Monday, February 27, 2017

कुछ ऐसा लिखू ,लिखकर,
मैं ,
अमर हो जाऊ। 

कुछ ऐसा करू ,सपनो को,
मैं ,
हकीकत कर  दू। 

कुछ ऐसा देखु ,गिरते हुए को ,
मैं 
खुदा की रहमत दिला  दू। 

कुछ ऐसा चलु ,
मैं। 
भटके हुए मंजिल मिल जाये। 

दिल ने कुछ भूले यादो को,
तराशा तो सोचा ,
माँ ने ,कुछ ऐसा ही, बचपन में कहा था। 
कसक सी उठी , खुद में , 
कुछ करने की कीमत, क्यों है इतनी। 

पिकचु 







फैशन की दुनिया

घोंसला पेड़ो का ,
देखा है ,सर पे उगते हुए।

फैशन की दुनिया है ,
जुराबे भी काफी है, तन ढकने के लिए।

पिकचु

Sunday, February 26, 2017

मैं वफ़ा हु बेवफा का


मैं वफ़ा हु बेवफा का ,
गमजदा हु बेवफा से  ,
खफा हु खुद मैं  ,वफ़ा क्योंकि, बेवफा से ।

काफिर हो गया हु,
मैं ,
बेवफा की दिलफरोशी से।

हाल  ऐ दिल ,
खुद की बयाँ कर रहा हु ,
इंतिहाँ इस सदा ,की, जुबाँ कर रहा हु।

बेवफा की मंजर में, चमन ये गुलिसिता की  ,
दगा ऐसा जालीम ने मुझको ,
कयामत के जलवे से ,जिंदा ही,
रूबरू करा दी।

जख्म उस बेवफा की, दिल में छिपाये हुए ,
फिर रहा हु मैं, दर बदर, ठोकर खाता।

फरेबी से  इकरार,इजहार ,न जो की होती,
गुलिस्ता अभी मेरा रंगीन होता,
वफ़ा मेरा न यु , संगीन   होता।

तलाशता हु मैं  , बेवफा का ठिकाना,
संजोये हुए, बेवफा का, वो मंजर।
करारे वफ़ा है ,
बेकरार ,लिए हाथ में ,
वफ़ा का ये खंजर।

लहू वफ़ा का जम सा गया है ,
तमन्ना दिल का मर सा गया  है ,
न चाहत है तेरी , बस बेचैनीं है ,बस बेचैनीं है।

आफताब ये तेरा, जो साथ है ,
कर्ज बेवफ़ा का,ये रोके हुए है।
नहीं तो उस मंजर ही , कर्ज ,अदा कर देता।
बेवफा का ये जलन ,  दिल में रिसते  हुए ,
शहर दर शहर ,न यु ही , कराहता फिरता, कराहता फिरता।

पिकचु

Saturday, February 25, 2017

आदमी से इंसान तो बन जाओ

हवा का रुख हम न भांप पाये  ,
टूटते हुए घरो को हम न जोड़ पाये ,
कुछ करने की चाहत थी, मन में ,
दिल से जुबाँ पे चाहत ,तो ले आये , 
न  जाने क्यों , 
बाजुओ में, वो हौसला न ला पाये। 

वक्त के इस मंजर पे ,अभी जो तुम न सम्भल पाये ,
घुट घुट के मरोगे तुम।  
जो कि , अपने बचेंगे कहाँ , तुम्हारे आसपास ,
उम्र के इस आखिरी पड़ाव पे। 

समस्या है बड़ी ये , 
कौन है अपना इस अंतिम दौर में।

रातो नींद उड़ाई थी, जिस बबुआ के लिए ,
नासमझ, वो कमाने को ,
क्यों इतनी दूर निकल है, पड़ा।  

पढ़ा है उम्र जीने का बढ़ गया है, दोस्त।
देखा है मौत और दूर थोड़ा चल गया है, दोस्त। 
क्या फायदा , अपने जिसके लिए जिये  थे, सदा,
वही हाथ छोड़.
किसी और के साथ , उसके  घर चला गया है, सदा। 


दोस्त  , वो खुद को संभालेंगे कि,
गैर की मुसीबत को गले लगाएंगे। 

वक्त है आदमी से इंसान तो बन जाओ  ,
कब्र में चैन से सोने के लिए , कुछ भला तो कर जाओ। 

पिकचु 

Friday, February 24, 2017

शोर है -शोर है

शोर है शहर में ,
शोर है गाँव में।

शोर की दरकार है,
मुहर्त है चुनाव का ,
हिसाब का किताब का ,
अपनों से अपनों के ,
वादाखिलाफी का।

शोर में आत्मविभोर है ,
गर्व से कहते है,
पर्व है,
ये तो  प्रजातंत्र है।

शोर में  उड़ते हुए ,
धूल फाँकता ,
हर उम्र यहाँ।

बच्चा भी समझता है ,
जुमला है।
मामला तो स्वार्थ का है,
राज का है ,
प्रजातंत्र तो, नाममात्र का है।

शोर के  इस दौर में  ,
बड़ा , मंझला , सँझला , कन्झला ,
नेताओ की  चौकड़ी,
लोमड़ी सी बन धूर्त ,
धकियाने को, है केंद्रित।

शोर  के इस दंगल  में ,
सब है निर्लज्ज।
लुटता है, बिकता है,
खुद ही उतारता है ,
अस्मिता स्वयम का , ये निर्लज्ज ।

शोर तो तंत्र का है ,
विकास के मंत्र  का है।

न जाने क्यों फिर  ,
आज इनकी,
जिव्हा तो निर्लज्ज है, कपटी है ।
स्वयम के शोर में ही  ,
स्वाहा को झपटी है।

पिकचु



Thursday, February 23, 2017

जाग उठो

भ्रष्ट आचरण ,
भ्रष्ट विचार ,
भात भात के  भ्रष्ट विकार  ,
लील रहा, ये संसार।

भ्रष्ट का साया ,
भ्रष्ट का राज ,
भ्रष्ट का  चक्रव्ह्यु ,
भेद न पाये, कलयुग का  ,
ये भीरु,  अभिमन्यु।

भीतर ,भीतर धधक रहा है ,
भ्रष्ट  ह्रदय में ,
पैशाचिक भ्रमजाल ।

भांति भांति  के रूप लावण्य के ,
ओज से चौंधियाकर ,
भ्रमित मन,निरुत्तर हो ,
सींच रहा है ,क्यों रुग्ण,
अचार, विचार।

विलासिता की आडंबर से,
भरमाये इस निगमित संसार में ,
 मानव कब का  ,भूल गया है,
 समग्र खुमार।

भ्रष्ट वक्त है ,
भ्रम की लीला ,
मदमस्त है दुनिया।

सब खोये है , सब सोये है ,
चकाचौंध की दमक में सारे ।
मन की ज्वाला, भभक रही है ,
बुझने को है, सब्र नहीं अब।

विनती है ,ऐ  दुनियावालो,
वक्त की जंजीरो को तोड़कर ,
जाग उठो,
ऐ  दुनियावालो।

पिकचु

Wednesday, February 22, 2017

जमी पे बिखरा पत्ता

घूमते फिरते ,हिलते डुलते ,
सुबह सबेरे , की बेला में ,
सर्द मस्तिष्क में ,
रोधक अवरोधक ख्यालो का ,
माप बनाते ,  कितने दूर
गर्म लहू के लकीरो को ,
मन ये तेरा मेरा ,
क्यों  उकेरे जाते ।

फुदक रही गौरइया रानी  ,
कुते टप टप , लार टपकाते।
बंदर , मस्ती की उधम मचाता।

धमाचौकड़ी , पकड़म पकड़ी,
मधुरमय करती सूर्योदय की.
इस बेला को ।

गिरा  जो पत्ता , अपनी डाली से ,
सुर्ख समय से सूखता जाता।
टूटी पत्ती ,बिखरी जमी पे ,
कीट, पतंग, चट पट ,
कुतरती इनको।

जमी पे बिखरा , धूल  खाता ,
रंग विहीन, टुकड़ो में कुतरा ,
पड़ा ये  पत्ता  , आज ,
तलाश रहा है ,
मंजर अपना।

मानव अपना,
शून्य इन संयोगो से।
खाका बुनता ,  उठा पटक का,
दिल  में क्यों रखकर ,
अहम का कोलाहल।

पिकचु






Tuesday, February 21, 2017

अस्थिर मन

अस्थिर मन,
स्थिर होने की अभिलाषा में ,
खोज रहा है,
भोर के उजियाले को।

त्याग क्या तेरा ,
चाह तो तेरा ,
शापित करता। 
नागिन बनकर , मेरे इस जीवन को ,
पल पल डंसता। 

उजाला मन मेरा ,
श्यामल तन मेरा ,
कुचक्र व्यहु की , 
चक्र में फंसकर ,
पल पल, तील तील ,जीवन लीलता। 

स्थिर मन का , 
प्रण था, प्रण है, 
नहीं प्राण प्रतिष्ठा ,तेरा 
इस जीवन  करना। 
उद्देलित , ये अस्थिर मन,
न जाने ,
फिर क्यों ,मेरी बात न  सुनता। 

टुटा दर्पण , 
बिखरा सिंदूर ,
फैला काजल , 
छन छन पायल  ,
बिसरि यादो को ,
अस्थिर करके ,
काले अंधियारे कि , चादर क्यों ओढ़े।  

पाप तो इस मन, 
का धूल सा गया है ,
ज्योति जीवन का ,
बुझ सा  गया है। 
कटुता दिल की , आज तो निश्छल । 
लज्जा तेरी ,
क्यों,
अबतक निर्लज्ज है।

पिकचु 

Monday, February 20, 2017

कर्म-कर्तव्य के , नई शगूफे तू गढ़


अशांत है ,
सब कुछ बिखर गया है ,
कुछ न पाने की चाहत में इतना ,
सबकुछ पा गया हु ।

आज क्या है मेरा ,
कौन सा रूप है ,
मित्र , शत्रु , भाई ,बहन , माँ , बाप।
सारे है,
कृत्य ही मेरे।

और क्या चाहे , ये मन तेरा ,
अमर अजर बनने की चाहत ,
फिर , क्यों पाले।

खोया है किस भ्रम जाल में ,
उमड़े क्यों ये मन ,
दुनियादारी की मकड़ जाल  में।

मन का मन से कटाक्छ है ,
कर्मवीर न धर्मवीर है ,
इस मिथ्या शीशमहल
का क्यों बन बैठा है,
राजा रंक तू।

जो है सो है ,
जड़ या  चेतन ,
खड़ा हुआ मूक ही अब रह।

मन की अलाप का,
ये विलाप है,
जीवन के बचे ,
अभी कई प्रलाप है।

मूढ़ मत बन ,
धैर्य धीर से ,
बेबस मन को सृजित कर ,
कर्म-कर्तव्य के , नई शगूफे तू  गढ़।

पिकाचु

Sunday, February 19, 2017

"भूखे है , नंगे है , मरते है , चिल्लाते है:-"

बैठे हुए लिखते है, किस्मत ,
चंद  मेहरबान।
गिरते हुए उठाने को बैठे है,
चन्द मेहरबान।

पढ़ा आज ,
किसानों की जमी होती है बंजर।
भूखे है , नंगे है , मरते है , चिल्लाते है ,
फिर भी ,
बैठे है कुछ, भद्र ,
लिखने को किस्मत ,
सूली पे लटके ,
इन इंसानो की किस्मत ।

देश है अपना ,
लोग है अपने ,
सियासत है उनकी ,
दुखिया है कौन , मरता है है कौन ,
सब है गौण।

पूंजी ही  बोलता ,
पूंजी ही दौड़ता ,
पूंजी के सामने ,
सारी नीति है मौन।

लिखते है कुछ   ,
प्यार  , मोहबत ,
हारे हुए ,तराने अफ़साने के।
सिमटी , है , तमन्ना ,
बस महबूबा  की।

खोये है कुछ ,
सामानों की दुकानों की,
रौनक बढ़ाने।
जनता भी ऐसी ,
भद्र भी ऐसे , युवा भी ऐसे ,
फिर ,
जुआ कौन खेले ,
ब्यार बदलाव की,
भई  हो कैसे।

लिखता हु मैं , डरता हु मैं ,
सहमता हु मैं।

घबराता है  मन ,
रहने को  संग ,
सियासती की मस्ती में खोये हुए ,
शमशानो की बस्ती में।

चलो हम तुम कुछ करते है ,
पूंजी -सियासत की गठजोड़ को ,
मिलकर बदलते है।
चलो हम तुम कुछ करते है।

पिकाचु





सुनो मत , देखो मत , चुप रहो


भूख ,गरीबी , शोषण ,
बिकता नहीं ,
शून्य समाज में ज्वलंत विषय,
दिखता नहीं।

तड़पता , बिलखता ,
जमी पे पड़ा ,
इंसान है या जानवर ,
कोई समझता नहीं।

मौसम , चाहे सर्द हो या गर्म ,
तपीश या कंपकपी ,
नंगे पैर , फटेहाल ,  कौन।
सोच ही हवा है।

मजा है , कुछ का , इन्हें ,
गर्म , सर्द का फर्क है कहाँ।
दौड़ता है बैठा इंसान  गाड़ियों में ,
आबोहवा,  इसे कहा दीखता।

रोता हुआ  इंसान , सर्वत्र है।

हरे टाट के पीछे छिपा ,
वक्त से परे ढकेलता ,
सियासत है कैसा।
सादिया बीती , सियासत  न गई।

वसूला महसूल परिवर्तन को  ,
आशियाना, अस्पताल ,  रोजी रोटी को ।
रहे वही के वही ,
कर रहे  गुलामी ,
कल थे सामंत ,आज है पूंजीपति।

कैसा  लाईलाज मर्ज है ,
कोख से जन्मा  सिर्फ अपना , परे सब पराये।
सोच है इंसान है या जानवर ,
सोच है ये कैसा।

बोलता जो इंसान , उसे कोई सुनता नही।
सुनो मत , देखो मत , चुप रहो।
न जागने की कसम खाई तो क्या कर लेगा कोई।

चकाचौंध , ही बिकता यहाँ ,  बाकि सब गौण।

पिकाचु 

Saturday, February 18, 2017

दो पैर , दो हाँथ, दो आंख तीक्ष्ण इंसान

युद्ध का अभिषेक ,
मस्तिष्क में आवेग ,
बाजुओ में है वेग , लेकर चल पड़ा 
ध्वंश विध्वंश की चाह में ,
दो पैर , दो हाथ , दो आंख , तीक्ष्ण बुद्धि का या मानव परिवेश। 

खंड खंड में बाँट दिया अक्षांश ,देशान्तर  । 
दो पैर दो हाथ तीक्ष्ण बुद्धि ने चीर का रख दिया,
धरातल की सतत  गति। 

युद्ध की मनोभाव ,में,
बह रहा है राजनीती की दशा। 
कौन रोके इस दहशत को , 
इंसान, अपना कही सो गया है। 

क्षेत्र क्षेत्र  सूचना , भोंपू से कर रही उद्घोष,
जयकार ले रही विध्वंस।  
सत्ता लोलुपता  की , कर रही सर्वनाश । 

मौत तो मौत है , अपना या तेरा ,
इसका या उसका। 
मौत तो मौत है।

अधीरता , कुटिलता बह रहा लहू में ,
तंज करती मानवता , युग युग में खोई हर सभ्यता,
विध्वंश की इस खोज में। 

युद्ध का अभिषेक कर  ,
मैंने तो नहीं कहा,
बोलता है इंसान , यहाँ ,वहाँ , जहाँ , तहाँ। 
फिर कौन है , ढूंढो जरा , चाह किसे है विध्वंश का। 

पूछता है अमन ,
क्यों , इंसान अपना इंसान,
से डरा हुआ।

स्वार्थ , लालच , उत्पाद का उपभोग की मीमांशा में, 
क्यों बंटा  वर्ग , फीट,  खंड खंड में, मैं,
दो पैर , दो हाँथ, दो आंख तीक्ष्ण इंसान, मैं। 

उतर चल , निकल चल ,  शांति की चाह में ,
खोज तू , मैं कौन , अस्तित्व क्या।

इंसानियत हु , इन्तेजार है अशोक का ,
चल पड़ा , गिर पड़ा , थक पड़ा  , रुका नहीं, बस चल पड़ा।

पिकाचु 

Tuesday, February 14, 2017

भगवन कितना कंद्रन करता

भगवन कितना परेशान होगा ,
मन ही मन , इंसान देख,
कंद्रन करता।

सृष्टि की रचना की मद में , भूल गया ,
भगवन अपना , साधुवाद की अमृतवाणी।

रचते रचते,  इतने इंसान ,शिथिल हो गया,
भगवन अपना।
मंद पड़ गयी , इसकी शिल्पशाला।

किट,  कीटाणु , खग या  खर ,
परिस्थिति परिवेश में पलते बढ़ते।
मिलजुल कर ये ताल तन्मयता से ,
धरती को धुरी धरा पे चलने  देते।

क्या सोचा था , नर नारी रचकर ,
सहज सुगमता की, अलाख जगेगी।

मन ही  मन  क्या सोच रहा है ,
कर्म किया है,  तो , भोग तू  भगवन।

इतने  मानव , कितनी मस्तिष्क ,
असंख्य सृजनशीलता , कब तक,
तू ,सहन करेगा।

कही लूट -  खसोट , कही झूठपाट  ,
कही ऊंच नीच  , कही भेद भाव।
राजनीति की इन दोधारी पाटो को ,
कौन रीत से विध्वंश करेगा।

समझ रहा हु ,पीड़ा  तेरी।
इंसान तेरा,  सर्वेसर्वा ,
अहम के,छद्मम में ,लील रहा है,
तेरी , पुण्य प्रताप की मायाजाल।

भगवन कितना निशब्द है ,
इंसान इसका  आज हैवान है।

पिकाचु

Monday, February 13, 2017

मन मेरा हौले हौले डोले

मन मेरा  हौले हौले डोले ,
प्यार तेरा दिल में हौले हौले डोले।

दिल में रख तुझे मैं ,
खाता कसमे , गाता  नगमे,
हौले हौले।

तक़दीर है मेरी , जान है मेरी ,
अभिमान मेरी , दिल है मेरी।
पास मैं तेरे , पास तू मेरे ,
दिल धड़के , यारा , हौले हौले।

पिकाचु 

Sunday, February 12, 2017

टूटे टूटे, दिल ये टूटे

टुटा पत्ता , टुटा टहनी ,
टुटा पेड़  , टुटा आसमान  ,
टुटा टुटा , है , टुटहा मंजर।
टूटे टूटे, दिल ये टूटे।


टूटे लम्हे की सदायी ,
टूटे यादो की तन्हाई ,
टूटे टूटे, दिल ये टूटे।

टूटे तारो की रौशनी में ,
टुटा दिल, वो अपना ,
टुटा अंजुमन, ढूंढता है।
टूटे टूटे, दिल ये टूटे।

टूटे रिश्तो में , झूठे अफ़साने है,
टूटे संसार में , अपने सारे , आज बेगाने है।
टूटे टूटे, दिल ये टूटे।

टूटे धागों से जुड़ा ,
टुटा ये, जो अपना बंधन।
टुटा मैं हु, यहाँ  , गिरता मैं हु, यहाँ।
टूटे किस्से, जो मैं,  गाता हु, अब सदा ।
टूटे टूटे, दिल ये टूटे।

पिकाचु 

Saturday, February 11, 2017

ठहरे हुए, हम यही मिलेंगे

सुबह सवेरे, मन ये इतना चंचल ,
कहता  है , दिन मेरा चिड़ियों सा ,
उड़ने जैसा हो। 

देख  रहा हु , उगती लालिमा, 
कि हरियाली में, सब  झूम रहे है। 

कुछ पेड़ो पर पतझर है, कुछ पे कोपल, 
कुछ सदाबहार हो , बहती पवन संग ,
हौले हौले लहराते, इतराते।  

घूम रहा है वक्त ,
एक छोटी  बगिया है  , बैठे  वृद्ध, 
सुबह सवेरे का मेल मिलाप,
और दुआ सलाम। 

वक्त काटने की है, कवायत, 
एक समय की बात से होता,
भूत ही इनका वर्तमान होता। 
न जाने वर्तमान इनका,
क्यों रूठा  होता।

मन ये पूछता, धर्म कोई भी ,
अभिवादन , प्राण  प्रतिष्ठा, 
है , बड़े बुजुर्गो का,
फिर वक्त का चक्कर, ऐसा क्यों। 

मन ये सोचता ,वक्त ये अपना
बदल गया है, इतना  क्यों।

मन ही मन, थोड़ा ठहरा , ठिठका ,
नफा नुकसान का किया हिसाब।
अंध दौड़ में कुछ पाने की चाहत में ,
किया अवहेलना कर्म , कर्त्यव्य , ज्ञान का। 

जब लगे हुए थे अहम के छदम जयकार को ,
फिर वक्त तो ऐसा आना ही था। 

मैं कौन, सोच ,रहा हु ऐसा क्यों ,
बदल गया हु मैं भी, कितना।  
मैंने  इनसे अपना स्वार्थ निचोड़ा,  
और बस छोड़ दिया। 

मन मेरा कहता ,वक्त की चाल  है ,
बदला  मौसम , लोग आते जाते। 
भान है सबको , ज्ञान है सबको,
फिर कौन ठहरता,  धैर्य है किसको। 

मन मेरा कहता,
तू क्यों ठिठके , ये फल है तेरा। 
जा तू भी,  हवा के झोके संग कोसो फिर ,
तेरे वक्त जो आएगा , 
ठहरे हुए ,  हम यही  मिलेंगे। 

पिकाचु 

लब्ज ये मेरे : पापिष्ठ कौन

लब्ज ये मेरे, आज न ये ,
न  शरमाते ,न लजराते।
त्तपर  है,
झटफट  , फटफट,
करकस अभिमानी ,
ककहरा करने।

लब्ज ये मेरे, आतुर है,
एक का दो , दो का चार , तीन का नौ ,
कम ज्यादा,जो भी हो,
ले, दे, के,
पल पल लिखने को ,
मनोविकार के नव आधार।

लब्ज ये मेरे,  मौन है ,
स्वयं की सुभीता,शुचिता के मद में।
क्यों खेल रहे है, आपा ,
वैर भाव का।

लब्ज ये मेरे, देख रहे है ,
गौण , मूक  है,  प्रेम ज्ञान का।
सोम, सुरा की धारा  बहती ,
अमर संस्कार की,
चिता यहाँ ,
क्यों पल पल  सजती।

लब्ज ये मेरे,  हक्का बक्का ,
कृत्रिम विचार का, इंसान अपना,
मिटा चूका है , त्याग भाव का।
क्यों ,भूल गया है, रिश्तो की ये ,
मान मनवल।

लब्ज ये मेरे , मोहताज है  ,
विश्वासों का अहसासों के,
अमिट संवेगों के अमरत्व,
प्रवाहो का।

लब्ज ये मेरे , कहता  है ,
और नहीं है,
मैं ही मैं, हु।

लब्ज ये मेरा , पूछ रहा है ,
स्वयंभू मैं , फिर पापिष्ठ कौन।

पिकाचु

Thursday, February 9, 2017

मामला है, इश्क का

बेरुखी, बेहयाई , बदतमीजी ,
मामला है,
इश्क का , मुश्क का , जिस्म का।

क्या बादशाह , क्या फ़क़ीर ,
निजाम ऐसा, इश्क का,
गुलाम है सब इश्क का।

बेचैन है , बेताब है , बेकस है ,
दोस्त ,
डाका है ये  इश्क का ,
जो यहाँ,
काजी भी गिरफ्तार है,
बेइंतहा इश्क का।

पिकाचु


  • क़ाज़ी= न्यायक

  • निज़ाम= प्रणाली, क्रम, रीति, प्रबन्ध
  • बे कस= अकेला, मित्रहीन

Wednesday, February 8, 2017

टाट का पैबन्द : वो बुजुर्ग हु, मैं

घर पर पड़ा,
पत्थर का  मूर्त हु मैं,
या
भकभकता हुआ दीपक का, लौ हु, मैं ।

कुछ न कहो ,
कहे अनकहे ,
चाहे अनचाहे ,
मैं टाट  का पैबन्द सा लटकता ,
वो बुजुर्ग हु, मैं।

मैं,
तो तेरा,
भुला हुआ ,
अतीत हु,
मैं।

मैं तो एक बुजुर्ग हु ,
तेरा आनेवाला ,
भविष्य हु,
मैं।

मैं तो अनुभव था।
मैं तो ज्ञान था।
मैं तो  खुली किताब था।
मैं तो धुरी था, परिवार का।
मैं  तो मान सम्मान था।
मैं तो हम का, स्वाभिमान था।

मैं तो अब हु ,
सिकुड़ा , रंगहीन , उद्देश्ये विहीन ,
लाठी से टिका , अकेला ,
खाँसता ,खखारता,
एक बुजुर्ग इंसान।

मैं तो तेरा शाम हु ,
मैं तो  वर्तमान का अतीत हु ,
मैं तो तलाशता तुझमे अपना भविस्य हु।
मैं तो वही टाट  के पैबंद का बुजुर्ग हु।


पिकाचु

Tuesday, February 7, 2017

मोहब्बत मुझको है पसंद

मोहब्बत को, मैं नहीं पसंद ,
मोहब्बत मुझको, है पसंद।

मोहब्बत है तो  बेचैन हु ,
मोहब्बत नहीं तो,
मैं नम हु।

दिल  नासाज है, मुहब्बत का ,
फिर क्यों ,
धड़कन हमारे, मोहब्बत, मोहब्बत कह ,
बेधड़क, धड़क रहे  है।

मोहब्बत से  इजहार,
मोहब्बत से इकरार ,
मोहबत का करार ,
कुछ न कर पाया।
सिर्फ ,
मैं मोहब्बत में बेकरार, हो पाया।

मोहब्बत की भी, तो,
किस से की,
आधे रस्ते में ही ,
वो मोहब्बत का तिजारत कर ,
खाक ए  सुपुर्द कर  ,
किसी और के मोहब्बत गुनगुनाते ,
यु ही ,रुखसत हुए जा रहे है।

मोहब्बत न तू, यु घबरा ,
तसव्वुर कर की, मैं कबूल हु ,
तो मैं बादशाह,
नहीं तो मोहबत्त के कलम का,
मैं एक जलता फ़क़ीर हु।

पिकाचु 

प्यास

प्यास है एक आस की ,
एक छोटी सी जज्बात की ,
तेरे - मेरे , टूटे दिल की,
जुड़ने की एहसास की।

प्यास है  एक आग की ,
जिस्म की अधूरे तृप्त की ,
बिखरे हुए बेइंतिहा  लम्हो  को,
खयालो की किताब में समेटने की।

प्यास है , मेरे बाजुओ को  ,
अलिगन कर,
बिसरे यादो की अनुभूति की।

प्यास है एक जज्बे  की ,
एक रूहानी जज्बात की।
खोये अपने सपनो को ,
यथार्थ की धरातल की ।

प्यास है , एक रूठे को मानाने की,
बिछड़े अपने से मिलने की।

अहसासों की अनगिनत प्यास में ,
अविरल है मेरी तलाश,
सिर्फ और सिर्फ ,
एक मुकम्मल जिंदगी जीने की।

पिकाचु

Monday, February 6, 2017

मकदूम चकदुम :

मकदूम चकदुम ,
अकड़म पकड़म ,
लटकम झटकम ,
मकई का दाना।

चूहा बिल्ली ,
हाथी घोडा,
गाय , भैस ,
सपने है।

आज तो केवल
दिखेंगे मकदूम,
दिखेंगे चकदुम।

छोटा , बड़ा ,
शहर हो कैसा ,
मकदूम चकदुम,
है जेब से,
ठन ठन।
लेकिन पैसा,
मिले है इनको , किस्तो में।

मकदूम चकदुम,
सोच को बेच ,
बने है राजा ,
दो कमरो की पाटो में।

रानी अपनी और सयानी ,
ठोर की लाली ,
लब लब रद पद,
लाड़ लगाके ,
ठोर सजाके ,
लटकम झटकम ,
देख  दिखाने  ,
बनी  सयानी ।

झुमा झटकी,
पकड़ा पकड़ी ,
मकदूम चकदुम,
है पिया लुगाई,
लगे है भाई।

समय की करवट
उल्टी  पलटी ,
ज्ञानी आज, बना है मुर्ख।
सोच तो सबकी ,
मकदूम चकदुम।

सपने में ही रहना भाई ,
लटकम झटकम , है एक बीमारी ,
फिसले  अगर तो ,
चालू हो जाये ,
खेल ये अपना
अकड़म पकड़म ,
लटकम झटकम।

पिकाचु

तेरा ,मेरा , इसका, उसका

ये मेरा है ,
ये तेरा है ,
ये उसका है ,
ये इसका है
सब अहम  की माथा पच्ची   है।

ये कौन  ,
वो कौन ,
तुम कौन ,
अनजाने , अनचाहे रस्ते पे ,
निकल पड़े है ,
मुर्दो  की कौम।

इस ओर ,
उस ओर ,
सब ओर ,
काली मैली चादर ,
पसर चुका  है।

अँधियारी  वीरानी ,बस्ती में ,
इंसान, अपना हैवान बनकर ,
मौत का तांडव, खेल रहा है।

तेरा , मेरा , इसका , उसका,
करते करते ,
अपना  इष्ट भी ,
टूटकर,  बँट चूका है।

डोल रहा  हु ,
इसके , उसके , तेरे, मेरे ,
अहम के  गांठो के  ,
दोराहे - चौराहे पे।

सोच रहा हु ,
तेरा ,मेरा , इसका, उसका में  ,
क्या , कुछ  अपना भी है ।

पिकाचु

अकड़ बकड ,

अकड़ बकड ,
मकई का दाना।
इमली तीखी , चुप चुप खाना।

लपड़ झापड़ चले है फुलटुस ,
फैंटम फाटी ,चप्पल जूता ,
खट पट , झटपट सुलटा, ले  बेटा।

मास्टर तेरा आता होगा,
दंड का पाठ पढ़ायेगा।

उठक बैठक , मुर्गा, बकरी,
बनाकर बेटा ,
अल्फा, बीटा, थीटा, गामा ,
सतरंगी तारे , दिन में ही दिखायेगा।

पिकाचु 

Saturday, February 4, 2017

थोथा ज्ञान , आधा आंगन

देखो वक्त ये खूब है  ,
थोथा ज्ञान , बजता ढपली ,
की ही  धूम  है ।

हर कुछ , यहाँ जो दीखता है ,
एकमुस्त वही पैमाना बन
इस वक्त यहाँ  बिकता है।

समता असमता की बात तो  कल की  ,
ज्ञान अज्ञान का तौल,
बात है बेमानी।
आलास ही है, आज सुहानी।

आधा गगरी , आधा आंगन ,
आधा सत्य ,आधा मिथ्या ,
अनुयायी हर शख्स है इसका।

सपने हकीकत का आधार,
थाप है , उपभोग का।
अज्ञान की स्वरबद्ध गूंज,
एक सच है सौ झूठ का।

ये देख सब ,
हृदय की कम्पन्न ,
सृजनता का दर्पण ,
ठहर रहा है।
चारो ओर अज्ञान की प्रतिध्वनि ,
सुन ,
अंधियारे अनुयुग में,
इंसान   मेरा , कुछ सहम रहा है।

पिकाचु




कोरे कागज

कुछ लिखना है कुछ भूलना है ,
बिसरे यादे , मुझे इस ,
कोरे कागज में क्रमबद्ध  करना है।

आज तो सब कुछ कोरा है ,
कर्म कर्तव्य ज्ञान भी  अधूरा है।

कल क्या है ,
एक भूल भुलैया, आप धापी,
जोड़ तोड़ की आँख मिचौनी।
एक बेचैंनी,
आने वाले पल की।

मेरा कल क्या था ,
ये खोज रहा हु।
बिसरे पल का  लेखा जोखा ,
कोरे कागज में  ढूंढ रहा हु।

कसमकश की बेदी पे ,
तन मन धन का दर्पण ,
बिखर चूका है।
खोये हुए अहसासों को ,
फिर क्यों ,वक्त आज ये,
तलाश रहा है।

छिपा हुआ है,
आज जो मेरा कल के अंधियारे में।
ढूंढ रहा है , निश्छल होकर,
कोरे कागज को रौशन करने ,
भोर का उजियाला।

पिकाचु



कब तक

कब तक लिखता मिटाता रहूँगा ,
ख्यालो से तेरा नाम हटाता  फिरूँगा  ,
संभलना अगर आता तो ,
तेरी ख्यालो में खुद को दफन कर  ,
आलम आशिकाना बना  जाता।  

पिकाचु 
  

Friday, February 3, 2017

सच्चा मन , सच्चा धन

सच्चा मन , सच्चा धन ,
सर्वत्र  नमन ,सदा  सान्निध्य।

याद करे दुनिया इनको ,
रक्षक , सर्वहारा,माने इनको।
धन बल की नहीं कामना ,
कुचक्र , क्लेश, काम की,
करते नहीं, ये आराधना।

सच्चा मन , सच्चा धन ,
स्वजनों की सेवा उपासना ,
मन की हो, ये सदा कामना।

सत्य असत्य की भाव विचार,
सहैवे  साथ तीर कमान सा।
उग्र , अधीर , दुर्भावना,
कोप, रोष , द्वेष की भावना ,
का ही सर्वभूत सम्भावना।

वर्तमान अपना स्वार्थ साधना ,
निर्दयी विचार का उद्विग्न प्रहार।
संरक्षित कर ले तू ,
सत्य विचार की भावुक कामना।

धरती , आकाश या हो ब्रह्माण्ड।
सच्चा मन , सच्चा धन ,
रहे हमेशा, हर पल साथ।

डर मत,
आगे बढ़ ,
प्रेम शांती की अमर ये वाणी,
ईश्वर है।


पिकाचु 

Thursday, February 2, 2017

आमोदक


जोशीले नौजवानों ,
कहाँ गुम हो  तुम।

ढूंढ  रहा है जोश तुम्हारा , 
दर दर भटके , गुहार लगाये ,
मेरा नौजवान  दोपहरिया छोड़,
वातानुकूलित में बंद क्यों । 

कुछ पल की ये आमोदक  ,
नौजवान क्या  तेरा, तल चिन्ह इतना उथला। 
मान  पड़ा क्यों कैसे तू ,
जब 
धरती  माँ की दोहन को,
सब ओर खड़े मंदबुद्धि हैवान । 

धार  प्रवाह , पे  ,
धुँए का मैला चादर,
तेरे जोश को ढक कर  ,
वर्तमान , भविष्य का , चिंतन, ज्ञान को ,
मजे मजे में ,
पंगु , लुल्हा ,  टुटहा करता। 

कुछ  करने को ठाना है तो ,
जोश में आओ , ओ जोशीले ,
सब्र बांध का तोड़कर तुम ,
हाथ में  ,
कील  हथौड़े  औजार और , पाना ,
ले ठोक दो तुम,  इस आमोदक को। 

पिकाचु 



Wednesday, February 1, 2017

माँ के सपनो को पूरा करना है

मुझे कुछ बनना है ,
ख्वाबो को हकीकत से रूबरू करना है।
फड़फड़ाते हुए पंछियो संग,
आसमान की  बुलंदियों को छुना है।
मुझे  बनना है।

मुझे कुछ रचना है,
सृष्टि की सरंचना को , संजोये रख ,
कुछ रचना है।

मुझे बहना  है ,
धारा के बहावो को ,
बांधो में न ऊकेर के  ,
मुझे बहना  है।

मुझे रहना है ,
माँ के आँचल के छाँव में ,
ममता के आँगन के बीच  ,
मुझे रहना है।

मुझे बस उस माँ के,
कांधो का सहारा बन ,
उसके ,
अधूरे सपने में  कुंचो से रंग भरना है।
बस ,
मुझे माँ के सपनो को पूरा करना  है।

पिकाचु