Tuesday, February 21, 2017

अस्थिर मन

अस्थिर मन,
स्थिर होने की अभिलाषा में ,
खोज रहा है,
भोर के उजियाले को।

त्याग क्या तेरा ,
चाह तो तेरा ,
शापित करता। 
नागिन बनकर , मेरे इस जीवन को ,
पल पल डंसता। 

उजाला मन मेरा ,
श्यामल तन मेरा ,
कुचक्र व्यहु की , 
चक्र में फंसकर ,
पल पल, तील तील ,जीवन लीलता। 

स्थिर मन का , 
प्रण था, प्रण है, 
नहीं प्राण प्रतिष्ठा ,तेरा 
इस जीवन  करना। 
उद्देलित , ये अस्थिर मन,
न जाने ,
फिर क्यों ,मेरी बात न  सुनता। 

टुटा दर्पण , 
बिखरा सिंदूर ,
फैला काजल , 
छन छन पायल  ,
बिसरि यादो को ,
अस्थिर करके ,
काले अंधियारे कि , चादर क्यों ओढ़े।  

पाप तो इस मन, 
का धूल सा गया है ,
ज्योति जीवन का ,
बुझ सा  गया है। 
कटुता दिल की , आज तो निश्छल । 
लज्जा तेरी ,
क्यों,
अबतक निर्लज्ज है।

पिकचु 

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