Wednesday, September 28, 2016

मुझे पता नहीं क्यों मैं लिखता हु


मुझे पता नहीं क्यों मैं लिखता हु ,
पर चाहत है मुझे तेरी इसलिए आशिक़ बन  लिखता हु मैं।

कितने ही दौर उम्र के निकल गए ऐसे ही ,
कभी चाहत नहीं हुई लिखने की , अब न जाने क्यों लिखता हु।

कौन है तू मेरी समझ न आया , आशिक , बंदिगी या  जिंदगी
फिर भी मैं  लिखता हु।

कोई कहता है आशिक़, कोई दीवाना , कोई पागल फिर भी मैं लिखता हु।

ये चाहत है तेरी , क्यों रह गई अधूरी , जब भी मैं सोचता हु ,
बेचैन हो मैं , फिर लिखता हु।

तुझे कॉलेज में न देखा , न बाजार में देखा ,
जब भी देखा तुझे अपना सा ही मैंने देखा,
तेरी आँखों से टपकती थी वो शराफत जो तेरी,
वक़्त थम सा गया था, आंसमा ज़मी से आ मिला था ,
मैं और तू थे साथ था प्रखर भी, सभी थे एक नाव पे  ही।
कभी न सोचा , यू छोड़ जाओगी ,
दो कोमल से ह्रदय को कठोर कर पाओगी ,
वो शराफत , वो तमन्ना , वो इजहार , वो इकरार ,
हवा हो गए है , तुम्हारे ही साथ ,
बचा क्या है ये तू बता के तो जाओ, यू उम्र भर का शायर बना के तू न जाओ।

लगा था मैं जो  भंवर से   गया  मैं ,
पता क्या था मैं बवंडर में  फिर फँसा मैं,
बता जाते तू ये जो  किस्से ये पहले ,
फंसा न होता,  फिर भँवर में मैं  ऐसे,
चलो तुम जो गए , लिखने लगा हूं।
बुरा मानो या भला  , मैं  आशिक़ हो गया हु।
तमन्नाये  जो लिखने की फिर प्रखर  हो रही है ,
कवि की  ज्योति जला तो गई तू ,
बुझाने को बस मैं लिख रहा यूँ ही।    ,

  


     


ओ मेरे रौशनी


किसी की मजलिस , से  तूने जो रौशनी जलाई है , सितम उसके,  तेरे ख्वाब  उड़ा ले जायेंगे।
घरोंदे का खवाब तेरे साथ देखा  था , हक़ीक़त में हमसफ़र तेरा साथ चाहा था।
क्या तेरी बख्त इतनी ही थी की दुनिया के सितम ने तुझे बेवफा बना दिया।
कर इतना मुरवत , साथ न हो पाये , तो अपना हमसाया  ही रुखसत कर दे।

याद आती है तो बेचैन हो जाता हु , सोचता हु आप भी बेचैन होंगे ,
क्यों ये  गफलत में जी रहा हु मैं , सौदा करके भूलने की फितरत है आपकी।

सोचता हु ये तेरा इश्क़ था  या तेरी मजबूरी, ओ मेरे रौशनी ,
या सीढिया दर सीढिया चढ़ने की खावाईश  थी तेरी।

आँसमा छूने की खावाईश  में इतने ऊपर पहुँच  गए आप ,
क्या मेरे जिन्दा रहने का भी ख्याल न था आपको।

लो भूल गए , ऊपर से ही सितमगर गिरते है निचे ,
देखना कही मेरे कब्रे के सामने ही न वो जगह हो।

आपको ये इल्म है,  आइनो के  दरकने से आवाज नहीं होती ,
इंसान के जिन्दा  दफ़नाने से  रूह से कोई  आवाज नहीं उठती।
बस सादिया  दर सादिया मेरे कब्र पर तेरे भटकने की ,
बस अहसास ही होती। 

Monday, September 26, 2016

एक मछहर ने काटा मुझको

एक मछहर   ने काटा मुझको ,
देखा मैंने बहुत छोटा था , काला था , दन्त नोकीले ,

मैंने  सोचा हो गया डेंगू, मलेरिया या  चिकनगुनिया।
झट से मैंने हाथ उठाया , मच्छर को कुछ समझ न आया ,
उसने भी जोर से डंक मारा, मैंने भी उसे जान से मारा।

मन ही मन खुश हो रहा था , मच्छर मरा गिरा जमीं पर ,
देख के मन में विचार आया , सृष्टि ने क्या जीवन रचाया ,
इंसान को ही  सर्वश्रेष्ठ बनाया , थोड़ी देर में देखा मैंने।
लाल -काली सी हिलती -डुलती रेखाये कुछ छोटी कुछ लंबी ,
मच्छर लिए मुँह में दबाकर , सरक रही थी थोड़ी थोड़ी।

मन में  सोचा हम तो इंसा ,  सर्वश्रेष्ठ , रोको इनको, हाथ लगाया,
धीरे से ही , पर ऐसा काटा , हो गए हम गुप्प लाल।

छोटा - बड़ा कोई न होता , वक्त और परिस्थिति एक सा न होता ,
जीवन की ये  है लंबी डगर , वक़्त को है न धैर्य तुम्हारा।
हो अधीर अधीर तुम , दौड़ पड़ो तुम,दौड़ पड़ो तुम।
कर्तव्य का साथ ,कर्म की डंका , मदमस्त हो तुम रण अवतार बनो।
दोष न देना , इन मच्छर को , साथ भी इनका है सम्मान हमारा।
हमने की है प्रकृति से छेड़छाड़ , अब प्रकृति करेगी  तिरस्कार हमारा ।




Sunday, September 25, 2016

उपभोक्तावाद का नारा



हम तुम जाते शॉपिंग मॉल तफरी करने ,
पर हम तो जाते बच्चे के साथ सब्जी लेने।

लगी लाइन  देखो अंदर जाने का !  क्या है अंदर ?
कोई मस्त कलंदर , पता नहीं हमको भाई ,

छोटे - छोटे  सटे - सटे पहने ,
नर और नारी ने ऐसे कैसे पहने कपडे।

देख के भइया, ये मन को भाया ,
पूछा इनसे , तूने  क्या पहन के आया।

बोला उसने प्रजातंत्र है , जिसका  मूलमंत्र है ,
अपनी ढपली , अपना राग,  और लगाओ  मानवता में  आग।

ये कैसा विकास है , जहाँ चारो और मूल्यों का ह्राष है।
दीन यहाँ रह नहीं सकता , दिव्यांग जहाँ जी नहीं सकता।  
प्रगति नहीं ये विनाश , मानवता का सर्वनाश है।

झेल रही है धरती हमको , सशक्तिकरण का अभिशाप है ,
बच्चे , बूढ़े और जवान  , ग्राहक बन ,  सब  हो गए भक्षक।

उपभोक्तावाद का नारा , सिर्फ पैसा का ही भाईचारा है।
फिर क्यों , फिर क्यों ,रोना रोते, बच्चे नहीं साथ है अपने।

शांती को तो त्याग दिया है , दूरदर्शन , विचल यंत्र का साथ लिया है ,
वैभव - प्रतिक का इसे मान -सम्मान  दिया है।

तुम क्या , तुम क्या  मानवता की बात लगाए ,
जब हमने माँ -बाप को ही गांव से अपने साथ न रहने लाए।  

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Friday, September 23, 2016

रंग बदलती तस्वीर

रंग बदलती तस्वीरो में सोचा न था , तेरा भी  हमसफ़र नाम होगा ,
प्यार वफ़ा के कालिन्दे , जो  पढ़े  थे साथ , हाथो के लकीरो को लेकर दिल के पास,
क्या   इन   लकीरो के साथ , इतना ही था।

क्यों  हम इतनी दूर निकल आये ,जहाँ  तेरा साथ तो न था ,
न तेरी तन्हाई थी, बस एक आह थी।
क्या यही  आगाज था इस आदिल आदमियत का।

आज  दर्पण  भी आजिज हो , आशना के  आशियाना  के ताक से तर्श  है।

न त -अज्जुब  हुआ , ऐ  कातिल तेरे  वादा खिलाफी  पे ,
गुलजार गुलिस्ता को तुमने , गुमनाम  गजल का बे -कस बना दिया।

ए मेरे फिदाई तेरे फरमान से तूने ,  एक  बेखुद  ,
गुमनाम से  बेजर को बज्म- ए -आलीम  बना दिया।

मेरा कुफ्र है , तूने एक पाकीजा इंसा  को  ,  ईमान का सौदागर  बना दिया ,
ए  मेरी  काजी,   मेरा कत्ल के किस्से  को  जाज़िब लगा तूने अर्श पे उठा दिया।
बस इतना ही चाहत से कहता हु,  तेरी  चश्म ए  जादू को , ज़न्नत  का जनांजा भी न मिल पाए ।




आश्ना=  प्रेमी , आजिज़= उदासीन,   बे कस= अकेला ,   फ़िदाई= प्रेमी,  बे ज़र= निर्धन, कंगाल, बज़्म= सभा, पाकीज़ा= शुद्ध, बे ख़ुद= बेसुध, जाज़िब= मनमोहक, जाज़िब= मनमोहक, आकर्षक ,   चिलमन= चिक,   जन्नत= स्वर्ग, फ़िदाई= प्रेमी, चश्म= आंख 

काम नहीं है , वक़्त भी ही है ,

काम नहीं है , वक़्त भी ही है ,
कमबख्त बेवक्त,  क्यों लोग काम का रोना रोते है।
बढ़ती - घटती शुतरमुगि चालो में ,  शतरंज की अष्ट चालो में ,
शह या मात की अंधियारी खयालो में , मानवता के ये रखवाले ,
बेवक़्त ही वक़्त का रोना रोते ।

प्रगति की चाह नहीं है, इन्कलाब  की आह नहीं है ,
झर झर कल कल  बहती नदिया , रोक खड़े   ,
धरती की आंगन को रक्त रंजीत कर ,
महिमामंडित अभिमा के साथ , कोई हमसे छुप के खेल रहा है ,
धीरे धीरे पर सारे  ही , बेवक़्त ही वक़्त का रोना रोते है।

क्या था मैं , क्या हु मैं , ये सोच रहा हूं , वक़्त ही वक़्त है ,
मैं सोच रहा हूं।

वक्त का फलसफा कौन पढ़ा है , अगले पल का किसे  पता है ,
जिसने इसको जाना है,  समझा है , दूर कही वो  छुपा खड़ा है ।
वक़्त है बलवान , आज है मेरा कल है तेरा ,
सृष्टि  का है शाश्वत सत्य , हमें पता है तुम्हे पता है ,
फिर क्यों बेवक़्त हम  वक़्त का रोना रोते है।

तुम हो छोटे , तुम हो निकम्मे , तुम हो गाँव के गंवार ,
ऐसा तुमने सोचा है , पर वक्त पे क्या तेरे कोई अपना साथ खड़ा है।
फिर क्यों रोता है।
कब तक क्रोध, काम, मोह, माया की होली खेलोगे   ,
कब तक  खुद ही आग लगोगे और बुझाओगे  ,
 क्या वक़्त इसके लिए रुका  पड़ा है।






काम नहीं है , वक़्त भी ही है ,

काम नहीं है , वक़्त भी ही है ,
कमबख्त बेवक्त,  क्यों लोग काम का रोना रोते है।
बढ़ती - घटती शुतरमुगि चालो में ,  शतरंज की अष्ट चालो में ,
शह या मात की अंधियारी खयालो में , मानवता के ये रखवाले ,
बेवक़्त ही वक़्त का रोना रोते है।

प्रगति की चाह नहीं है, इन्कलाब  की आह नहीं है ,
झर झर कल कल  बहती नदिया , रोक खड़े   ,
धरती की आंगन को रक्त रंजीत कर ,
महिमामंडित अभिमा के साथ , कोई हमसे छुप के खेल रहा है ,
धीरे धीरे पर सारे  ही , बेवक़्त ही वक़्त का रोना रोते है।

क्या था मैं  क्या हु मैं  ये सोच रहा हूं , वक़्त ही वक़्त है ,
मैं सोच रहा हूं।  

वक्त का फलसफा कौन पढ़ा है , अगले पल का किसे  पता है ,
जिसने इसको जाना है,  समझा है , दूर कही वो  छुपा खड़ा है ।
वक़्त है बलवान , आज है मेरा कल है तेरा ,
सृष्टि  का है शाश्वत सत्य , हमें पता है तुम्हे पता है ,
फिर क्यों बेवक़्त हम  वक़्त का रोना रोते है।

तुम हो छोटे , तुम हो निकम्मे , तुम हो गाँव के गंवार ,
ऐसा तुमने सोचा है , पर वक्त पे क्या तेरे कोई अपना साथ खड़ा है।
फिर क्यों रोता है।
कब तक क्रोध, काम मोह माया की होली खेलोगे   ,
कब तक  खुद ही आग लगोगे और बुझाओगे  ,
 क्या वक़्त इसके लिए रुका  पड़ा है।
 





काम नहीं है , वक़्त भी ही है ,

काम नहीं है , वक़्त भी ही है ,
कमबख्त बेवक्त,  क्यों लोग काम का रोना रोते है।
बढ़ती - घटती शुतरमुगि चालो में ,  शतरंज की अष्ट चालो में ,
शह या मात की अंधियारी खयालो में , मानवता के ये रखवाले ,
बेवक़्त ही वक़्त का रोना रोते है।

प्रगति की चाह नहीं है, इन्कलाब  की आह नहीं है ,
झर झर कल कल  बहती नदिया , रोक खड़े   ,
धरती की आंगन को फिजूल के कामो में रक्त रंजीत कर ,
महिमामंडित अभिमा के साथ , कोई हमसे छुप के खेल रहा है ,
धीरे धीरे पर सारे  ही , बेवक़्त ही वक़्त का रोना रोते है।



Thursday, September 22, 2016

ज्योति


  • ज्योति


ज्योति के आने से  अँधियारा छंटता  है।
ज्योति के जाने से दिल फटता है।
पर ज्योति को क्या फर्क पड़ता है ,
वो तो ज्योति की गति से मेरे आँखों से ओझिल हो गई ,
और हम अभी भी ह्रदय के धमनियों में , हृदयाघात से बचने के लिए ,
 ज्योति के तरंगो के  आस में जी रहे है।

ज्योति आप महान हो , आपने अपने   दिल के दुकान में ,
कई ज्योति छुप्पा रखा है , जो रंग बदलती वक़्त के साथ ,
मृग तृष्णा की तरह , रेत की टीलो में हरियाली बिखेरने की जगह ,
अपनी ज्योति जला  , अपना ही रंग बिखेरते  ,
किट पतंगों को जलाते हुए , अपनी ही गति से  गतिमान है।

ज्योति को अपनी गति  का अभिमान है , अपने पे ही गुमान है ,
तुम कौन हो , तुम्हारा दर्द क्या है , तुम्हारा अस्तित्व क्या  ,
ज्योति इन सब से बेखबर, सैर करती है इस आकाशगंगा में ,
असंख्य टिमटिमाते हुए  टूटते तारे , ज्योति की तरफ देखते है ,

ज्योति न तो रुदाली है , न ही तेरे साथ  की हम ख्याली है ,
ज्योति तो सिर्फ अपना वक़्त देखती है और गतीमान हो ,
अपना स्वार्थ साधते हुए , बहती हुई आँखों को चोंधियाते हुए
अपनी ही ज्योति जलाते ओझिल हो जाती  है ।

ज्योति की  रंग बदलती सतरंगी  इंद्रधनुष चालो को
ये किट, पतंग शत -शत नमन करते है ।



Wednesday, September 21, 2016

भाई ऐसा कब तक चलेगा

भाई ऐसा कब तक चलेगा , बॉस ने बोला ,
जब तक चल सकता है तब तक चलेगा , मैंने बोला।

भाई ऐसा नहीं  चलेगा , बॉस ने बोला ,
ठीक है जैसा चल रहा है चलेगा , मैंने बोला।

बॉस को खीज आया , ऐसा लगा जोरो से जुकाम का झिक आया ,
गला खड़खड़ाया और जोर से चिल्लाया , भैया ऐसा कब तक चलेगा।

दिला दो , करा दो , मैंने बोला , मानवता के नाते ,
मेरे बॉस,  चिल्लाने के अलावा और भी कुछ करा दो।

बॉस को और जोर से गुस्सा आया , क्या समझा है ,
तुझे दरवाजा दिखाता हूँ , नहीं तो नागालैंड भेजता हूँ ।

मैंने बोला बॉस जाने के लिए तो मैं भारत में कही भी चला जाऊ,
पर मेरा  कुछ  तो करवा दो ,नहीं तो मुझे लॉक  अप  में ही  बंद करवा दो।
बहुत हो गया ये चिक -चिक। , बहुत हो गया ये चिक -चिक।

क्या करवा दो , दिला  दो लगा रखा है ,
भाई माजरा क्या है , कुछ तो बता दो।

मेरे बॉस दुनिया में अकेला हूँ , साथ में कवि हो रखे ला हूँ,
इसके ऊपर से  निम् चढे करेला है की , प्यार करने की शोहबत पाल रखेला  हूँ।
जिसे हमने  आज तोहमत   बना रखेला  है।

मेरे बॉस,  न मुझे  इक़बाल या  गालीब  या इंकलाब   बनना  था ,
मुझे तो बस एक इंसान के साथ इंसान  बनना  था।
कुछ  न दिलाओ ,  बस ये दरियादिली दिखाओ,
की तुम भी हमारे साथ आओ , और साथ जी के दिखाओ।
और फिर बोलकर दिखाओ की भाई ऐसा कब तक चलेगा !!!!!!!!!





Tuesday, September 20, 2016

हमने भी गालीब , इक़बाल बनने की कोशिश की

हमने भी गालीब  , इक़बाल  बनने की कोशिश की ,
इनके पदचिन्हो पर कभी चलने की कोशिश  की।

कमबख्त हाथ में बोतल था ,और  बस उसका सोच था ,
निकल पड़े उनके ख्याल खमाली में।

सोचा न होश कहा था , मदहोश से तीन प्याली में ,
सामने से कुकूर आ रहा था , सोचा किधर जाऊँ ,
बाये जाऊँ की दाये जाऊँ , इसी उहापोह में था ,
कुकूर ने भी भांप लिया , वह  बाये गया न दाये
बस    आक्रोशित हो सीधे ही  आक्रमण किया।

कही रैबीज न हो जाये , अब तो सिर्फ कूकर का ही ख्याल था ,
क्या करे न करे  इसी डर से  हम बेहोश हो चले।

मेरे दोस्त कभी भी अपनी  गम ख्याली न करना ,
तोहमत  कुफ्र के तुम ही भुक्त भोगी  होंगे।

ग़ालिब या इक़बाल  का क्या होगा , ये तो अपना  मुकाम
लिख कर  चमन  के  फ़ाज़िल आफ़ताबी है।
हम तो बस इनकी शोबहत के दीदार के काहिल है।  

Sunday, September 18, 2016

पूंजीवाद की माया

न कमाया तो क्या माया , न गवांया तो क्या  माया ,
न सोया तो क्या खोया , न पाया तो क्यों रोया।
न देखा तो क्यों पछताया , अब पछताया तो क्या पाया ,
न पढ़ा तो क्या पाया , न पढ़ाया तो क्या पाया।

न वंशवाद में क्या पाया , न प्रजावाद में क्या पाया ,
न मूल्यों के ह्राष में क्या पाया , न टूटते हुए रिस्तो में क्या पाया।

न में मेरी आपने मेरी नाकारात्मता  पाया , ये  सोचा आपने।
न देखा आपने इस दौड़ में , न कितनो को खो दिया आपने।

न लहू का रंग लाल रहा, न तो कोई ऐसा माइ का लाल रहा
न की खेल में, न पुराने ही रहे, न नए हो पाए ,
न प्रजातंत्र हो पाया, न समाजवाद  हो पाया।
 
हाँ हम खो गए इस पूंजीवाद की  माया में जिसने
व्यक्ति , समाज , देश , दुनिया को ऐसा भरमाया है ,
न राम रहे , न रहीम रहे , न गुरुनानक रहे , न क्राइस्ट रहे ,
बस डोनाल्ड , मैकडोनाल्ड , ट्रम्प और बस व्यापार रहे।


Saturday, September 17, 2016

एक कौआ, एक कबूतर , एक तोता

एक कौआ, एक कबूतर , एक तोता
तीनो ने मिलकर सोचा, क्या सोचा,
इंसान को खाने का सोचा ,

दाने दाने  को है मोहताज ,

कभी बाढ , कभी सूखा कभी इंसानो का बम ब्लास्ट ,

इन सब ने धरती की धार बदल दी,
गुरुत्वाकर्षण की चाल बदल दी ,

सागर , नदिया , धर्म , इंसान ,
ईमान ,हो गई है सदियो की सोच  ,
 हम तो ,''हम तो ,  तीन चिड़या ,
दाने दाने को खाने को है मोहताज।

बच्चा  बैठा देखो रूठा , पर क्या यह भी है सच्चा ,

मानवता की दानवता की छदम चाल में  ,
क्या बच्चा क्या जच्चा क्या  कौआ क्या तोता ,

सब खोकर केवल मैं का  स्वार्थ ले दौड़ पड़े है।

देखे क्या होता है , देखे क्या होता है , बस सोच रहे है । । । । । । । । । ।


Thursday, September 15, 2016

प्यास


प्यास

नवजात को है माँ की दूध की प्यास
बच्चे  को है अपनापन और प्यार का आस
किशोर और किशोरियो को शरीर की आग का है एहसास ,
युवावस्था में है है बुलंदियों की छुने  की प्यास।

हर उम्र में है प्यास और एहसास ,
बदलती हुई तस्वीरो में दिखती है
लकीरो की बढ़ने और घटने की तराश।

काश एहसास की ये आस समय के समझ के  साथ  होती हमारे साथ,

न होती ये नदियों का लहू से  लाल होकर  बहने की एहसाश।
काश एहसास की होती प्यास नर और  आदम  में ,
तो जिन्दा रहती जीने की प्यास।
एहसास की बदलती तासीवरो में बस और बस,
अपना स्वार्थ साधने  की है प्यास।
मंदिरो मस्जीदो गुरुद्वारों एवं चर्च में बंट गया है मानव का एहसास।






Wednesday, September 14, 2016

विकास की यात्रा

विकास की यात्रा पर हम क्या चले ,
अपने ही अपने रास्ते रास्ते से दूर हो चले।

क्या आदिवासी , क्या दलित , क्या सामान्य ,
सब खुद में ही अपनी खोखली चोंचले में जी चले।

वक्त आया जब , लड़ने लगे , काटने लगे ,
क्या यही सोच ले चले हम, आने वाले सदियो में।

पता नहीं पर पता है विकास की सह- मात की यात्रा में  ,
मित्रो ,  मेरे भाइयो , मेरे देश वासियो  सब कुछ  खो चले हम।

 विकास की यात्रा पर हम क्या चले ,
अपने ही अपने रास्ते रास्ते से दूर हो चले।

सोच नई तू लाना अपना इन्सा हो बस इंनसा जैसा

लोग कायर लोग काहिल फिर भी जी रहे है बदहाली में। 
अपनी सोच अपनी ढपली अपनी आगाज के खयाली में,
मदहोस हो नाच रहे है भौतिकवाद के खुमाली में। 

पास खड़ा कौन है , भूखा , नंगा , क्या यही है इंसान , 
ये सोच रहे है या न सोच रहे है पर सरपट दौड़ लगा रहे है। 

भूख़ बढ़ी  मांस की  प्यास बढ़ी  शराब की , 
नोच रहे है खसोट रहे इंन्सा की इंसानियत। 

क्या पाया क्या खोया बैठा जब मैं ऐ इंनसा पास न था कोई ,
दूर खड़े थे सब अपने सब,  बस पास खड़े थे तन्हाई मेरी ,

ऐ दोस्त क्या किया हमने अपना तुम न करना ऐसा अपना ,
सोच नई तू लाना अपना इन्सा हो बस इंनसा जैसा।