अज्ञानी।

जनत या जलालत ,
कुफ्र या  आदमियत ,
फिक्र किसे ,
न मेरे लिए न तेरे लिए।

कौन यहाँ ठहरा है,
खुदगर्ज ,खुदा ,खुदगर्जी बन।
हर शख्स यहाँ प्यासा है ,
गर्म लहू पिने के लिए।

ताज तख़्त के चाह में,
मुकाबला किससे ,
मूक , बधिर , मौन ,
मर्महीन ,गौण, मष्तिष्क से।

चुरुट , चुरमुर ,अवपथ की राह में ,
किस अग्निपथ की गरज में ,
धूल उड़ाता , निकल पड़ा ,
इंसान अपना ,
बुदबुद सा मीर बनने।

पिकाचु




Sunday, January 1, 2017

सच और झूठ की ,
दो पाटो के बीच फँसी है,
दुनिया का तकरार और इकरार,
का सच ।

मर्द और औरत की ,
जिस्मानी प्यास की  आश में ,
बुझ  गई है जीवन,
और इसकी सर्जनशीलता।

देश विदेशज सा हो गया ,
मित्र भी शत्रु है आज।
बम गिराकर , नरसंघार कर,
अपकार , उपकार  भूल गए है, सब।

इंसान  का कोई मान  नहीं है,
इंसान क्यों ,  इतना खुदगर्ज है।
धूल में लोटे  , काले मटमैले ,
नवजात से भी , इतना इसको ,
बैर क्यों है।


टिश उठी है , बेकाबू दिल में ,
लब डब धड़कन , शोर में तब्दील ।
सिसकार उठा, हर मानव जब  ,
कितने चीत्कार ,
ऐ इंसान तू  , झेलेगा अब।


ह्रदय आघात भी बिसर गया है ,
आज का मानव क्यों इतना ,
भटक गया है।
दो पाटो के बीच ,
दुनिया क्यों इतना सिमट गया है।


पिकाचु