अस्थिर मन,
स्थिर होने की अभिलाषा में ,
खोज रहा है,
भोर के उजियाले को।
त्याग क्या तेरा ,
चाह तो तेरा ,
चाह तो तेरा ,
शापित करता।
नागिन बनकर , मेरे इस जीवन को ,
पल पल डंसता।
उजाला मन मेरा ,
श्यामल तन मेरा ,
कुचक्र व्यहु की ,
चक्र में फंसकर ,
पल पल, तील तील ,जीवन लीलता।
स्थिर मन का ,
प्रण था, प्रण है,
नहीं प्राण प्रतिष्ठा ,तेरा
इस जीवन करना।
उद्देलित , ये अस्थिर मन,
न जाने ,
फिर क्यों ,मेरी बात न सुनता।
न जाने ,
फिर क्यों ,मेरी बात न सुनता।
टुटा दर्पण ,
बिखरा सिंदूर ,
फैला काजल ,
छन छन पायल ,
बिसरि यादो को ,
अस्थिर करके ,
काले अंधियारे कि , चादर क्यों ओढ़े।
काले अंधियारे कि , चादर क्यों ओढ़े।
पाप तो इस मन,
का धूल सा गया है ,
ज्योति जीवन का ,
बुझ सा गया है।
कटुता दिल की , आज तो निश्छल ।
लज्जा तेरी ,
क्यों,
अबतक निर्लज्ज है।
क्यों,
अबतक निर्लज्ज है।
पिकचु
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