Saturday, February 18, 2017

दो पैर , दो हाँथ, दो आंख तीक्ष्ण इंसान

युद्ध का अभिषेक ,
मस्तिष्क में आवेग ,
बाजुओ में है वेग , लेकर चल पड़ा 
ध्वंश विध्वंश की चाह में ,
दो पैर , दो हाथ , दो आंख , तीक्ष्ण बुद्धि का या मानव परिवेश। 

खंड खंड में बाँट दिया अक्षांश ,देशान्तर  । 
दो पैर दो हाथ तीक्ष्ण बुद्धि ने चीर का रख दिया,
धरातल की सतत  गति। 

युद्ध की मनोभाव ,में,
बह रहा है राजनीती की दशा। 
कौन रोके इस दहशत को , 
इंसान, अपना कही सो गया है। 

क्षेत्र क्षेत्र  सूचना , भोंपू से कर रही उद्घोष,
जयकार ले रही विध्वंस।  
सत्ता लोलुपता  की , कर रही सर्वनाश । 

मौत तो मौत है , अपना या तेरा ,
इसका या उसका। 
मौत तो मौत है।

अधीरता , कुटिलता बह रहा लहू में ,
तंज करती मानवता , युग युग में खोई हर सभ्यता,
विध्वंश की इस खोज में। 

युद्ध का अभिषेक कर  ,
मैंने तो नहीं कहा,
बोलता है इंसान , यहाँ ,वहाँ , जहाँ , तहाँ। 
फिर कौन है , ढूंढो जरा , चाह किसे है विध्वंश का। 

पूछता है अमन ,
क्यों , इंसान अपना इंसान,
से डरा हुआ।

स्वार्थ , लालच , उत्पाद का उपभोग की मीमांशा में, 
क्यों बंटा  वर्ग , फीट,  खंड खंड में, मैं,
दो पैर , दो हाँथ, दो आंख तीक्ष्ण इंसान, मैं। 

उतर चल , निकल चल ,  शांति की चाह में ,
खोज तू , मैं कौन , अस्तित्व क्या।

इंसानियत हु , इन्तेजार है अशोक का ,
चल पड़ा , गिर पड़ा , थक पड़ा  , रुका नहीं, बस चल पड़ा।

पिकाचु 

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