अशांत है ,
सब कुछ बिखर गया है ,
कुछ न पाने की चाहत में इतना ,
सबकुछ पा गया हु ।
आज क्या है मेरा ,
कौन सा रूप है ,
मित्र , शत्रु , भाई ,बहन , माँ , बाप।
सारे है,
कृत्य ही मेरे।
और क्या चाहे , ये मन तेरा ,
अमर अजर बनने की चाहत ,
फिर , क्यों पाले।
खोया है किस भ्रम जाल में ,
उमड़े क्यों ये मन ,
दुनियादारी की मकड़ जाल में।
मन का मन से कटाक्छ है ,
कर्मवीर न धर्मवीर है ,
इस मिथ्या शीशमहल
का क्यों बन बैठा है,
राजा रंक तू।
जो है सो है ,
जड़ या चेतन ,
खड़ा हुआ मूक ही अब रह।
मन की अलाप का,
ये विलाप है,
जीवन के बचे ,
अभी कई प्रलाप है।
मूढ़ मत बन ,
धैर्य धीर से ,
बेबस मन को सृजित कर ,
कर्म-कर्तव्य के , नई शगूफे तू गढ़।
पिकाचु
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