Tuesday, January 31, 2017

मन मेरा मौजा ही मौजा


चुप रहना , कुछ न कहना ,
मन  मेरा , मौजा ही मौजा।

भीड़ में मैं अकेला , सोच रहा ,
क्यों  कुछ न कहता , क्यों  मैं  अकेला।
न जाने फिर भी क्यों ,
मन  मेरा  मौजा ही मौजा।

झुण्ड में पेशेवर ,
गर्म हवा , विषय गंभीर ,
चर्चा परिचर्चा ,शास्तार्थ ,
क्या ये  बहस मुनासिब।

सोचता मन ,
चुप रहना , कुछ न कहना ,
मन  मेरा , मौजा ही मौजा।

पास दूर होते निष्कर्ष ,
क्रोध , कटुता , अतिक्रमण,
विचारो से उतर  द्वेष विद्वेष का माहौल।
मन का मैल  से , बड़ा होता गर्म गुब्बार।
फट पड़ा  पेशेवर मजदूर ,
गिरह खोल , गिरेबान चढ़ा तैश में आ ,
बकवादी बन करता , आबोहवा  दूषित।

सोचता मन ,
चुप रहना , कुछ न कहना ,
कितना अच्छा , स्वयम आनंद ,
मन  मेरा , मौजा ही मौजा।

पिकाचु 

Sunday, January 29, 2017

जमी पे मैं पड़ा

जमी पे, मैं पड़ा ,
दोस्त मेरे ,
कंकड़  , पत्थर , रेत।

जमी से, मैं जुड़ा ,
दोस्त मेरे ,
पेड , पौधे , ख़र -पतवार।

जमी पे, मैं  खड़ा ,
दोस्त मेरे   ,
इंसान , हैवान , शैतान।

जमी का साथ ,
दोस्त मेरे ,
मैं खो पड़ा ,
जब से !
लुघडना ,सरकना,  छोड़ ,
मैं खुद के दो पैरो पे ,
हो पड़ा ,
मैं खड़ा।

पिकाचु





Saturday, January 28, 2017

कफ़न बेचता हु

मैं ईमानदारी से ईमान बेचता हु ,
कफ़न की एक दुकान है , कफ़न बेचता हु।

मैं फक्र से जुआ जिंदगी का, खेलता हु ।
जिंदगी है कि, पल पल की ख़ामोशी में ,
मौत का जुआ बेचता है।

मैंने  प्यार, ज्योति , जाया , सीरत से किया ,
सभी ने बड़े प्यार से,
मुझे प्यार का, मूर्त बना दिया।

मैं दुनियादारी नहीं जानता,
बड़े इत्मिनान से,
इस जहाँवालों ने दुनियादारी, का दुकान दे दिया ।

मैं जिंदगी की मुकाम से,
क्या जरा फीसल सा गया ,
जिंदगी की हर दुकान ने ,
नाकारा ,आवरा करार ,
मुझे भिखारी बना दिया ।

मैं कफ़न की दुकान खोलने,
फिर निकल तो चला ,पुकारा किसी  ने  ,
थोड़ा रुक, ठहर तो जरा ।
यहाँ हर इंसान, नंगा है खड़ा ,
कफ़न किसको बेचेगा ,
ये तो बता , तू जरा।

पिकाचु 

धोखा

सौदा  दिल का उसने ही किया ,
जिसे दिल, मैंने , संभालने को दिया ।

बेवफा वो नहीं , बेवफा ये है ,
दफन ,मुर्दे को भी  जिन्दा कर दिया,
एहसासों से मरने के लिए ।

थमाया था विश्वास  की पूंजी  इंसान को  ,
उसी ने भोंक दिया खंजर
बड़े ईमान से।

पड़ा हु फर्श पर लथपथ खून या पसीने से ,
फिक्र किसे है ।
यहाँ हर शख्स  लगा है होड़ में,
लहू पिने को ,
जिन्दा रहने  के लिए।

राजनीति होती थी , ताज तख़्त के ताजपोशी को ,
राजनीति होती है , इंसानियत को  दफनाने की।

कभी रौशनी थी रहनुमाओ  की इंसाफ की   ,
आज बस लौ  जिन्दा है, शमशान के रूहो से।


पिकाचु

Friday, January 27, 2017

वो कहते

वो कहते, कुछ हो गया है,
दिल  फुस तार  हो गया है,
इशिक़या  बुखार हो गया है।

वो कहते,
रातो रात, ये क्या हो गया है ,
दिल क्यों, बेजार हो गया है।
मैं कहता ,
मुझको मेरा प्यार मिल गया,
४४० वाल्ट का इश्किया औजार चल गया ।

वो कहते,
कुछ नशा सा हो  गया है।
मयख़ाना का प्रमाचार  मिल गया है।
मैं कहता , नूरे  दीदार हो गया ,
इस  मधुशाला से प्यार हो गया है।

वो कहते,
कविता में  रूह आ गई है ,
मैं कहता,
मेरी अरमान आ गई है।
इस मयखाने की बंद  ,
वो  सुरा की  दुकान फिर खुल गई ।

पिकाचु




इश्क तो खेल है

इश्क तो पागल है ,
इश्क तो आवारा है ,
सुबह , शाम ,धुप  छाँव ,
गम ख़ुशी ,सा चलता है।

इश्क की उम्र नहीं ,
इश्क कभी तनहा नहीं ,
इश्क कभी आसान नहीं ,
मेरी जान, मैं नहीं , तू नहीं , तो इश्क नहीं।

इश्क कमशीन है ,
बड़ा  संगदिल है।  

इश्क तरसता है, 
मैं और मेरी जान
लब से लब को।
इश्क बैचेन है, मेरी जान के आलिंगन को।

इश्क की उम्र नहीं ,
इश्क जब जवां है , कोई रोधक नहीं।
इश्क जब अधेड़ है , एक पेसोपेश है।
इश्क जब बूढा है ,  तब ही परवान चढ़ता है।
इश्क पे जोर नहीं , मेरी जान , जब तू नहीं।


पिकाचु 

Thursday, January 26, 2017

हुस्न


हुस्न की चाह ,
छुपाये नहीं छुपता।

दिल लगाया है हुस्न से ,
धड़कनो को थमने,
का एहसास  नहीं होता ।

दिल तो मानता नही , चंद लम्हे ही चाहता है ,
हुस्न की ,
पर हुस्न है कि ,
मानता ही नहीं।

हसीना का हुस्न क्या ,
आशिक़ की आशिक़ी ,
दीवाना का दीवानापन।
और क्या ?
एक लाईलाज रोग।

खड़ा था हुस्न के चौराहे पे,
ले  रहा था ,
गुजरे हुए हुस्न का  एहसास।
लगा था रेला हुस्न का ,
चाट , गुपचुप के रेले पे।

हुस्न अब बस एहसासों  के,
हम साये में ही रह गया है।
हुस्न अब , गुपचुप,
चुप चुप खाकर ,
भई गुब्बारा हो गया ।

वक्त के एहसासों में
हुस्न हुस्न करता फिर रहा  हु ,
बुढौती है,
फिर भी हुस्न को तलाशता फिर रहा हु।

पिकाचु



ये क्या हो रहा है

ये क्या हो रहा है।
मन कुछ ठहर सा ,
सहम सा ,
क्यों हो  गया है।

गम क्या, ख़ुशी क्या ,
जीत क्या, हार क्या।
जज्बात क्यों ,
ठिठक से गये है।

ये क्या हो रहा है,
ये क्यों हो रहा है ,
अंदर ही अंदर ,
अपना जीवन,
क्यों , उलझ के
सुलग  सा गया  है ।

जीवन का अभ्यास ,
तनिक भी रफीक न रहा।
इंसान अपना मगरूर,
संगदिल,मशगूल
आवारा , काफिर   ,
क्यों हुए जा रहा है।

ये क्या हो रहा है।
अबूझ पहेली,
क्यों,
जीवन हम सब का ,
रफ्ता रफ्ता हुए जा रहा है ।

पिकाचु 

Wednesday, January 25, 2017

धमाचौकोडी

इधर उधर की धमाचौकोडी
नाच नचाये बच्चो की चौकड़ी।

चिलम चाली , अकडम ,पकड़म ,
धूम धड़ाका ,
गूंज रहा है आवाजो से ,
नन्हे मुन्ने , राज दुलारो का,
ये गुलिस्ता।

एक पल की इनकी लड़ाई ,
दूजे  पल है प्रीत निभाई।
खेल बड़ा ये निराला है ,
प्यार तो इनकी पाठशाला ।

छुप्पा -छुप्पी, , छुक  छुक गाड़ी ,
लप्पड़ थप्पड़ , अकड़म पकड़म।
फिक्र नहीं  है जीत हार की।
पक्के है , सतरंगी है ,
रमे  है अपनी धुन में ये ,सच्चे। .





पिकाचु 

Tuesday, January 24, 2017

मैं अजनबी हु ,


मैं अजनबी हु ,
तटस्थो के मरुस्थल में खोजता ,
अपनी जमी।
मैं वो अजनबी हु।

मैं  बवंडर  हु ,
हवाओ के वेगो को थामे हुए ,
निरंतर खड़ा।
दबाव के समुन्दर को छितराते हुए ,
जीवन को समर्पित।
मैं  बवंडर हु।

मैं पथिक हु ,
न सफर का पता  ,
न रास्ते का पता ,
न मंजिल की उम्मीद ,
बस चले जा रहा हु।
मैं  पथिक हु।

मैं भूख हु ,
मेरी क्षुधा में सिर्फ मैं।
मैं भूख हु।

पिकाचु 

Monday, January 23, 2017

तुम, ठीक व्यक्ति नहीं

लो एक और कहकशा  ,
लो एक और दुआ ,
लो एक और बददुआ ,
सुना के कोई,
अभी अभी, ही गया।

स्तब्ध, नि:शब्द,
लड़खड़ा, संयम हो।
मैं ढूंढने चल पड़ा,
फिर एक नई बददुआ।

आहिस्ता-आहिस्ता,
एकनिष्ठ हो, निपुण मैं ,
झेलने में , ये  बददुआ।

वो आज फिर आई ,
बोला तुम, ठीक व्यक्ति नहीं।
फर्क नहीं पड़ता तुम्हे।
गुरेज ही नहीं ,
क्यों ? कोई अभिव्यक्ति नहीं।

हँस पड़ा खिलखिलाकर मैं।
कोई शिकन नहीं।
लगे कौन सी बददुआ ।
यहाँ तो रुके , खड़े है अरसो से।
क्रमबद्ध कतार  में ,ये बददुआ ।

पिकाचु


मैं कैसा

एक समाज है ,
वाणी विराम पे ,
सोच  निःशब्द ,
प्रवृत्ति जड़ता ,
गति  शून्य ,
शरीर  पक्षघात।
ये हमारा  समाज  है।

लोग कैसे ,
एक पल गर्म ,
दूजे पल  नरम ,
पलके बोझिल ,
धड़कन  डब डब ,
रिश्ते  सुखाड़ ,
आषाढ़ विपदा ,
निरुत्तर मन ,
ये हम लोग है।

मैं कैसा ,
अँधेरा पूनम का ,
रौशनी अमावस्या की ,
ईष्या खुद से ,
निकाला जमात से ,
कर्म निम्न।
कोढ़ मन का।
मैं हु ऐसा।

लिखे तो क्या लिखे ,
निरुत्तर मन,कुछ न लिखे।

पिकाचु

Sunday, January 22, 2017

दिल का आंगन खुला है मेरा:-

घर आंगन खुला है मेरा ,
इन्तेजार है ,  तेरा दशको से,
पल दो पल का ,पतझर छोड़,
प्यार का कोपल, आने दे।

मन मेरा ढूंढ रहा है ,
फिजा में फूलो की, भीनी भीनी  खुशबु।
खुले  आंगन में खोज रहा हु  ,
खोया अपना संसार जहाँ।

घर आंगन खुला है मेरा ,
रुके वक्त को  दौड़ लगाने ।
रुके रहोगी,  तुम कब तक निर्मोही ,
समय का  लेखा-जोखा, ठहरा मेरा।

बाट जोह रहा, और भी कोई ,
दिल का आंगन खुला कर अपना।
अपराध  तो  तेरा अछम्य है।
दुआ है उसका, छोड़ दिया।

घर आंगन  खोलो अपना ,
हवा का झोंका आने दो।
जीवन का बसंत जो बिता ,
लेख जोखा, बचा है ,अभी अश्को का।
पतझर जाये ,
खुले आंगन में वसन्त तो आने दो।

पिकाचु




टूट गया है

सपना अपना इस  जीवन का ,
टूट गया है। 

पूंजी अपनी इस संगत का  ,
बिखर  गया है। 

राही रास्ता , इस मंजिल  का ,
खो  गया है। 

दर्द है इतना , इसको सहते  ,
टूट  गया हु। 

किदन्ती इतनी , इस व्यथा की  ,
संकलन करना, छोड़ दिया है । 

कैसे बताऊ ,
मौला अपना, इस  अनुयायी को ,
इस मंझधार में,
क्यों  भूल  गया है। 

पिकाचु 

Saturday, January 21, 2017

चर्बी बढ़ता , थुलथुल देश

चर्बी बढ़ता , थुलथुल देश ,
आहार का बदला ,ऐसा  परिवेश।
भोजन सूची ,सुबह है पास्ता ,
दोपहर पिज़्ज़ा , शाम को बर्गर।

बोतल , डब्बा , थैली ,पैकेट ,
संसाधित खाना, का मौजूद जमाना।

दाल भात , रोटी सब्जी ,
पुआ पूड़ी,लिटि चोखा।
समय से पहले ,पच कर  गायब।

सब्जी रोती  एक किनारे,
रंग हरा से हो गया पीला।
हँसता अपना आलू भैया ,
मांग तो इसकी बनी है, अभी तक।

कलयुग की है, कैसी ब्यार ,
हाँथ  किसे  है ,आज हिलाना ,
खाना किसको, आज बनाना।
अधिकारों का है  पिंग  बढ़ाया ,
पाकशाला  की चिता सजाई,
उलझे जिसमे भैया-भौजी, सास- लुगाई।

पिकाचु 

वक्त के हाथो में

दे दो अपने ,वक्त को,
वक्त के हाथो में।

पल पल का हिसाब ,
रहने दो ,
वक्त के हाथो में।

रेतो में, यादो की तस्वीरो,
उकेरना,छोड़ दो,
वक्त के हाथो में।

हवाओ के बवंडर में ,
रेतो को लड़ने,
छोड़ दो,
वक्त की हाथो में।

वक्त से खेला था, हमने कभी ,
वक्त ही खेल रहा है ,
तब से अभी।


वक्त था, ये  भ्रम था,
की मैं हु ,
वक्त है कि , पूछता फिर रहा ,
मैं क्यों हूँ।

वक्त है , संभल जा ,
वक्त सा पिघल जा ,
वक्त सा अमर बन ,
एक इंसान तो बन जा।

पिकाचु








Friday, January 20, 2017

अंदाज ए बयां , वक्त का :

अंदाज ए बयां , वक्त का  ,
शाज , शहनाई , श्रृंगार  कर,
छठा-घटा में ,कर्म की साधना की ,
ज्योति,
अंदाज ए बयां , वक्त के साथ जलायेगा।

विस्मित है वो , मदहोश है वो ,
प्रीत के ब्यार के नव बौछार  से।
पल ये अगला , रीत क्या लायगा।

धड़कते  दिल की, धधकते अग्न से ,
श्रुति मीत का , संगीत प्रणय का ,
मन आंगन में,यौवन  की कोपल,
अंदाज ए बयां , वक्त के साथ खिलायेगा।

भँवरे कली की.संयोग की बेला ,
मन ये बावला , तन ये कम्पन।

मित  प्रीत के सम्भोग के उद्धव से ,
सृष्टि में अब फिर कोई,  नव ब्यार,
प्रेम का ,
अंदाज ए बयां , वक्त के साथ   बहायेगा।

पिकाचु 

Thursday, January 19, 2017

ये कौन सी बात है

ये कौन सी बात है,
दौड़ पड़ी वो ,छोटी सी लड़की  ,
हरी बत्ती से लाल होते।
गति तेज , लगे जैसे ,
करंट का झटका ,
गाड़ी चलती , लड़की दौड़ती ,
पहुँच चुकी वो बत्ती पर, फिर।

भीख मांगना, बुरी बात है ,
दूर बैठे रुकी, चलती, गाड़ी में ,
चुपचाप,ये देखना,
अच्छी बात है!
अपना देश , अपना माट्टी ,
कैसे भ्रष्ट हुये विचार ,
ये कौन सी बात है।
ये कैसा विकास है।

चर्चा, परिचर्चा ,
कभी खाट पे ,
कभी चाय पे ,
कितने बार , दौड़ लगाये ,
लाल और हरे के खेल में ,
कब तक लड़की, यु  बौराये।
ये कौन सी बात है ,
ये कैसा विकास है।

वक्त से लड़ाई , सब लड़ते है ,
कुछ ठहरते , कुछ सुस्ताते , फिर लड़ते है।
पल पल की वो,
लाल हरे की,
बत्ती की ये,
लड़की से लड़ाई ,
ये कौन सी बात है ,
ये कैसा विकास है।

पिकाचु

जीना ये आसान नहीं है

जी नहीं है , जान  नहीं है ,
जीने की अरमान नहीं है।
रफ्ता , रफ्ता , वक्त ,
जो चलता ,
जीना ये आसान नहीं है।


जीतेजी जो हार गये ,
जज्बात अपने जो गये ,
जज्बे तो सारे, सो गये ,
जलने को , तन्हा ,
जो  छोड़ गये।
जीने की अरमान नहीं है,
जीना ये आसान नहीं है।

जाने क्यों इस रूह में ,
जाने का भी कोई गम नहीं।
जालिम जो  तेरे जेर से,
जाते हुए भी दूर से ,
जमते हुए अश्को से मैं ,
जा रहा हु, रफ्ता , रफ्ता ।
जीना ये आसान नहीं है।

जिन्दा हु बस, जान नहीं है ,
जन्नत की आजार नहीं ,
जख्म तेरे, मेरे है जेबा
जीनत जुदा तो  जिस्म क्या ,
जायज नहीं अब ये वक्त जो
जीना ये आसान नहीं है।


पिकाचु( कॉपीराइट शोभा सचिन्द्र: १९०१२०१७  )






Wednesday, January 18, 2017

अविश्वाशो के मकड़ जाल

दो चिड़ियों की ऊँची उड़ान ,
सुबह सवेरे ,देख रहा ,
रुका  हुआ ,
मैं एक  इंसान।

मेरा घर , मेरा सम्पति ,
मेरा बेटा  , मेरा बेटी ,
इस मिथ्या के भ्रम जाल ने ,
बांध के रखा ,
मेरी उड़ान।

मेरा क्या , सम्पति !
वर्ग फुट ,बीघा  एकड़ ,
ये तो सीमित है।
फिर क्यों  भाग रहे है ?,
इनके पीछे।
दरकार है जब, कुछ गज की ही।

उड़ने की अभिलाषा   , नभ छूने की जिज्ञासा ,
मूल पाठ है, इस जीवन पथ का।
गिरकर उठना , उठकर गिरना ,
गती है ये,  दिन- रात   जैसी।

कर्म ज्ञान का , कर्तव्य त्याग का ,
भाव है जब ग्रंथो का।
क्यों मानव की  उड़ने की अभिलाषा ,
कालचक्र ने लील  लिया है।

देखो विश्वास है कितना,
इन चिडयों का ,
उस  ठूठे पेड की घोसले पे।
छोड़ के, अपने  चीची करते बच्चो को ,
भ्रम जाल से ,निकल पड़े है।
मैं , तुम , हम क्यों फिर  ,
अनुरागी बन,
उलझ रहे है , अविश्वाशो के मकड़ जाल  में।

पिकाचु








Tuesday, January 17, 2017

लटकम , झटकम , दही का मट्ठा

लटकम , झटकम ,
दही का मट्ठा ,
गुपचुप , चप चप  ,
दही का भल्ला ,
चाट पापड़ी , कुरकुरे समोसा ,
जीभ चटकाते , खाते झटपट।

छोटा , छोटी , मोटा , मोटी ,
दीदी, भैया , पापा , मम्मी,
पलटन लेकर खड़े है, सब।
गिनती अपना कब आएगा।
इन्तेजार में अपनी ,
कही,
चाट पापड़ी , खत्म न हो जाये।

लार टपकाते कब तक बैठे ,
इन्हें  चबाने कब दोगे भैया।
कब तक रोके अपनी जिह्वा ,
लटकम झटकम , चिल्ला  रहे भैया।

चाट, पकौड़ी , गुपचुप , पापड़ी ,
जल्दी जल्दी खाने दो।
नशा तो अपना  खाना है ,
खाकरा , थेपला ,ढोकला ,
अभी तो बाकी ,
लटकम झटकम दही का मट्ठा।

पिकाचु 

भोली भाली मनमौजी

भोली भाली  मनमौजी ,
पिया संग खेले,  हमजोली।

संग संग पिया  संग  ,
बिखरे सतरंगी रंग।
उड़े मनवा भोली भाली  के ,
बसंती हवा संग।

खन खन ,  मन - मन ,
टुकुर टुकुर चुपचाप देखे,
पिया हो।
भोली भाली के बहते कदम।

टुकुर टुकुर, दीवाने जैसे ,
पिया ,
तुम क्यों हो गए ऐसे।

भोली भाली मनमौजी संग ,
पिया  हो गए है  बावले।
मुँहवा  में निवाला डाले ,
धीरे धीरे भोली भाली।

ऐसें ही मौसम रहे ,
भोले भाली पिया संग रहे।
चाहे, ये दुनिया,
ऐ भैया  ,
सबके ऐसे ही हमजोली मिले।
भोली भाली संग पिया के ,
ई कहानी, हमेशा ही  अमर रहे।

पिकाचु

एक लड़की थी-एक लड़का था

एक लड़की थी ,
कहती थी , वो ,
मैं सुंदर हु।

एक लड़का था ,
अँधेरे में देखता था।
कैसे कहे,  वो ,
तुम सुंदर हो।

उस लड़की के पास,
वो, लड़का गया।
पूछा, कौन हो तुम।
बोली , मैं सुंदर  हु।
कौन तुम ?.
हाँ मैं ?.

भोलापन , अल्हड़पन ,
में भींगा ,
कोमल सा ,वचन।
छु गया ,
उस लड़के का मन।
बोला,
हाँ , तुम  सुंदर हो।

सच है ,
मन की आँखे,
पास जिसके , वो सुंदर है।

पिकाचु 












Monday, January 16, 2017

अमिता का अमिताभ

चढ़ती खुमार ,
है ये, प्यार  का बुखार ,
भूलते है यार ,
रब की दरकार,
बस चाहे तेरा प्यार , ओ मेरे यार।

कितने ही किस्से हो ,
कितने अफ़साने हो,
हम तो बेगाने हो ,
प्यार के दीवाने हो ,
बस चाहे तेरा प्यार , ओ मेरे यार।

ढलता नहीं है तेरा नशा ,
चढ़ता है, ये अंगूरी नशा,
जितने पुराने होये ,
बस चाहे तेरा प्यार , ओ मेरे यार।


कौमुदी का कौमार्य हो  ,
अमिता का अमिताभ हो  ,
मिश्री सा सहचर बन ,
सागर सा असीम बन ,
चाहता हु ,
सिर्फ तुम्हें  मैं। ओ मेरे यार।


पिकाचु 

Saturday, January 14, 2017

अटकन , भटकन , इन्हें उड़ाए



चलो कुछ हवा बनाये ,
अटकन , भटकन , इन्हें उड़ाए।

कुछ बाते करते आज ,
काफी , चाय , ठंडी ,  ठंडई , सुरासर  की।

उठक बैठक , ताल ठोक कर ,
जोर का धक्का  या ठेलम कर ,
गड्डी तो स्टार्ट कर  भईया।
कब तक बैटरी गिरा  रहेगा ,
पंजा ,  त्वरक,स्टार्टर गुमा रहेगा ,
चलो कुछ हवा बनाये ,
अटकन , भटकन , इन्हें उड़ाए।

नट बोल्ट टाइट कर  ,
छेनी , हथौड़ा , कील ठोक  दे बाबु ,
आज तो अपनी गड्डी दौड़ेगी,
गतिरोधक भी  उड़ा  देगी।
अटकन , भटकन भूल कर ,
ओ बालक  ,
चलो कुछ हवा बनाये ,
अपनी गड्डी हवे में उड़ाए।

पिकाचु




Friday, January 13, 2017

आईना देखा , मन का


आईना देखा , मन का ,
तन की रंग से  मैला था।
दन्त विषैला, जिव्हा लपलप ,
लार टपकते लालच के ,
चक्छु थे  वासना की भूखे।
मैंने पूछा ,
मेरा तन- मन क्यों ऐसा।


उदर पीत से विष का पाचन ,
ह्रदय - धमनियों में ,
प्रवाह तरल गरल का ,
फेफड़ा सिकुडा , गुर्दा मुर्दा ,
आंत निष्चेश्ट , लहू है  ठोस,
मैंने पूछा ,
मेरा तन- मन क्यों ऐसा।

कर्म है मेरा ,
खुदगर्जी , मनमर्जी का।
पदचाप  अहम से,
हिलोरे मारे।
बंद मुठी है ,
भुजा भुजंग बन।
ठोकर मारे ,
धीर विचार को।
आवाज , आगाज में,
लहू का सैलाब ।
मैंने पूछा ,
मेरा तन- मन क्यों ऐसा।


क्रोध, वासना  का
कर्तव्य प्रतिमान है  ।
स्वजन पक्षपात का ,
प्रचार प्रसार है।
होड़ में तेरे मिथ्या , स्वार्थ है।
फिर क्यों पुछे,
मेरा तन- मन क्यों ऐसा।

पिकाचु



कटी पतंग


कटी रे कटी , 
चिल्लाये सारे,
नजर घुमाया , छत पर देखा , 
उतरण , मकरसक्रांति,
में मचा है, 
कटी  पतंग  का रेलम पेला। 

खुशीया  है , चारो ओर। 
पीहू , बैशाखी , पोंगल , लोहड़ी। 
उड़ा  के सारे गम। 
लगे है ,
बच्चो के संग ,
कटी पतंग के उधम में,
हम। 

उम्र का पारा , जोड़ो का  दर्द ,
झुकी कमर , धुंधली नजर ,
सबको उड़ाकर  , 
खो गये हम, 
नन्हे मुन्हे ,बच्चो के संग। 

झाड़ लिया और दौड़ पड़े ,
कटी जिंदगी, हारी  किस्मत ,
भूल के सब ,
दौड़ पड़े हम। 
लूटने चले , अपने जैसी,
किस्मत के हिचकोले खाते , 
कटी पतंग,
 रे भैया,
कटी पतंग  । 

पिकाचु 








कील , हथौड़ा ,

कील , हथौड़ा , 
सम्बन्ध है कैसा  
खटपट खटपट,
कैसे क्यों । 

निकल पड़ा है , 
कील जो  अपना ,
आंगन के दो कोने को ,
इस  डोर से मैं, बाँधु कैसे। 

मन का आंगन मैल से गीला ,
कौन से हथौड़ा, 
मारू मैं। 

संबंध जो अपना,
उधड़  पड़ा है , 
सुई से सिलाई न होये जो। 

कौन से हथौड़ा , 
आज जो मारू , 
रिश्तो की गांठ ,  न  उधड़े। 

मन तो मेरा ,
चाह है तेरा , 
फिर कील हथौड़े सा 
खटपट  क्यों। 

पिकाचु 

 




Sunday, January 8, 2017

वो नौनिहाल

बड़ा घर , कई कमरे ,
रहने वाला कोई नहीं।
कहानी है, ये  इंडिया की ,
अमीरजादों , ऐशजादों की।


सर्द , शीत , अंधड़ , बरसाती ,
दिन या रात, बीच सड़क के बीचोबीच,
बेघरों से  , रहते जो ,
दो बिजली के खम्बो के बीच ,
कहानी है , ये हमारे हिंदुस्तान की।


मर्म है , प्यार है ,त्याग है ,
जिन्दा रहने और जीने की,
जुनून है।
सर्द रातो को चीर के , बुलंदी की ,
परचम लहराने की आस है।
वर्तमान है  , ये हमारे हिंदुस्तान की।

यही वो नौनिहाल है ,
बैठा है जमी पे आज  ,
सड़क की मध्यम सी रौशनी में,
हाथो में  ले फटी किताब ।
भविष्य  है , ये हमारे हिंदुस्तान की।

गरीबी , बदहाली, कुपोषित ,
से लड़ता , असंख्य नामो से नेमित ,
छोटू , नन्हे , राजू , आमीर या हैदर है।
यह तो वह  अग्र, अधीर वीर है ,
जो  कल का कर्मवीर  है।

मंगल , शुक्र , चंद्र, तारो ,के बीच,
पहुँचने वाला अपना वही ,
सड़क के पाटो के बीच ,
बैठनेवाला  शूरवीर है।

पिकाचु





Saturday, January 7, 2017

संवेदनहीन हो चला

बुरे के साथ बुरा ,
भले के साथ भला ,
हिसाब - किताब करने ,
मैं ,चल पड़ा,
अब मैं ,चल पड़ा ।

मुरब्त नहीं ,
कर्म कर्तव्य में ,
इंसानियत का ज्ञान ,
मैं ,भूल चला ,
अब मैं  ,भूल चला।

निकल पड़ा,
अब मैं ,
बही खाता करने ,
संवेदनहीन हो,
मैं निकल पड़ा ,
अब, मैं निकल पड़ा।


क्या दीन , दुनिया,
अब ,
दिन हो या रात ,
जमी हो या आकाश ,
वक्त के साथ ,
मैं ,बदल चला,
अब मैं ,बदल चला।

प्यार या नफरत,
फसल कैसी भी हो ,
सबकी कटाई करने,
मैं  निकल पड़ा  ,
अब मैं निकल पड़ा।

गांठ बांध ली ,
अब मैंने।
न दया , न मोह ,
न क्रोध , न लालच ,
न सत्ता की अभिलाषा ,
न अपना न पराया।
सभी की आहुति दे ,
जैसे तो तैसा करने ,
मैं चल पड़ा,
अब मैं चल पड़ा।

पिकाचु

Thursday, January 5, 2017

हिसाब - किताब

क्यों तुमने  ,
यु ही मेरे संग ,
वादा वफ़ा का ,
बेफिक्री से,यु ही,
धुंए में  उड़ा दिया। 


खुश रहो, यु ही तुम ,
सोच में पड़े  , क्यों यु ही हम। 
ख़त्म किया , रहम दिया ,
बेवफा तूने ,यु ही हमको ,
ऐसा ,क्यों मरहम दिया। 

हर सुबह , खवाब के एक पन्ने में ,
जिक्र क्यों ,
यु ही तेरा हो जाता है। 
फिक्र का सैलाब , उमड़ घुमड़  ,
दिल को ,
क्यों यु ही,  
भूली यादो को उघेड़ ,
तेरी दीवानगी का   ,
फिर एक बार ,
यु ही ,
आशिक़ बना  जाता है । 

शिकन नहीं , कोई बात नहीं , 
वक्त की झुर्रियों की सौगात ,
खुदा से तुम्हे ,यु ही मिलेंगे। 

वक्त ही वक्त होगा , 
फिर यु ही,
हुस्न  की हिजाब का,
हिसाब - किताब , 
बख्त मेरी क्या ,
तेरा हमसंग हमसाया ,
वक्त लेगा। 

पिकाचु 


घर है ये क्या

घर है ये क्या ,
चूल्हा , बर्तन , बिस्तर , तकिया ,
चारदीवारी की चौहदी में ,
सीमित  अपना , 
ये रोजमर्रा का ,
कूड़ा करकट अपना। 
घर है , ये क्या। 


सफ़ेद , काला , सिंचित धन ,
साथ लेकर मटमैला सा,
सौंधा सा रंगविहीन पसीना 
लगाते , ईट , गारे , पत्थर में । 
फिर  बनता, ये  घर अपना सा। 


धूप , छांव , हवा , पानी ,
ऊंच - नीच , किस्मत की रवानी, 
आधार विश्वास जीवन की रवानगी 
सपने , हकीकत , कालचक्र से , 
बचने का आधार, क्या यही है ,
ये अपना सा घर। 

जीवन की पूंजी ,खर्चते ,
इसे व्यवस्थित करने। 
जच्चा ,बच्चा , 
मात पिता ,
पति-पत्नी,
कर्म कर्तव्य या जन्म मृत्यु,
रिश्ते, धर्म  की मर्यादा का ,
श्रृंगार  तो बनता, 
अपना सा ये घर। 

कितने घर , खड़े अकेले,
धरती की सम्पदा का दोहन कर,
सम्पति  की लोलुपता का आधार बन,
बाट जोहते ,खड़े अकेले।

ऐ मानव तुम ,
जागना है तो जाग उठो तुम ,
जाते वक्त सिर्फ तुम ही तुम ,
कोई खड़ा नहीं साथ, जो तेरे  ,
फिर क्या रखा है इट और गारे में।
बाँट तो जाओ ,
मटमैले से बच्चे की ,
खुशियो की आधार बनने,
अपना सा ये घर।

पिकाचु 




Wednesday, January 4, 2017

ऐ मेरी किस्मत

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एक बार तो मुस्करा दे ,
एक बार तो इतरा दे ,
एक बार तो थोड़ा उठा दे ,
ऐ मेरी किस्मत , एक बार  तो साथ दे।

कौन से चौराहे पर खड़ा हु।
एक बार तो रास्ता दिखा दे।
ऐ मेरी किस्मत ,
एक बार तो उस पीर से मिला दे।

एक  बार तो रंक से राजा बना दे ,
एक बार तो किसी हीर का राँझा बना दे ,
एक बार तो खुदा का मुखबीर   बना दे
ऐ मेरी किस्मत,
एक बार तो इस बुत में जान डाल दे।

एक बार नहीं अनेको बार देखा है ,
बस छू कर , फिसल कर जाते हुए।
एक बार तो ठहर जा मेरे साथ ,
एक बार तो दर्द बाँट जा।
ऐ मेरी किस्मत।
एक बार तो अपनी हिम्मत दिखा दे।


एक बार तो खुशियो की सौगात,
इस झोली में डाल दे ,
नहीं तो ,
एक बार, इस किस्मत को ,
ऐ खुदा ,
अपनी  कहर का इंतिहा  तो ,दिखा दे।

पिकाचु







Tuesday, January 3, 2017

खुदगर्ज ,खुदा ,खुदगर्जी बन

चौसर की बिसात बिछी है ,
पासा पास है , चलने को ,
कौन सी चाल, चल  चलु ,
कर्म , ज्ञानी , कुकर्म या अज्ञानी।

जनत या जलालत ,
कुफ्र या  आदमियत ,
फिक्र किसे ,
न मेरे लिए न तेरे लिए।

कौन यहाँ ठहरा है,
खुदगर्ज ,खुदा ,खुदगर्जी बन।
हर शख्स यहाँ प्यासा है ,
गर्म लहू पिने के लिए।

ताज तख़्त के चाह में,
मुकाबला किससे ,
मूक , बधिर , मौन ,
मर्महीन ,गौण, मष्तिष्क से।

चुरुट , चुरमुर ,अवपथ की राह में ,
किस अग्निपथ की गरज में ,
धूल उड़ाता , निकल पड़ा ,
इंसान अपना ,
बुदबुद सा मीर बनने।

पिकाचु




Sunday, January 1, 2017

सच और झूठ की ,
दो पाटो के बीच फँसी है,
दुनिया का तकरार और इकरार,
का सच ।

मर्द और औरत की ,
जिस्मानी प्यास की  आश में ,
बुझ  गई है जीवन,
और इसकी सर्जनशीलता।

देश विदेशज सा हो गया ,
मित्र भी शत्रु है आज।
बम गिराकर , नरसंघार कर,
अपकार , उपकार  भूल गए है, सब।

इंसान  का कोई मान  नहीं है,
इंसान क्यों ,  इतना खुदगर्ज है।
धूल में लोटे  , काले मटमैले ,
नवजात से भी , इतना इसको ,
बैर क्यों है।


टिश उठी है , बेकाबू दिल में ,
लब डब धड़कन , शोर में तब्दील ।
सिसकार उठा, हर मानव जब  ,
कितने चीत्कार ,
ऐ इंसान तू  , झेलेगा अब।


ह्रदय आघात भी बिसर गया है ,
आज का मानव क्यों इतना ,
भटक गया है।
दो पाटो के बीच ,
दुनिया क्यों इतना सिमट गया है।


पिकाचु