घर पर पड़ा,
पत्थर का मूर्त हु मैं,
या
भकभकता हुआ दीपक का, लौ हु, मैं ।
कुछ न कहो ,
कहे अनकहे ,
चाहे अनचाहे ,
मैं टाट का पैबन्द सा लटकता ,
वो बुजुर्ग हु, मैं।
मैं,
तो तेरा,
भुला हुआ ,
अतीत हु,
मैं।
मैं तो एक बुजुर्ग हु ,
तेरा आनेवाला ,
भविष्य हु,
मैं।
मैं तो अनुभव था।
मैं तो ज्ञान था।
मैं तो खुली किताब था।
मैं तो धुरी था, परिवार का।
मैं तो मान सम्मान था।
मैं तो हम का, स्वाभिमान था।
मैं तो अब हु ,
सिकुड़ा , रंगहीन , उद्देश्ये विहीन ,
लाठी से टिका , अकेला ,
खाँसता ,खखारता,
एक बुजुर्ग इंसान।
मैं तो तेरा शाम हु ,
मैं तो वर्तमान का अतीत हु ,
मैं तो तलाशता तुझमे अपना भविस्य हु।
मैं तो वही टाट के पैबंद का बुजुर्ग हु।
पिकाचु
पत्थर का मूर्त हु मैं,
या
भकभकता हुआ दीपक का, लौ हु, मैं ।
कुछ न कहो ,
कहे अनकहे ,
चाहे अनचाहे ,
मैं टाट का पैबन्द सा लटकता ,
वो बुजुर्ग हु, मैं।
मैं,
तो तेरा,
भुला हुआ ,
अतीत हु,
मैं।
मैं तो एक बुजुर्ग हु ,
तेरा आनेवाला ,
भविष्य हु,
मैं।
मैं तो अनुभव था।
मैं तो ज्ञान था।
मैं तो खुली किताब था।
मैं तो धुरी था, परिवार का।
मैं तो मान सम्मान था।
मैं तो हम का, स्वाभिमान था।
मैं तो अब हु ,
सिकुड़ा , रंगहीन , उद्देश्ये विहीन ,
लाठी से टिका , अकेला ,
खाँसता ,खखारता,
एक बुजुर्ग इंसान।
मैं तो तेरा शाम हु ,
मैं तो वर्तमान का अतीत हु ,
मैं तो तलाशता तुझमे अपना भविस्य हु।
मैं तो वही टाट के पैबंद का बुजुर्ग हु।
पिकाचु
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