युद्ध का अभिषेक ,
पूछता है अमन ,
मस्तिष्क में आवेग ,
बाजुओ में है वेग , लेकर चल पड़ा
ध्वंश विध्वंश की चाह में ,
दो पैर , दो हाथ , दो आंख , तीक्ष्ण बुद्धि का या मानव परिवेश।
खंड खंड में बाँट दिया अक्षांश ,देशान्तर ।
दो पैर दो हाथ तीक्ष्ण बुद्धि ने चीर का रख दिया,
धरातल की सतत गति।
युद्ध की मनोभाव ,में,
बह रहा है राजनीती की दशा।
बह रहा है राजनीती की दशा।
कौन रोके इस दहशत को ,
इंसान, अपना कही सो गया है।
क्षेत्र क्षेत्र सूचना , भोंपू से कर रही उद्घोष,
जयकार ले रही विध्वंस।
सत्ता लोलुपता की , कर रही सर्वनाश ।
मौत तो मौत है , अपना या तेरा ,
इसका या उसका।
इसका या उसका।
मौत तो मौत है।
अधीरता , कुटिलता बह रहा लहू में ,
तंज करती मानवता , युग युग में खोई हर सभ्यता,
विध्वंश की इस खोज में।
युद्ध का अभिषेक कर ,
मैंने तो नहीं कहा,
मैंने तो नहीं कहा,
बोलता है इंसान , यहाँ ,वहाँ , जहाँ , तहाँ।
फिर कौन है , ढूंढो जरा , चाह किसे है विध्वंश का।
पूछता है अमन ,
क्यों , इंसान अपना इंसान,
से डरा हुआ।
से डरा हुआ।
स्वार्थ , लालच , उत्पाद का उपभोग की मीमांशा में,
क्यों बंटा वर्ग , फीट, खंड खंड में, मैं,
दो पैर , दो हाँथ, दो आंख तीक्ष्ण इंसान, मैं।
दो पैर , दो हाँथ, दो आंख तीक्ष्ण इंसान, मैं।
उतर चल , निकल चल , शांति की चाह में ,
खोज तू , मैं कौन , अस्तित्व क्या।
इंसानियत हु , इन्तेजार है अशोक का ,
चल पड़ा , गिर पड़ा , थक पड़ा , रुका नहीं, बस चल पड़ा।
पिकाचु
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