Thursday, January 5, 2017

घर है ये क्या

घर है ये क्या ,
चूल्हा , बर्तन , बिस्तर , तकिया ,
चारदीवारी की चौहदी में ,
सीमित  अपना , 
ये रोजमर्रा का ,
कूड़ा करकट अपना। 
घर है , ये क्या। 


सफ़ेद , काला , सिंचित धन ,
साथ लेकर मटमैला सा,
सौंधा सा रंगविहीन पसीना 
लगाते , ईट , गारे , पत्थर में । 
फिर  बनता, ये  घर अपना सा। 


धूप , छांव , हवा , पानी ,
ऊंच - नीच , किस्मत की रवानी, 
आधार विश्वास जीवन की रवानगी 
सपने , हकीकत , कालचक्र से , 
बचने का आधार, क्या यही है ,
ये अपना सा घर। 

जीवन की पूंजी ,खर्चते ,
इसे व्यवस्थित करने। 
जच्चा ,बच्चा , 
मात पिता ,
पति-पत्नी,
कर्म कर्तव्य या जन्म मृत्यु,
रिश्ते, धर्म  की मर्यादा का ,
श्रृंगार  तो बनता, 
अपना सा ये घर। 

कितने घर , खड़े अकेले,
धरती की सम्पदा का दोहन कर,
सम्पति  की लोलुपता का आधार बन,
बाट जोहते ,खड़े अकेले।

ऐ मानव तुम ,
जागना है तो जाग उठो तुम ,
जाते वक्त सिर्फ तुम ही तुम ,
कोई खड़ा नहीं साथ, जो तेरे  ,
फिर क्या रखा है इट और गारे में।
बाँट तो जाओ ,
मटमैले से बच्चे की ,
खुशियो की आधार बनने,
अपना सा ये घर।

पिकाचु 




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