Wednesday, November 30, 2016

कल्पना हु मैं


कल्पना हु मैं , मेरे  दीवाने की ,
वर्तमान हु मैं, मेरे परवाने की।
हमसफ़र हु मैं , मेरे मेहमान की।

मल्हम हु मैं , मेरे  जख्म की,
साथी हु मैं , मेरे दुखते रग  की।

शमा हु मैं बुझती आशिक़ी  की ,
दरिया  हु मैं , फफकते लौ की।

अँधेरा  हु मैं  ,  अमावास की ,
रौशनी हु मैं , पूर्णिमा की।

चंदा हु मैं अपने चकोर की ,
मीरा हु मैं , मेरे कृष्ण की।
धरती हु मैं , मेरे अम्बर की।
मंजिल नहीं रास्ता हु मैं  , राही  का ,
बस एक साहिल हु, मैं तेरे भँवर का।


ढूंढता हु मैं किनारा , एक ऐसे  चमन का ,
जहाँ रिश्ता हो प्यार का , एकरार और मीठी तकरार का।
जहाँ पाने की सिवा खोने की चिंता न हो किसी मुसाफिर का।

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Monday, November 28, 2016

मैं , मैं , में ही खुद हु

मैं अम्बर हु ,
मैं धरती हु ,
मैं सृष्टि हु ,
मैं ब्रह्मा हु ,
फिर क्यों मैं ,
मैं , मैं , में ही खुद हु।

मेरी आशा ,
मेरी अभिलाषा ,
मेरी महत्वाकांछा ,
मेरी श्रेष्ठता की परिभाषा ,
मैं , मैं , मैं , में ही है ।

मेरी उमंग ,
मेरी तरंग ,
मेरी उड़ान ,
मेरी  अहम में।
भूल गया मैं,
मैं  मैं में ,
मैं तो एक हु ,एक अदना सा इंसान।

मैं की दोहन ,
मैं की विनाश ,
मैं की  विभित्सका के  ,
प्रारब्ध सोच  से ,
थर थर थर ,
काँप रहे है, हम -सब ।

मैं की चाल, एक  विनाशकाल है।
अवनि ,अम्बर का सुप्त काल  है।
फिर क्यों मैं ,
मैं , मैं , में ही खुद हु।

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Sunday, November 27, 2016

औ मौला :रहम कर

आज की रात , अमावस की रात ,
अँधेरा चौतरफा , आंखे फाड़े देख रहा।
इन्तेजार था मुझे , उस नूर का , जो ,
रौशनी हो रही है , आज  किसी और कि।

एक आशा मन में , कही अच्छाई मेरी  ,
कही किस्मत का साथ दे ,
तमन्ना दिल कि ,पूरी हो जाये।
थका , लुटा , पीटा , सोच रहा  ,
हारने का गम , या गम को हराने की ,
किस राह , इख़्तियार कर रही है जिंदगी।

मुकम्मल जहाँ नहीं , अपने ही सताते है ,
आसमान से अर्श तक  , गिरने ,गिराने का खेल ,
बेइंतहा खेलती है जिंदगी।
नाम क्या दे इस बेवफ़ा का ,
जात - पात  ,धर्म ,  अमीरी , गरीबी,
या वफ़ा की शुद्ध बेवफाई।

हम ही मिले थे उनको ,
इस खेल के मैदान में।
मेरे खुदा , कुफ्र का आलम ,
कि इंतहाई है ,
हम ही है  क्या , मुसीबतजदा  ,
तेरे बेरुखी के पैमाने में।

इजहार था , इकरार था ,
फिर क्यों ,
ये रार , है , औ मौला।
फरिश्ता नहीं  , इंसान हु ,
दर्द भी है , गरूर भी है।
औ मौला ,
बंद आँखों से न देख ,
दर पर  हू खड़ा  , कुछ रहम कर , कुछ रहम कर।

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जन जन को है बोध कराया


कौन है अपना , कौन है पराया ,
वक़्त ने  ऐसा फेर लगाया।

इंसान ने खुद ही खुद को ,
सृष्टि का भगवान, जो माना।
बाँट दिया है , काट दिया है ,
मानवता को तार तार किया है।

ऊपर निचे ,दाये बाये ,
आगे पीछे ,सभी दिशायें।
राजनीती  के  रंग महल से ,
हे  इंसान,
क्यों ऐसा ,कुठारघात किया है।

उल्टा पुल्टा , रंग बिरंगी ,
सतरंगी इंद्रधनुष  में।
क्यों , हे  इंसान,
विकृति , विभित्स विचार का,
महिमांडित उद्गार किया है।

जात - पात , ऊंच नीच।
धर्म अधर्म  के कुचक्र में। 
हम सबने तो खुद ही खुद से। 
रिश्तो को मंझधार में लाया।
परिपाटी को धूल चटाया।

समय ये ऐसा , आया है
हमने तुमने , सबने मिलकर।
आज ,
काला धन का  सम्मान किया है  ,
सज्जनता को बदनाम किया है ।

मैंने , तुमने ,हम , सबने,
जन जन को है  बोध कराया ,
मिथ्या , माया, धन की छाया ,
ही ,जीवन का अमिट सत्य है।

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Saturday, November 26, 2016

इरादा अब तो गढ़ ले तू

एहसास धड़कनो का ,
धड़कते दिल  में रहता है।

एहसासो की मायूसी में ,
हम तुम क्यों , यू ही ,
गीले शिकवे की नुमाईश,
भरी  मजलिश में करते है।

पता है तुमको जो  ,
इरादे ,ईमान के।
चंद सिक्को में ही,
इंसान के  आज  डोलते है।

रिश्तो की दरकने
की आवाजे ,
दिल के सुराखों से ,
निकलकर,
निर्बाध  हो ,
लबो की आहो से ,
आहिस्ता , आहिस्ता
एहसासों के टूटने का
इजहार करता  है।

एहसासों की तिजारत ,
हसीनो की वफाई है।

फिर क्यों ,
दीवानो ने सदियो से
अमिट  ये रीति ,
बना रखी है।
शारबो की महफ़िल में ,
गमो को हलक करना ,
क्यों जिंदगी का  मनोविनोद ,
बना रखा  है।

मायूसी में फसाने का,
सिरा पकड़ना ,
छोड़ के अब तुम।
उड़ने की तमन्ना,
जिगर में  पाल, ले,
अब  तू।

थपेड़ो से किनारा कर ,
प्रतिघात करने का ,
इरादा,
अब तो गढ़ ले तू।
अहसासों का साथ,
अब तो ,छोड़ दे तू।

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Friday, November 25, 2016

ओ यारा

अपना कौन , पराया कौन ,
यारा ,ये कैसा है,
दुनिया का वहम।

पल पल, रोता मन मेरा ,
साथ न तेरा , क्यों यारा।
शीतल है  तू ,ओ यारा।
प्यासा हु मैं , तेरा,
ओ यारा।

सुख दुख , मेरी तू यारा ,
जान भी मेरी, तू यारा।
खो गई क्यों , तू ,
ओ   यारा।


भूल क्या मेरा , ओ यारा।
पर्वत , नदिया , उड़ते पंछी ,
धरती- अम्बर  ,
अधूरा ,
क्यों तुम बिन ,
ओ   यारा।

भोलापन तेरा  देख ,
साथ तो चाहा  ,
ओ यारा।

निश्छल , क्या तुम ,
अविचल क्या तुम।
मोह माया में , खोकर
क्यों तुम  ।
साथ  न हो , ओ यारा।

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Wednesday, November 23, 2016

मैं दृढ़ हु


ये सच है , आज मैं परेशान हु ,
हैरान हु , जिंदगी से।




मैं परेशान हु , क्यों  रुका  हू।
वक्त , मौसम , महीने बदले।
जिंदगी यु ही , नाराज हो  दुखी  है।
मैं परेशान हु।

निर्जीव, जड़वत हु  क्या मैं ,
सजीव हु ,मैं परेशान हु।
स्थिर है जिंदगी , अधीर हु मैं ,
 सोचता हु की , मैं हु की नहीं।


मैं परेशान हु , मैं  विस्मित  हु।
आपत्ति है वक्त से,
क्यों अपमानित हु।
दुःख , व्यथा , क्लेश,
क्या इनसे ,
अपना जन्मो का नाता है।

मैं परेशान हु , क्यों  मैं तम हू।
मुस्कुराने को क्यों व्याकुल हु।
मैं इंसान हू , न कोई मिथ्या हू।
मैं परेशान हू ,
मैं नीति से चला , अब तू ही बता,
अवनति फिर क्यों साथ हो चला।

मैँ अविरल हु , मैं बहता हु ,
मैं , मैं ,में ही अब रहता हु।

दुःख सुख का सरोकार  नहीं ,
उचित अनुचित , विधि विधान,
अब इनका आधार नहीं।

मैं परेशान नहीं ,मैं दृढ़ हु।
मैं मुरीद हु , उस  प्रीत का,
जहाँ संगम हो विशुद्ध ,
प्यार का।

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Tuesday, November 22, 2016

भीड़ में दौड़ लगी

भीड़ में दौड़ लगी ,
जमात है,
ऐसी  जनता जनार्दन  की ,
भूखे , अर्ध नग्न , शोषित , कुपोषित ,
नाच रहे है , पूंजीपति , नेताओ के ,'
वादे , शरारते , झूठ के पुलिंदों में।


यकीन हमें नहीं होता , करते है चर्चा परिचर्चा ,
क्या सोच की आयाम इतनी   विनयमित ,
भुखमरी ,
क्या , दृष्टिहीन इंसान पैदा करती।

कोशिश करो , कुछ भूखे रहो , गन्दी नाली ,
भिनभिनाते मछर , चिपके - पिचके
कुपोषित अमाशय के मध्य ।
संयोग नहीं ,  सम्भोग करो इनका।

भूल जाओगे तुम  ये आसय ,
क्या इतने असहाय भूख कर दे ?
यकीं के साथ तुम कहोगे ,
जागना है हमें  , इंसान हु ,
इंसान के लिए लड़ाई लड़नी है।

पूछता है तबका ये ,
कितने है साथ अपने ,
तुम हो या और भी कोई ,
एक अकेला कुछ नहीं।
शंखनाद , बिगुल का , बनाओ न शगल ,
मिट जाओगे , मिटा दिए जाओगे ,
रुको तुम बहो नहीं।

मेरी जमीर जागी नहीं, अभी भी एकाग्रता कैद है।
नहीं लड़ पाउँगा।
मोबाइल , वातानाकूलक , मोटर ,
लपटा , चिपटा हो इनसे शर्प सा  ,
क्यों विचार मेरे लापता हो रहे है ?
रुक नहीं सकता , विलासिता , यौन क्रिया ,
दहाड़ मारे,  शोषित होने बुला रही है।

मैं हु इस देश का माध्यम वर्ग , सड़ गया हू ।
निकलना है गर्त से।
इन्तेजार नहीं , वक्त नहीं ,धैर्य नहीं।
स्वयम का आधार बनाना है।
जागना है मुझे , तुम्हे  और सबको 
जगाने के लिए नहीं ,आगे की श्रृंखला के ,
सुखमय , स्वस्थ , स्वर्णिम भविष्य
के कोशिश , इन्तेजार और आगाज में।


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Monday, November 21, 2016

क्यों खेल रहे है ये मिलकर खेल

समुन्द्र ,में अशांत सी लहरो की थपेड़े ,
कभी ऊपर, कभी निचे ,
कभी दूर पटकती।
पल पल  गति ,
दिशा  परिवर्तित होती।
चुपके से एहसास कराती  ,
जीवन ऐसा ही है।
कुछ कहना मुश्किल है ,
जीवन तो खारा है , पीना भी मुश्किल है।

सूर्य , चन्द्रमा  दूर इतने है ,
गति निर्धारित कैसे  करते ।
विज्ञानं , ज्ञान  , या खेल है
धरती , सूर्य या चंद्र , का।
क्यों खेल रहे है ये मिलकर खेल  ,
पूर्णिमा , अमावयस्आ , ग्रहण का ।

रूचि , अभिरुचि, इक्छा , अनिक्छा ,
तेरा शून्य है क्यों अब।
श्वेत पत्र  की प्रतिक्छा ,  की अभिलाषा में ,
बैठा हु मैं।
आस मेरी है , क्यों नहीं पूरी होती।

हजारो कोशिश , लाख मिन्नतें , असंख्य स्तुति ,
ठोकर  कब तक   , वक्त मेरा क्यों नहीं  आता।
समझ नहीं सका , अब भ्रम में जीना नहीं भाता।

धोखा , फरेब , मतलबी , कुत्सित , विचार,
खून की घूंट नहीं पीना अब।
जाग  उठा हु , लहरे क्या है ,
समुन्द्र का सीना ,चिर चूका हु।
शोध , प्रतिशोध गूंज रहा है ,
जीवन सोचता मैं लहरो में ही खो सा गया है।

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Saturday, November 19, 2016

पगली सी है वो , हारा सा हु मैं

पगली सी  है वो  ,
उलझी से है वो ,
जिरह करती रहती है वो ,
वफ़ा भी है , बेवफा भी है वो ,
क्या बोलु ,
वो तो है ,
हमसाया , हमसफ़र मेरा।

कभी शाया  सी थी , आज छाया भी,
न है वो।
कभी अर्थ थी वो ,
आज अनर्थ है वो।
कैसी सुरूप  थी वो ,
आज निकृष्ट है वो।
कभी दिल के पास थी वो ,
आज इतनी दूर है वो।
कुछ अनकही से कहानी है वो ,
खोज रहा हु मैं वो , जो है , अपना हमसाया , हमसफ़र।

मिली है आज वो ,
कहती है चंचल से नयने उसकी ,
हारा सा हु मैं , जीती सी है वो।

ठगा सा  खड़ा हु ,
सोच रहा हू ,
प्यार के लिए ,प्यार में यू क्यों,
वक्त जाया किया।
छाया , माया , अर्थ , अनर्थ कि ,
चक्रव्यू में
जीवन को यूँ  ही ,
वो की चाह में, क्यों खो दिया।

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चलो मैं हारा , चलो तुम जीती


रिश्तो की ख्वाहिश , अनंतर बसी है ,
कुछ मेरे मन में , कुछ तेरे मन में।

चलो हम तुम ,
कुछ मुकम्मल  करते है,
इस प्रतिकूल में,कुछ अनुकूल करते है।

कुछ अभिनव , कुछ अद्भुत ,
चलो हम तुम, निर्विरोध हो,
कुछ नूतन सा  अफसाना ,
थोड़ा तुम , थोड़ा हम ,
चलो मिलकर, रचते है।

कुछ लम्हा पास,
हम -तुम ने बिताया ,
कुछ उसने रुलाया ,
कुछ हमने रुलाया ।
क्यों हम -दोनों ने  ही,
खुद को  यूँ ही, क्यों सताया।
समझती  नहीं वो ,समझता नहीं वो।
थोड़ा तुम समझो , थोड़ा मैं समझू।

पता है तुम्हे , पता है मुझे ,
नाराज हो  तुम  , नाराज हू मैं।
फिर भी ,
पास आने की चाहत में ,
यूँ ही आकुल , है क्यों।
थोड़ा हम, थोड़ा तुम।


कुछ तुम चलो , कुछ मैं चलू ,
कुछ मैं भूलू , कुछ तुम भूलो।
ऐसा कुछ कर,  हम दोनों,
क्यों न हम, ये  गम भूले।
जरा तुम सोचो , जरा मैं सोचु ,
क्यों न हम, ये अहम भूले।


कुछ मेरे मन में है , कुछ तेरे मन में है,
एक दोनों में , दोनों ही बसे है।
ये विनती है, हम तुम से,
चलो मैं हारा , चलो तुम जीती ,
जीवन के रस्ते में,
चलो साथ होकर , सबकुछ  भूलकर
थोड़ा हम चले , थोड़ा तुम चलो।

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Friday, November 18, 2016

दुख मिला ख़ुशी से


दुख मिला ख़ुशी से ,
झूम उठा ख़ुशी से।

रोता मिला हँसते से ,
हँसाते गया ज़माने से।

गम मिला शराब से ,
हलक हुआ है गले से।

प्रेयसी  मिले जो  प्रेमी से ,
अग्न बुझे  है  जिस्म से ।

नीति मिला राजनीति से ,
लिख दिया विधान को।

दोस्त मिला जो दोस्ती से ,
खो न देना दुश्मनी में।

आशिक़ मिला आशिक़ी से ,
बेशुद्ध हुआ है  खुदी से।

ज्योति मिली रवि से ,
दम्भित हुई है गर्व से।

कर्तव्य मिला योगी  से ,
कर्मठ  हो उठा, इंसान स्वयं से।

देश मिले है किस्मत से ,
खो न देना इसे वैमन्सय से।


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Monday, November 14, 2016

छोड़े जा रहा हु मैं


छोड़ दिया ,
अब मैंने उड़ने को सोचना।
छोड़ दिया ,
इतने बंदिशो में, जीने की आशा।

छोड़कर , जा रहा हु मैं ,
सियासत के मिथ्या, सियापा को।

छोड़कर,
चुपके से मैं , जा रहा हूं ,
उलझनों के पहेली से ,
न सुलझ कर , न उलझ कर।


छोड़कर ,
अविरल से बहते हुए, नयनो  को ,
खुद में ही खुद  को सिमटकर।
जा रहा हु मैं ,  जा रहा हु मैं।

छोड़कर ,
तुम्हे मैं , मुझे तुम ,
अहम के  खडाका में  ,
बखेड़ा , झमेला कर  ,
लोचा जो हमने ,
जो तुमने ,किया है ,
सभी छोड़े ,
जा रहा हु मैं ,  जा रहा हु मैं।

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Sunday, November 13, 2016

हरे ,लाल ,कागज


क्या लिखू , इस पल ,
तन्हा हु मैं , लिए
हाथ में  बस ,
चंद कागज के टुकड़े।

पागल  थी दुनिया ,
कुछ पल पहले ,
हरे ,लाल ,कागज के ,
टुकड़े के पीछे ।


तनहा है ये अब ,
पूछता है ये अब ,
घायल हु ,क्यों मैं ,
परेशान हु, क्यों  मैं
साथ क्यों नहीं कोई ,
सोचता हु मैं  अब।

मुरीद, सारे ,
जो थे हमारे ।
क्यों, एक पल में ,
हवा हो,  क्यों ,
रुखसत हो गये।

दिन तो बदलती है सबकी ,
हँसता हु मैं ,
रंगत बदलने में ,
मुझ सा,
सानी था,
न कोई।

इतराती थी ,
बलखाती थी,
आबो हवा में मेरे आने से,
सूरा और  शबाब ,
बदमस्त हो जाती  थी।

देखो कैसा ,
ये  वक़्त है ,
इंसां न कोई ,
हरे ,लाल ,कागज को ,
देखे, इसे अब।


किस्से थे मेरे  ,
जाने हर और कितने ,
बेचारे थे, हम तुम, इनके बिना।

ऐसा ये , देशकाल आया ,
देखो जरा आज , रुस्वा है सब ,
लाचार हो सब  ,
अपमानीत कर मुझे ,
क्यों ,
फेंके जा रहे है,
 नदी , नालो ,में अब ।

शोभा कभी था ,
आभा कभी था ,
उत्सव भी ,मैं था ,
सभी कुछ तो, था मैं ही।
क्यों डरते है आज ,
मुझसे सभी,  यू ही ।


रिश्ते , वफ़ा, नाते ,
ईशारो पे मेरे,
बिकते थे,  सब तो सारे।

कहु क्या, मैं इसको  ,
कहते है किस्मत ,
जो इसको।
कैसे बदल गई।
न तुम हो , न वो है।
बस तनहा हु  मैं ,
खड़ा हु मैं , खड़ा हु मैं।

पिकाचु

Friday, November 11, 2016

हर पल ,हर पथ , हर झन

बेपरवाह , बेख़ौफ़ , बेमिसाल ,
लुत्फ़ उठा रहे है ,
आज कल के सियासतदार।

रुतबा , रोब ,  रेशमी रुखसार ,
सभी कुछ ,
हथेलियों में कैद कर रखा है।

खुदावंद बन खुदसाख़्ता,
है, हर  चाल इनका ,
बचा ,क्या?
कुछ नहीं।
प्यादे है हम।

बेहाल हो रही जिंदगी।

संकुचन , ह्राष हो रहा है ,
मुद्रा , नीति , चरित्र ,
कचनार का।

व्यय क्या अपव्यय क्या।

स्वयम्भू के जय में,
सर्वत्र विनाशक की उद्घोष में ,
मानव निरंतर अवनति के ओर ,
हर पल ,हर पथ , हर झन ,
अग्रसर, अग्रसर , अग्रसर।


पिकाचु





लिखता हु मैं , दिखती है तू


लिखता हु मैं , दिखती है तू ,
तड़पता हु मैं , तड़पती है तू।
प्यार ये मेरा , सिर्फ है तेरा ,
समझता हु मैं , समझती है तू।

आज अधीर हो मैं , तरसता हु क्यों ,
मेरी नहीं तू , गैर की क्यों।
बताते तो पहले , ये लिखता नहीं मैं ,
तस्वीर हु मैं, मेरी छाया है तू।


जाने जहाँ , जाते हो जो ,
कसमे , वादे , वफ़ा तो,
अपने ये लेते , तो जाओ।
जा के ,कही  तुम इनको ,
दफना के आना।

प्यार तो , तेरा ये  मेरा,
है सदियो  पुराना।
अनुरोध है जो,  बस  इतना ही तुमसे  ,
भूल के भी , हम तुम  कभी  भी ।
मदमस्त, बेपरवाह होकर,
तकलुफ़ न कर  दे  ।

सोच उत्कर्ष का रखना हमेशा,  
भला हो तेरा भी - भला हो मेरा भी।
सदैव स्मृति  में ,
तुम ये  अपनी रखना।
जीवंत  है जब तक, इसी जहाँ में।
रहना मुझे भी , रहना तुम्हे भी ,


पिकाचु


Thursday, November 10, 2016

एक इंकलाब , सैलाब , और एक महात्मा


आधा सच , आधा झूठ  ,
आधा इकरार , आधा करार ,
यही तो सच है ,मेरे तेरे ,
सबकी रंग बदलती दुनिया की।


आधा प्यार  , आधा धोखा ,
आधा वफ़ा , आधा जफ़ा ,
आधा दूध  , आधा पानी ,
आधा शराब , खाली बोतल ,
पूरा सच ,
नाचती दुनिया,   पीछे इनके।


सत्य वचन , कही न सुना ,
झूठा वचन , हर से सुना।
निंदित वचन , स्तुति वंदन ,
वर्तमान युग , हिंसा का तांडव ,
मिथ्या माया ,सर्वस्व छाया।


विश्व में आतंक , वैमनस्य सर्वत्र ,
वैचारिक मतवेद ,थम गया वैश्विक चाल ,
राजनीती की चाल , आम आदमी बेहाल।
कटुता , कुटिलता , काम की अग्न ,
दफ़न हो रही  इंसानियत।
इन्तेजार बस एक  इंकलाब , सैलाब , और एक महात्मा का।


पिकाचु



मैं तो बूढा हो चला हूं


देखो, ये जहाँ वाले ,
मैं तो बूढा हो चला हूं ।

वक्त कब गुजरा ,
काले से सफ़ेद ,
रंग बालो का हो चला ,
चेहरे पे छाई रौनक ,
कब जंवा से हवा हुई।
देखो ये जहाँ वाले ,
मैं तो बूढा हो चला।


जब हम जंवा थे ,
हम तो फ़ना थे ,
कठिन रास्ते तो  ,
हमारा डगर था ,
हारने  या जितने का ,
हमें तो गम न था।

हौसले भी  उमंग थी ,
बाजुओ में भुजंग थी।

कदमो में हमारे जमी था ।
मुठी में हमारे  आसमां था ।
कहे क्या हम ,
फिजा भी तो इतना  रंगीन था।
वो क्या समय था , सब कुछ जंवा था।


आज क्या हो गया ,
कदम थम सा गया है ,
लहू क्यों जम  गया है ,
शरीर थिथिल  रोगमय है।
ये जमी क्या , ये आसमां क्या।
कही कुछ दिख रहा, नहीं ,
दोस्तों , अब तो मैं,
बूढ़ा हो गया हु।

उम्र अब मेरा, ये  बीत गया  है,
भजन कर,  प्रवचन कर ,
मोक्ष का  रास्ता ,
हम वृद्ध  ढूंढ रहे है।

करीबी ये,  रिश्ते ये, समाज ,
सभी तो हमारे ,
मृत्यु का बाट जोह रहे है।
अस्थियाँ तो  नदी में,
प्रवाहित कर ,वसीयत में,
लिपिबद्ध करने को ,
बच्चे हमारे  व्यग्र हो रहे है।

सब देख, ये मन,
दुखी सा हो गया है ,
दोस्तों , अब तो मैं,
बूढ़ा हो गया हु।

एक सुबह मैंने ,
प्रण ये लिया का ,
मन  अभी भी ,
जंवा है हमारा।

क्यों न  ऐसा,
हुनर हम सिखाये  ,
वृधो को भी स्वालंब बनाये।

नया फलसफा लिख कर ,
इस अंजुमन में ,
क्यों न , नया रास्ता ,
सभी को दिखाए, हम।

दोस्तों , लगता है अब, मैं ,
फिर जंवा हो गया हु ,
इस गुलिस्ता में ,
नए नज्म लिखने को,
मुकम्मल हो गया हु।

पिकाचु 

Sunday, November 6, 2016

कवि तो फकीरी है

पागल , दीवाना ,
तो हु मै ,
जो कविता  कर रहा हु ,
ठहरा हुआ,
तो हु मैं ,
तभी तो शब्दो  की,
आवारगी कर रहा,
हु , मैं।

मन में गुबार है ,
यही तो मेरी कविता  का आधार है।
इसके बिना मैं क्या ,
मेरा जीवन ही निराधार है।

आप चंद लोगो की,
शोहबत ही ,अच्छी है।
न जाने कवियों की,
तोहमत तो न अच्छी है।


कवि  तो फकीरी  है ,
भाग्यवाले को ही,
ये नसीबी है।
ये तो ईद की ईदी है,
पाक , पवित्र , खाविंदी है ,
नेमत है , इनायत है।
खुदा का , खुदा के बन्दों पर।


मत समझना ये ,
वक्त का , भाग्य का ,
दोष है।

ये तो टूटते हुए सितारों को ,
फिर से चमकने का पैगाम है।
ठहरे हुए पानी का,
बहने का आयाम है।
खुशहाल गाँवो में
बैसाखी , बिहू , ओणम ,
के त्यौहार में सबकी मुरादे
पूरी करने का स्वर्णिम आगाज  है।


पिकाचु

Saturday, November 5, 2016

हक़ीक़त

वो आज आई सवेरे ,
ख्वाबो में खयालो में ,
पूछा मैंने उससे , क्यों ,
हक़ीक़त में तनहा कर ,
ख्वाबो में रूबरू होते हो।

स्वप्निल सवेरा तो ,
खुदा की बंदिगी है।
इबादत है, रौशनी ,
उजाला है ओज का।

चण्ड , प्रचंड ,
होकर प्रखर तुम,
साहिल की तसवुर का ,
इरादा ,अपने  बाजुओ में ,
तू हमेशा  बुलंद  रख।


पैगाम हमारी ,
तो ये लेते जाओ।
गरूर गैर की बाहो का,
ये तो  अबस है।
इस निगाहबां का काबू तो  ,
जन्नत से जहनूम तक है।


एहसास का टुकड़ा ,
जो टूट कर बिखर गया है ,
बिसरने  का वक्त है।
गिर अगर गए तो
संभलने का वक्त है।

खो न देना बीतते,
हुए लम्हे ,
इस बेगैरत गम में ,
ऐ मेरे हमदर्द ,
तेरी कश्ती का किनारा,
अभी तो बहुत दूर है।


,पिकाचु





  • तसव्वुर= कल्पना, दिवास्वप्न, विचार
  • अबस= लाभहीन, बेकार, व्यर्थ, तुच्छ
  • निगाहबां= रक्षक, देख भाल करने वाला
  • क़ाबू= शक्ति, अधिकार, वश, पकड़
  • बादिया= उजाड़, मस्र्स्थल
  • तारीक= अन्धेरा, धुंधला
  • तर्स= भय, आंतक
  • तबाह= विनष्ट, बिगड़ा हुआ, बुरा, दुष्ट
  • अबस= लाभहीन, बेकार, व्यर्थ, तुच्छ
  • गु़बार= वाष्प, धुंध, फुहार, धूल, दु:ख

  • नादिम= लज्जाशील, नम्र, लज्जित
  • गऱूर= गर्व, घमंड
  • गै़र= अजनबी, परदेसी
  • पैगा़म= संदेश, समाचार, विमश
  • क़ाबू= शक्ति, अधिकार, वश, पकड़

क्या लिखू

क्या लिखू ,
तेरा नाम लिखू
कि ना लिखू।

तुझे नाम दू ,
या बदनाम करू।

कसमे वादे ,
याद  रखु ,
कि भूल जाऊ।

अब तू ही बता,
की मैं क्या लिखू।

प्यार की सदाये ,
या तेरी अदाये।
तू ही बता कि,
क्या याद रखु ,
और क्या बिसरू ।

रखने को संभाल कर ,
सब कुछ रखा है।
प्यार, वफ़ा
और तेरा ये  जफ़ा।
सभी है साथ ,
कही कोई  दूर नहीं।

मेरे नसीबी से
बदनसीबी कि ,
ये  कहानी
जुबानी याद है।
क्या लिखू ,
तेरा नाम लिखू
कि ना  लिखू।


जोश में हु ,
फिर क्यों ,
होश में हु।

क्यों सोच में हु?
गर तो  गहरा है।
प्यार तो मेरा ,
तेरी समझ में ,
थिथिल झील,
सा उथला है।

आबरू से बेआबरू
हो गया मैं ,
पूनम से अमावस
छा गया ये ,
फिर क्यों न  लिखू।


हमदम मेरे ,
प्यार तो तेरा
जुमा - जुमा है,
हमने तो हजारो लाखो में
तुम्हे चुना है।

प्यार तो पाक , पवित्र ,
दिल के तरंग और
नेक दिल उमंग है।
भवबंधन नहीं ,
दिलो का बंधन है,
अमरत्व का भवभंजन है।

तेरी समझ तो नहीं ,
मेरी समझ तो है।
वांछित नहीं ,
अवांछित हु मैं।
सोच रहा हु क्या लिखू।

बस प्यार तो,
मेरा तेरे लिए,
सदियो से सदियो तक,
अजर अमर कालातीत है।

तभी तो ,
मैं भी , तू भी  ,
सोच रहे।

क्या लिखू।
तेरा नाम लिखू
कि ना  लिखू।


पिकाचु




Thursday, November 3, 2016

एक रुमाल :एक रद्दी के टोकरी में

एक रुमाल थी,
एक हसीना की,
दीवाने के हाथो में।

शोख  सी हसीना ,
निर्दोष सा दीवाना ,
तन्हाई के आलम में ,
ग़मख़्याली के
जुगाली में लगे थे।

एक कप कॉफ़ी का ,
बड़े चाह से ,
लुत्फ़ उठाते थे।
दोनों जब कभी
रश्क कर जाती थी दुनिया।

आह निकले दीवाने की।
कभी ये हसीना  ,
अपनी लबो से चुम कर ,
ब्लैक कॉफी भी
मीठी  कर जाती  थी।

आज आलम यह है,
समा भी है, परवाना भी है ,
साथ में मीठी कॉफी भी है ,
न जाने  क्यों,
हसीना की इनायत जफ़ा है।

क्यों जुदा हो ,
सदा कर गई ,
दीवाने को।
हल ये दास्तान ,
किसको पता था ,
बस साथ था एक रुमाल ,
हसीना का,दीवाने के हाथो में।

बचा क्या था ,
अक्स , अफ़सोस या अलाप।
कॅपकॅपा रहा था , दीवाना,
ठण्ड या लथपथ पसीने से।
पास न था कोई,
हमसाथ था बस एक रुमाल।


हसीना का ये खबर,
एक  तमाचा था ,
अफ़सोस प्यार तो,
एक  तगादा था ,
बिक चूका है आज वह।
हसीना किसी और परवाने की
हूर हो रही है।


चाँद दिनों की मेहमान हू ,
अब मैं किसी और की जान हू।
दीवाना , बेगाना सा हुआ ,
बदहवास हो आग्रह किया ,
चलो भाग चले , कही और चले।

हसीनो का जलवा देखो ,
आग बबूला हो बोली ,
मोहब्बत तो ,
कुछ दिनों की सौगात है।
जीवन तो सुक़ून से बिताने दो
इज्जजत  परिवार की, निभानी दो ।


दीवाने के हाथो में रुमाल था ,
रोश में सोच न था।
बस संभाल कर रखा ,
वो रुमाल , सोचकर
किसी दिन हसीना का,
बहते हुए अक्स से गीली करेगा।

आज दीवाने के हाथो में ,
साथ रहता,जो हमसाये सा।
बटुए के एक कोने में,
न जाने वह रुमाल न था।


न जाने क्यों दीवाने ने ,
फ़ेंक दिया आज  ,
एक रुमाल को,
एक  रद्दी  के टोकरी में।
खास था वह लम्हा।


मैं ही वो दीवाना हु ,
आज खुद से खुद
पूछ रहा हू ,
क्यों फ़ेंक दिया,
उस , एक रुमाल को
एक , रद्दी  के टोकरी में।

पिकाचु


एक रुमाल :एक रद्दी के टोकरी में

एक रुमाल थी,
एक हसीना की,
दीवाने के हाथो में।

शोख  सी हसीना ,
निर्दोष सा दीवाना ,
तन्हाई के आलम में ,
ग़मख़्याली के
जुगाली में लगे थे।

एक कप कॉफ़ी का ,
बड़े चाह से ,
लुत्फ़ उठाते थे।
दोनों जब कभी
रश्क कर जाती थी दुनिया।

आह निकले दीवाने की।
कभी ये हसीना  ,
अपनी लबो से चुम कर ,
ब्लैक कॉफी भी
मीठी  कर जाती  थी।

आज आलम यह है,
समा भी है, परवाना भी है ,
साथ में मीठी कॉफी भी है ,
न जाने  क्यों,
हसीना की इनायत जफ़ा है।

क्यों जुदा हो ,
सदा कर गई ,
दीवाने को।
हल ये दास्तान ,
किसको पता था ,
बस साथ था एक रुमाल ,
हसीना का,दीवाने के हाथो में।

बचा क्या था ,
अक्स , अफ़सोस या अलाप।
कॅपकॅपा रहा था , दीवाना,
ठण्ड या लथपथ पसीने से।
पास न था कोई,
हमसाथ था बस एक रुमाल।


हसीना का ये खबर,
एक  तमाचा था ,
अफ़सोस प्यार तो,
एक  तगादा था ,
बिक चूका है आज वह।
हसीना किसी और परवाने की
हूर हो रही है।


चाँद दिनों की मेहमान हू ,
अब मैं किसी और की जान हू।
दीवाना , बेगाना सा हुआ ,
बदहवास हो आग्रह किया ,
चलो भाग चले , कही और चले।

हसीनो का जलवा देखो ,
आग बबूला हो बोली ,
मोहब्बत तो ,
कुछ दिनों की सौगात है।
जीवन तो सुक़ून से बिताने दो
इज्जजत  परिवार की, निभानी दो ।


दीवाने के हाथो में रुमाल था ,
रोश में सोच न था।
बस संभाल कर रखा ,
वो रुमाल , सोचकर
किसी दिन हसीना का,
बहते हुए अक्स से गीली करेगा।

आज दीवाने के हाथो में ,
साथ रहता,जो हमसाये सा।
बटुए के एक कोने में,
न जाने वह रुमाल न था।


न जाने क्यों दीवाने ने ,
फ़ेंक दिया आज  ,
एक रुमाल को,
एक  रद्दी  के टोकरी में।
खास था वह लम्हा!
मैं ही वो दीवाना हु ,
आज खुद से खुद
पूछ रहा हू ,
क्यों फ़ेंक दिया,
उस , एक रुमाल को
एक , रद्दी  के टोकरी में।

पिकाचु


एक रुमाल :एक रद्दी के टोकरी में

एक रुमाल थी,
एक हसीना की,
दीवाने के हाथो में।

शोख  सी हसीना ,
निर्दोष सा दीवाना ,
तन्हाई के आलम में ,
ग़मख़्याली के
जुगाली में लगे थे।

एक कप कॉफ़ी का ,
बड़े चाह से ,
लुत्फ़ उठाते थे।
दोनों जब कभी
रश्क कर जाती थी दुनिया।

आह निकले दीवाने की।
कभी ये हसीना  ,
अपनी लबो से चुम कर ,
ब्लैक कॉफी भी
मीठी  कर जाती  थी।

आज आलम यह है,
समा भी है, परवाना भी है ,
साथ में मीठी कॉफी भी है ,
न जाने  क्यों,
हसीना की इनायत जफ़ा है।

क्यों जुदा हो ,
सदा कर गई ,
दीवाने को।
हल ये दास्तान ,
किसको पता था ,
बस साथ था एक रुमाल ,
हसीना का,दीवाने के हाथो में।

बचा क्या था ,
अक्स , अफ़सोस या अलाप।
कॅपकॅपा रहा था , दीवाना,
ठण्ड या लथपथ पसीने से।
पास न था कोई,
हमसाथ था बस एक रुमाल।


हसीना का ये खबर,
एक  तमाचा था ,
अफ़सोस प्यार तो,
एक  तगादा था ,
बिक चूका है आज वह।
हसीना किसी और परवाने की
हूर हो रही है।  


चाँद दिनों की मेहमान हू ,
अब मैं किसी और की जान हू।
दीवाना , बेगाना सा हुआ ,
बदहवास हो आग्रह किया ,
चलो भाग चले , कही और चले।

हसीनो का जलवा देखो ,
आग बबूला हो बोली ,
मोहब्बत तो ,
कुछ दिनों की सौगात है।
जीवन तो सुक़ून से बिताने दो
इज्जजत  परिवार की, निभानी दो ।


दीवाने के हाथो में रुमाल था ,
रोश में सोच न था।
बस संभाल कर रखा ,
वो रुमाल , सोचकर
किसी दिन हसीना का,
बहते हुए अक्स से गीली करेगा।

आज दीवाने के हाथो में ,
साथ रहता , जो हमसाये सा ,
बटुए के एक कोने में।
न जाने वह रुमाल न था ,


न जाने क्यों दीवाने ने ,
फ़ेंक दिया आज  ,
एक रुमाल को,
एक  रद्दी  के टोकरी में।
खास था वह लम्हा!
मैं ही वो दीवाना हु ,
आज खुद से खुद
पूछ रहा हू ,
क्यों फ़ेंक दिया,
उस , एक रुमाल को
एक , रद्दी  के टोकरी में।

पिकाचु


Tuesday, November 1, 2016

ये चलती रेल


सटर, पटर, खटर
आवाज करती है ,
ये चलती  रेल।


ईटा , पत्थर, सीमेंट,
कल ,पुर्जे , कपडे, लते ,
ढोती, ये सरपट रेल।
,

मुसाफिर तो इसका  है ,
सारा देश,
जात - पात,   न
धर्म या भेष ,
कोई भेद न करती ,
ये चलती   रेल।  

सबका साथ - सबका विकास
आदर्शोक्ति है  ,
ये सरपट  रेल।
 
हवा के तेजी से दौड़ती है  ,
दूरियां छोटी करती है ,
हर कोने को जोड़ती है ,
ये चलती   रेल।    


कब, कैसे ,हो गया,  लक्ष्य ,
इसका मुनाफा-खाना !
क्यों नीति में राज -नीति ,
साधती आज ,
ये चलती रेल।


माना इमदाद  है,
साधारण दर्जे की,
आम आदमी की यात्रा।
फिर क्यों, बारबार टिकट
पर प्रदर्शित कर
हमें इमदादी बताकर ,
अपने  रहमदिली और
रहमोकरम का ढिंढोरा
बजाकर , खुद क्यों ?
रहनुमा बनती,
 ये चलती रेल।

क्यों खास, ये
धीरे धीरे  बनती ,
ये चलती रेल।

क्यों हमारी,
कमर तोड़ती ,
ये चलती रेल।

क्यों टिकट ,
कभी मिलते नहीं?
फिर भी वजीर साहेब ,
कभी बघारते, थकते नहीं ,
ये  चलती रेल।


क्यों , आधुनिकता के नाम पर,
गति , प्राद्योगिकी, निवेश को
तरसती ये चलती   रेल।

क्यों , निजीकरण के दौर में ,
समाजीकरण का शऊर
भूलती ,ये चलती रेल।

क्यों अवर होती जाती ,
हमारी ये चलती रेल।

आप क्यों नहीं बताते ,
कहा लिए जाते ,
हमारे ये चलती रेल।



पिकाचु
                         


इमदाद-  सब्सिडी मदद पाने वाला
इमामत-नेतृत्व