Saturday, February 11, 2017

लब्ज ये मेरे : पापिष्ठ कौन

लब्ज ये मेरे, आज न ये ,
न  शरमाते ,न लजराते।
त्तपर  है,
झटफट  , फटफट,
करकस अभिमानी ,
ककहरा करने।

लब्ज ये मेरे, आतुर है,
एक का दो , दो का चार , तीन का नौ ,
कम ज्यादा,जो भी हो,
ले, दे, के,
पल पल लिखने को ,
मनोविकार के नव आधार।

लब्ज ये मेरे,  मौन है ,
स्वयं की सुभीता,शुचिता के मद में।
क्यों खेल रहे है, आपा ,
वैर भाव का।

लब्ज ये मेरे, देख रहे है ,
गौण , मूक  है,  प्रेम ज्ञान का।
सोम, सुरा की धारा  बहती ,
अमर संस्कार की,
चिता यहाँ ,
क्यों पल पल  सजती।

लब्ज ये मेरे,  हक्का बक्का ,
कृत्रिम विचार का, इंसान अपना,
मिटा चूका है , त्याग भाव का।
क्यों ,भूल गया है, रिश्तो की ये ,
मान मनवल।

लब्ज ये मेरे , मोहताज है  ,
विश्वासों का अहसासों के,
अमिट संवेगों के अमरत्व,
प्रवाहो का।

लब्ज ये मेरे , कहता  है ,
और नहीं है,
मैं ही मैं, हु।

लब्ज ये मेरा , पूछ रहा है ,
स्वयंभू मैं , फिर पापिष्ठ कौन।

पिकाचु

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