Saturday, December 31, 2016

ये मौनव्रत , कब तक

मन की ज्वाला,  धधक रही है ,
मुँह की सिलन,  खटक रही है ,
जड़मत हो तुम, क्यों  शोषित होने,
अंदर अंदर  , क्यों सुलग रहे हो,
स्वयम्भू हो तुम , इंसान हो तुम ,
मौनव्रत ,  क्यों भोग रहे हो।

कष्ट झेल रहे हो,  तुम सदियो से,
आभाव तुम्हारा,
क्यों, जन्मसिद्ध अधिकार है।
तरस रहा हु मैं , सदियो से प्रतिकार को ,
ये मौनव्रत , कब तक।


मन , मष्तिक , इन्द्रिया , शाश्वत  क्यों ,
दीन , दरिद्र , निर्बल , जात पात , मजहब ,क्यों।
इंसान हो तुम , मुआ नहीं ,
गर्म  लहू है , सर्द नहीं है ,
धमनियों में प्रवाह, निरंतर।
फिर , सोच में तेरे ,
ये मौनव्रत , कब तक।

अधीर अग्र बन , झकझोर करो ,
मानव की ये , विषमता को,
ओ मौनी तुम अब  ध्वस्त  करो।
सब्र नहीं , अभ्यास नहीं , अब कोई जड़मत नहीं ,
वक्त की बेदी पर चढ़ने को ,
यहाँ कोई ,अब मौनव्रत नहीं।

पिकाचु

Friday, December 23, 2016

बाप रे बाप , क्या हो रहा है

बाप रे बाप , ये क्या हो रहा है ,
अपना काम खुद करो ,
बच्चे नहीं हो , अब हो बड़े ,
बाप का बोझ , कुछ तो ढो ,
समझा रहा था कौन ,
एक बाप , एक बेटे  को।

बाप रे बाप , ये क्या हो रहा है ,
वही बाप , गरजा ,
अपने बाप को।
बुढे हो, सठिया गये हो ,
खाना खाओ , जाकर  सो।

बाप रे बाप , क्या हो रहा है ,
बाप का बाप और  ,बेटा , बाप का  ,
कैसा  है  ये , खेला।
कौन है श्रवण , कौन है दुर्योधन ,
कौन है  धृतराष्ट्र , कौन है पितामह।
भैया ये तो ,
रफूचक्कर होते वक्त का खेल,
है सारा।


बाप रे बाप ,
किसे सुनाओ , किसे बताओ ,
घर घर की है यही कहानी।
नए वक्त की , नई रवानी ,
शून्यता , अधिरता के ,
है, ये पुजारी ।

बाप रे बाप ,
समझ से ही है , ढीठ है सारे ,
हर साख पे बैठा, है ,यहाँ  ,
इंटरनेट के ज्ञाता।

बकबक करते ये ,
काठ के लल्लू ,
बनते जैसे ,
विश्वकोश के प्रकांड पंड़ित।

बेटा , बाप , और बाप का बाप
किसने की है गलती भैया।
थानेदार जब है स्वार्थ है भैया।
भस्मासुर बन ये खेल रचाया।

मंझधार में फंसे है सारे ,
खोज रहे है केवट सारे।
बोल रहे है, सारे मिलकर ,
ये  अविश्वास के खेल में।
भैया ,
बाप रे बाप , क्या हो रहा है।

पिकाचु









Thursday, December 22, 2016

मेरा नाम शुमार नहीं

अरसा है, तरशा  हु ,
गमजदा  हो खुद में,
वर्षो से न  बरशा हु ।

छोड़ने ,तोड़ने ,मरोड़ने।
कि ख्वाहिश न  थी ,
बुत सा खडा ,
क्यों मैं , ऐ  खुदा,
झेलता ,
दावानल , मूषलाधर , विभीषिका।

एक दिन सब्र ने जवाब दी ,
पूछा , ऐ  खुदा, नेकबंद हु ,
फिर क्यों सजा दी।

नेमत क्या इतनी है ,
ऐ  खुदा,
जरा जरा मेरा ये ,
जमी में मिलने का इन्तेजार ही  ,
इनायत है आपका।


एक  गज जमीन की दरकार  नहीं ,
एक  दमड़ी की सरोकार नहीं ,
एक  इल्तेजा  है ,
क्या खता है कि ,
वक्त की  बुलंदियों में,
कभी मेरा नाम शुमार नहीं।

पिकाचु  








Sunday, December 18, 2016

धीरे धीरे यू ही

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धीरे धीरे यू  ही ,
तुम लम्हो में ठहर जाते ,
रात यू ही तेरे यादो के ,
आगोश में ,यू ही, गुजर जाती।

यु ही देख रहा हु,
टक टकी लगाए  आसमां को ,
कही, किसी टूटते  तारे में ,
 तू , यू ही,  कही दिख जाये ।

पूछता हु , मैं, यु ही ,
ऐ , मेरे परवरदिगार ,
परीक्षा मेरी ही क्यों ?
साथ , यू ही ,
इस अप्सरा  देख ,
कही, तेरी नियत में तो खोट नहीं।

शिकायत नहीं , इल्तजा है ,
इन्तहा हद से न गुजर जाये ,
कि सब्र  की  बांध ,
यु ही, तेरे रहमोकरम के ,
इन्तेजार में  न टूट जाये।

आ ,अब तो यू ही ,
आगोश में समां जा ,
दिल के अरमान को ,
अपनी जन्नत तो ,
यू ही दिखा जा।


पिकाचु



Monday, December 12, 2016

काश ,मैं इंसानियत बसा होता

काश मैं होता खाश ,
जिंदगी में जब  होता ,
कोई संज्ञा , कोई क्रिया और,
एक विशेषण  का साथ।

काश किस्मत होती साथ ,
वक्त लिखता अपनी ,
दोनों  हाथो ,से एक साथ।

काश खेल में नहीं होते ,
इतने शह मात की  सांप सीढ़ी,
होता एक पाशा ,जिसकी संख्या,
काश हथेलियो की मुठीबन्द में,
मनमुताफिक रहता,  अपने पास ।


काश ,मैं एक बुत होता ,
काश मैं एक  संवेदना होता ,
काश , मैं ही मैं होता ,
तो क्या ,
जीत , हार , ख़ुशी ,
गम , धोखा , बेखुदी  नहीं होता।

काश  एक ऐसा जमी होता ,
जहाँ कोई कमी नहीं होता ,
जहाँ  मजहब , जात पात ,
या इंसान का रंग  नहीं होता
बस, इंसानियत  बसा  होता।

काश मेरी तलाश , में,
आपका साथ होता , तो
ये दुनिया सभी के लिए ,
खुशियो  का सौगात होता।

पिकाचु

Friday, December 9, 2016

आज का भस्मासुर

बेखुदी के बेफिक्री में,
लहू का कतरा कतरा,
मह के प्याले में ,डुबोकर ,
नशेमन के आगोश हो गए।

कैसा नशा , कैसा गम ,
ये कैसा रंग।
प्रत्येक  क्षण ,
नवीन दौर भ्रम का।

कौन कहे तू काहिल है ,
कौन कहे तू एक क्लेश है ,
कौन कहे तू ,समझ से परे,
इंसान या स्वयम्भू है ।
इतना तो कहु मैं ,
तू सर्वनाशी है।

इंसान तू क्या है ,
विपत्ति की एक आहट से ही ,
जज्बा ये काफूर , निःशक्त हो ,
बन जाता है ,सर्वेश से सर्वहारा तू ।

हँसते है सब , चलो एक पागल है ,
हँसता हु मैं ,
देख कैसी किश्ती के ,खेवैया है ,
उपभोग, सम्भोग के असीम सागर में ,
आतुर खड़ा है , खुदी के बच्चो को मिटाने ,
सर्वत्र ,ये आज का भस्मासुर , खड़ा है।

पिकाचु






 

छड़ी बन हम-तुम

लहर है लहर ,
प्यार तो तेरा,
था , एक जहर।

कहर है कहर ,
तेरी हुस्न का था  ,
ये कहर।

मौजू हु मैं ,
साहिल हु मैं ,
फाजिल हु मैं ,'
ये कैसी अहम में ,
घायल थे, हम।

ये ग्रहण था, कैसा।
हम तुम तो लड़ते ,
बुझा  दी जवानी ,
झुलसा दी रवानी ,
आबो हवा की , गर्मी  में क्यों।

चले हम तुम कब।
हाथो में हाथ ,
पाके मुहब्बत के ,
सच्चे जज्बे  के साथ।

कमर थी झुकी ,
नजर थी बुझी,
कोई न था जब।
तब  छड़ी बन हम-तुम,
हर वहम को मिटा,
हर अहम को हटा ,
चले एक दूजे  के हो ,
हर डगर पे साथ।

मुहब्बत का तराना,
गाते हुए ,
लहरो के सहारे,
डगमगाते हुए ,जिंदगी की ,
आखरी पड़ाव पे  ,
हर सितम को भुला ,
चले हम तुम साथ।
बस चले हम तुम साथ।

पिकाचु




दलान , आंगन , सिमटकर बिखर गई

हुआ करते थे , आज है नहीं ,
वक्त के अग्र वेग में , धूमिल है कई।
कभी जवान थे , कमाते थे ,
आज धूल खाती कुर्सियों में ,
करहाते से कातर ,
उनके  रामहोकरम को  पड़े है।


कभी घर की दलान थे हम ,
गूँजती थी कहकशो मेहमान की।
कभी घर की आँगन थे हम ,
तुलसी की सुगंध से  , गुलजार थे हम।


कौन से दौर में हम आकर ,कहा खो गए।
परिवार टूट कर कर बिखर गई ,
विश्वास तार तार हो बेजार हो गई ।

आज सूर्य भी गर्म हो ,
रौशनी की किरणों को कर रही ,
वस्त्रहीन शरीर के आरपार।

दूर हो गए  है सब ,
दलान , आंगन , सिमट कर ,
संकुचित हो गया कुछ वर्ग क्षेत्रफल में।

बाग कुछ गमलो में जा छिपा है ,
और मैं ,
लज्जित , प्रभावहीन , शर्मिंदा हो ,
बीती हुई वक्त के ,
गलतियों के बही खाता को   ,
अकेला झेलता खड़ा हूं।

पिकाचु



Wednesday, December 7, 2016

आधा रौशनी ,आधा अंधकार

आधा चंद्र , आधा पूर्णमासी ,
आधा अमावस्या ,
आधा रौशनी ,आधा अंधकार।
यही सत्य है।
तेरे मेरे हमारे जीवन का।

अँधेरा है , रौशनी के इन्तेजार में सभी खड़े।
विनती इतनी ,
भ्रम , विभ्रम , स्वार्थ  का त्याग कर ,
निःस्वार्थ भाव से ,
क्यों न ,
स्वयं का अभयदान कर , दिव्यता का उत्सर्जन करे।

ये समय चक्र कब तक ,
घुम रहे विभ्रम में सब ,
साथ  स्वस्थ शरीर,  तब तक।
फिर क्या।
वक्त है जाग , रच नयी सरंचना।
अभयदान नही है क्षमादान , प्रकृति मांगे अनन्योन्याश्रय।

निरंतरता की गतिशीलता , स्वयं ने खोकर।
उपभोग की स्थिलता का श्रृंगार कर ,
आनंदात की मादकता में लवलीन है।

त्रिष्कार कैसे  , अपकार क्यों  ,
उपकार कब , समझ नहीं।
अग्निहोत्र कर , आलसता में डूब गये  है।
क्या सरंचना , क्या उद्घोष ,
जलजले का आभास है।
फिर क्यों,
किस आनन्द की प्रतीक्षा में खड़े सब ।

क्यों ये सोच है, मेरी ।
क्यों उपहास को , मैं  खड़ा,
आधे रौशनी, आधे अंधकार के,
अर्ध सत्य में , अर्ध इन्सान बन खड़ा।

पिकाचु
 ,





Monday, December 5, 2016

व्यवस्था ही यम है

ठण्ड की ठिठुरन में ,
ठिठक ठिठक कर ,
टिक टिक करती समय।

घने कोहरे को चीरते आवाज आई।
घुप सा इंसान , असमंजस में पड़ा।
ठिठका , सोचा चलो कोई तो है।
आवाज पास आई ,
कहा चलो , चल चले ,
तेरा वक्त आ  गया , यम हु मैं।

सिहरन, कंपकपी , डर ,  फिर मैं निडर।
यम का ठिकाना , स्वर्ग , नर्क या धरती।
यम तो  मैं  हु, मेरी  काल यम नहीं, मैं हु।

मैं सोचा , यम मैं तो !
क्यों ठिठका , रुका , चरमराई व्यवस्था में।
जाना है मैं को ,
अविनाशी नहीं , फिर कौन सी व्यवस्था।

व्यवस्था ही यम है , अहम है , विनाशी है।
पश्चाताप , पछतावा , शोक , छोड़ ,
मैं की  जी और  मैं की रक्षा कर।

 पिकाचु 

Thursday, December 1, 2016

भ्रम छोड़ रण में


चक्र है अनमोल , भ्रम छोड़ ,
रण  में खड़ा है, रणवीर तू।
सुप्त , गुप्त , लुप्त , कौन ,
यौवन की शाश्वत  मोह माया ,
अभेद को भेद,  के चीर तू।

भोगी , मौनी , योगी ,
कौन  है  , ये भूल मत।
अधीर बन  रण क्षेत्र में  ,
तिलक कर, रणविजय  हो  ।

भेद तू चक्रवह्यु , रुक मत।
आगे बढ़ , ओ अभिमन्यु।
आगाज दे, आवाज कर ,
अचल , अमर , यशस्वी हो।


उठा पटक , लटक  ,झटक
विजयी बन, इन्हें ,फटक ।
आघात दे ओ वीर तू  ,
क्रोध , काम , स्वाद झटक  ,
अटक न मोह, माया  में।



विषम , परिस्थि  या विष भुजंग।
संघार कर, वीर है  , तू  रूद्र बन।
अश्वमेध कर , अभिषेक कर ,
कर्तव्य का प्रतियमान बन ।

निर्भीक  हो  ,
दहाड़ कर ,
चिंघाड़ कर
ललकार दे।
कौन रोके , कौन टोके ,
शत्रु का विनाश कर।

ओत -प्रोत हो ,
अपने  ओज को ,
गति दे ,
इष्ट , लक्ष्य  , अभिप्रेत  को।


सृष्टि को  उपकार दे ,
दुराचारी का शंघार हो  ,
धरती का उद्धार कर,
शांती के  प्रचार में  , ओ धरती पुत्र तू युद्ध का अभिषेक कर ।

पिकाचु