Saturday, February 11, 2017

ठहरे हुए, हम यही मिलेंगे

सुबह सवेरे, मन ये इतना चंचल ,
कहता  है , दिन मेरा चिड़ियों सा ,
उड़ने जैसा हो। 

देख  रहा हु , उगती लालिमा, 
कि हरियाली में, सब  झूम रहे है। 

कुछ पेड़ो पर पतझर है, कुछ पे कोपल, 
कुछ सदाबहार हो , बहती पवन संग ,
हौले हौले लहराते, इतराते।  

घूम रहा है वक्त ,
एक छोटी  बगिया है  , बैठे  वृद्ध, 
सुबह सवेरे का मेल मिलाप,
और दुआ सलाम। 

वक्त काटने की है, कवायत, 
एक समय की बात से होता,
भूत ही इनका वर्तमान होता। 
न जाने वर्तमान इनका,
क्यों रूठा  होता।

मन ये पूछता, धर्म कोई भी ,
अभिवादन , प्राण  प्रतिष्ठा, 
है , बड़े बुजुर्गो का,
फिर वक्त का चक्कर, ऐसा क्यों। 

मन ये सोचता ,वक्त ये अपना
बदल गया है, इतना  क्यों।

मन ही मन, थोड़ा ठहरा , ठिठका ,
नफा नुकसान का किया हिसाब।
अंध दौड़ में कुछ पाने की चाहत में ,
किया अवहेलना कर्म , कर्त्यव्य , ज्ञान का। 

जब लगे हुए थे अहम के छदम जयकार को ,
फिर वक्त तो ऐसा आना ही था। 

मैं कौन, सोच ,रहा हु ऐसा क्यों ,
बदल गया हु मैं भी, कितना।  
मैंने  इनसे अपना स्वार्थ निचोड़ा,  
और बस छोड़ दिया। 

मन मेरा कहता ,वक्त की चाल  है ,
बदला  मौसम , लोग आते जाते। 
भान है सबको , ज्ञान है सबको,
फिर कौन ठहरता,  धैर्य है किसको। 

मन मेरा कहता,
तू क्यों ठिठके , ये फल है तेरा। 
जा तू भी,  हवा के झोके संग कोसो फिर ,
तेरे वक्त जो आएगा , 
ठहरे हुए ,  हम यही  मिलेंगे। 

पिकाचु 

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