ढनढन घर में ,
टाट का पैबंद है।
ढकने को तन है ,
अर्थ के आभाव में ,
ठंडी गर्मी , बारिश ,
लिपलिपाते ही ,नंगे बदन है।
मजमून इतने तंगी में ,
कैसे इस अंजुमन में ,
इंसान ये तेरा इतना,
निहायत ही सभ्य है।
घर है , घर के बाहर , एक गली है ,
टिप टिप सी बारीश में,
खोजे है गली है या गड्ढा है।
ऐसे आसियाने में ,
कालिख में रहते भी ,
कीचड़ के छिटो से ,बचते बचाते ,
ख्वाबो का कारवाँ उड़ाते ,
इंसान ये तेरा , पत्थर सा अविचल है।
मच्छर है , मक्खी है ,
कीड़े है, मकोड़े है,
धोखे है , मक्कारी है।
सियासत की पिचकारी से ,
इंसान , तेरे इस लश्कर को ही, नुकसान है ।
लेकिन किन्तु परंतु या और भी उपमा है ,
इस बर्रे में भिनभिनाते,
हड़्ड़ो का सितमगर काफिला है।
डगमग इस डगर पे , निश्चित ,
कुदरत की खुदाई का ही, ये जलवा है ,
जो कि पल पल के बलवे में भी ,
इंसान ये तेरा इतना , दिलचला है।
पिकचु