आईना देखा , मन का ,
तन की रंग से मैला था।
दन्त विषैला, जिव्हा लपलप ,
लार टपकते लालच के ,
चक्छु थे वासना की भूखे।
मैंने पूछा ,
मेरा तन- मन क्यों ऐसा।
उदर पीत से विष का पाचन ,
ह्रदय - धमनियों में ,
प्रवाह तरल गरल का ,
फेफड़ा सिकुडा , गुर्दा मुर्दा ,
आंत निष्चेश्ट , लहू है ठोस,
मैंने पूछा ,
मेरा तन- मन क्यों ऐसा।
कर्म है मेरा ,
खुदगर्जी , मनमर्जी का।
पदचाप अहम से,
हिलोरे मारे।
बंद मुठी है ,
भुजा भुजंग बन।
ठोकर मारे ,
धीर विचार को।
आवाज , आगाज में,
लहू का सैलाब ।
मैंने पूछा ,
मेरा तन- मन क्यों ऐसा।
क्रोध, वासना का
कर्तव्य प्रतिमान है ।
स्वजन पक्षपात का ,
प्रचार प्रसार है।
होड़ में तेरे मिथ्या , स्वार्थ है।
फिर क्यों पुछे,
मेरा तन- मन क्यों ऐसा।
पिकाचु
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