सुबह सवेरे, मन ये इतना चंचल ,
कहता है , दिन मेरा चिड़ियों सा ,
उड़ने जैसा हो।
देख रहा हु , उगती लालिमा,
कि हरियाली में, सब झूम रहे है।
कुछ पेड़ो पर पतझर है, कुछ पे कोपल,
कुछ सदाबहार हो , बहती पवन संग ,
हौले हौले लहराते, इतराते।
घूम रहा है वक्त ,
एक छोटी बगिया है , बैठे वृद्ध,
सुबह सवेरे का मेल मिलाप,
और दुआ सलाम।
वक्त काटने की है, कवायत,
एक समय की बात से होता,
भूत ही इनका वर्तमान होता।
न जाने वर्तमान इनका,
क्यों रूठा होता।
मन ये पूछता, धर्म कोई भी ,
अभिवादन , प्राण प्रतिष्ठा,
है , बड़े बुजुर्गो का,
फिर वक्त का चक्कर, ऐसा क्यों।
मन ये सोचता ,वक्त ये अपना
बदल गया है, इतना क्यों।
मन ही मन, थोड़ा ठहरा , ठिठका ,
नफा नुकसान का किया हिसाब।
अंध दौड़ में कुछ पाने की चाहत में ,
किया अवहेलना कर्म , कर्त्यव्य , ज्ञान का।
जब लगे हुए थे अहम के छदम जयकार को ,
फिर वक्त तो ऐसा आना ही था।
मैं कौन, सोच ,रहा हु ऐसा क्यों ,
बदल गया हु मैं भी, कितना।
मैंने इनसे अपना स्वार्थ निचोड़ा,
और बस छोड़ दिया।
मन मेरा कहता ,वक्त की चाल है ,
बदला मौसम , लोग आते जाते।
भान है सबको , ज्ञान है सबको,
फिर कौन ठहरता, धैर्य है किसको।
मन मेरा कहता,
तू क्यों ठिठके , ये फल है तेरा।
जा तू भी, हवा के झोके संग कोसो फिर ,
तेरे वक्त जो आएगा ,
ठहरे हुए , हम यही मिलेंगे।
पिकाचु
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