मुझे पता नहीं क्यों मैं लिखता हु ,
पर चाहत है मुझे तेरी इसलिए आशिक़ बन लिखता हु मैं।
कितने ही दौर उम्र के निकल गए ऐसे ही ,
कभी चाहत नहीं हुई लिखने की , अब न जाने क्यों लिखता हु।
कौन है तू मेरी समझ न आया , आशिक , बंदिगी या जिंदगी
फिर भी मैं लिखता हु।
कोई कहता है आशिक़, कोई दीवाना , कोई पागल फिर भी मैं लिखता हु।
ये चाहत है तेरी , क्यों रह गई अधूरी , जब भी मैं सोचता हु ,
बेचैन हो मैं , फिर लिखता हु।
तुझे कॉलेज में न देखा , न बाजार में देखा ,
जब भी देखा तुझे अपना सा ही मैंने देखा,
तेरी आँखों से टपकती थी वो शराफत जो तेरी,
वक़्त थम सा गया था, आंसमा ज़मी से आ मिला था ,
मैं और तू थे साथ था प्रखर भी, सभी थे एक नाव पे ही।
कभी न सोचा , यू छोड़ जाओगी ,
दो कोमल से ह्रदय को कठोर कर पाओगी ,
वो शराफत , वो तमन्ना , वो इजहार , वो इकरार ,
हवा हो गए है , तुम्हारे ही साथ ,
बचा क्या है ये तू बता के तो जाओ, यू उम्र भर का शायर बना के तू न जाओ।
लगा था मैं जो भंवर से गया मैं ,
पता क्या था मैं बवंडर में फिर फँसा मैं,
बता जाते तू ये जो किस्से ये पहले ,
फंसा न होता, फिर भँवर में मैं ऐसे,
चलो तुम जो गए , लिखने लगा हूं।
बुरा मानो या भला , मैं आशिक़ हो गया हु।
तमन्नाये जो लिखने की फिर प्रखर हो रही है ,
कवि की ज्योति जला तो गई तू ,
बुझाने को बस मैं लिख रहा यूँ ही। ,