कल्पना हु मैं , मेरे दीवाने की ,
वर्तमान हु मैं, मेरे परवाने की।
हमसफ़र हु मैं , मेरे मेहमान की।
मल्हम हु मैं , मेरे जख्म की,
साथी हु मैं , मेरे दुखते रग की।
शमा हु मैं बुझती आशिक़ी की ,
दरिया हु मैं , फफकते लौ की।
अँधेरा हु मैं , अमावास की ,
रौशनी हु मैं , पूर्णिमा की।
चंदा हु मैं अपने चकोर की ,
मीरा हु मैं , मेरे कृष्ण की।
धरती हु मैं , मेरे अम्बर की।
मंजिल नहीं रास्ता हु मैं , राही का ,
बस एक साहिल हु, मैं तेरे भँवर का।
ढूंढता हु मैं किनारा , एक ऐसे चमन का ,
जहाँ रिश्ता हो प्यार का , एकरार और मीठी तकरार का।
जहाँ पाने की सिवा खोने की चिंता न हो किसी मुसाफिर का।
पिकाचु