Wednesday, January 18, 2017

अविश्वाशो के मकड़ जाल

दो चिड़ियों की ऊँची उड़ान ,
सुबह सवेरे ,देख रहा ,
रुका  हुआ ,
मैं एक  इंसान।

मेरा घर , मेरा सम्पति ,
मेरा बेटा  , मेरा बेटी ,
इस मिथ्या के भ्रम जाल ने ,
बांध के रखा ,
मेरी उड़ान।

मेरा क्या , सम्पति !
वर्ग फुट ,बीघा  एकड़ ,
ये तो सीमित है।
फिर क्यों  भाग रहे है ?,
इनके पीछे।
दरकार है जब, कुछ गज की ही।

उड़ने की अभिलाषा   , नभ छूने की जिज्ञासा ,
मूल पाठ है, इस जीवन पथ का।
गिरकर उठना , उठकर गिरना ,
गती है ये,  दिन- रात   जैसी।

कर्म ज्ञान का , कर्तव्य त्याग का ,
भाव है जब ग्रंथो का।
क्यों मानव की  उड़ने की अभिलाषा ,
कालचक्र ने लील  लिया है।

देखो विश्वास है कितना,
इन चिडयों का ,
उस  ठूठे पेड की घोसले पे।
छोड़ के, अपने  चीची करते बच्चो को ,
भ्रम जाल से ,निकल पड़े है।
मैं , तुम , हम क्यों फिर  ,
अनुरागी बन,
उलझ रहे है , अविश्वाशो के मकड़ जाल  में।

पिकाचु








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