Friday, October 28, 2016

रिश्तो का त्यौहार



रिश्तो का त्यौहार

सुना कभी था ,
हमने - तुमने।
रिश्तो की गर्माहट ही
पर्व और त्यौहार है

सोच तो अपना,
हो गया बेगाना।

दादा - दादी,
नाना -नानी,
अब तो हो गए,
एक अफ़साने।

क्यों हम- क्यों हम
काका -काकी,
भैया - भाभी,
बड़े छोटे को,
भूल गए है।

जाना किनको,
इनसे मिंलने,
समय कहा है,
अपनों को।

 क्यों भौतिकवाद में ,
घुल - मिलकर,
रिश्तो का हम,
चूक चुके है।

परवाह किसे है ,
चाह किसे है ,
अपना कौन पराया है।

भूल गए,हम सब,
देखो , फिर भी हम,
रिश्तो की इस,
बंजर सी धरती पर ,
ये कैसा त्यौहार मना रहे है।

ये कैसा त्यौहार मना रहे है . .......
पिकाचु
 

रिश्तो की , बंजर धरती पर : पर्व और त्यौहार

पर्व और त्यौहार

सुना कभी था ,
हमने -तुमने।
रिश्तो की गर्माहट ही
पर्व और त्यौहार  है ।

पता नहीं क्यों ,
लुटे पिटे फिर हम,
ढूंढ रहे है खुशिया  ,
बाजारों में , अवहारो में।

सोच तो अपना,
हो गया बेगाना।

भौतिकवाद ने ,
कर अभिशापित।
देश को ऐसा ,
ग्रसित किया है।
सांस्कृतिक ,  मान मर्यादा,
को पूर्ण रूपेण से  ,
दिग्भ्रमित किया है ।

दादा - दादी ,
नाना -नानी ,
अब तो हो गए,
एक  अफ़साने।

जाना किनको,
इनसे मिंलने ,
समय कहा है,
अपनों को।

परिवार कहा है ,
सिमटा  है  जो ?
मम्मी -डैडी और बच्चो में!

क्यों हम , क्यों हम ,
काका -काकी ,
भैया - भाभी ,
बड़े छोटे को
भूल  गए है।

क्यों  भौतिकवाद में ,
घुल - मिलकर ,
रिश्तो का हम ,
चूक चुके  है।

परवाह किसे है ,
चाह किसे है ,
अपना कौन पराया है।

भूल गए, हम सब
पता नहीं ,
नियति की, ये कैसी  ,
अभिशापित माया है।

देखो , फिर भी हम  ,
रिश्तो की  इस ,
बंजर सी धरती पर ,
ये कैसा त्यौहार मना रहे है।  
ये कैसा त्यौहार मना रहे है. .......

पिकाचु






Thursday, October 27, 2016

एक मिनट रुकिए


एक मिनट रुकिए ,
आज तो पर्व है ,
धन का "धनतेरस"
कुबेर ने  खजाना खोल दिया,
लूट सके तो लूट लो ,
का ऑफर है ,
अवहार , उपहार, का मौसम आया ,
किस्तो में ,रिश्ते निभाने का ,
अनोखे वितीय  प्रस्ताओ,
की बहार है।

संसार रंगीन है ,
फिर भी कुछ लोग है ,
जो ग़मगीन है ,
तमाशबीन बन,
दूर खड़े धनतेरस में,
धन को तरश रहे है।

देश भी हमारा अनोखा है ,
अजूबो से पट्टा पड़ा है ,
कुछ है जिनके पास,
सब कुछ है ,सब ख़ुशी है।

कुछ है ,जो हमारे नजर में ,
आदमी ही   नहीं है ,
निरही , उदासीन , दुखी ,
जो वक्त के  बोझ तले दबे है ।

नौ लखा हार कहाँ ,
दो जून की रोटी नसीबी ,
एक त्यौहार है, उनका।
प्रदुषण , गंदगी , अराजकता से ,
रोज का दो चार है  इनका।

दोस्तों  , पर्व  धनतेरस का है  ,
आओ ,चल  चले ,
उजाला फ़ैलाने ,
कुछ अपनों को उठाये ,
नसीबी और खुसनसीबी ,
का दौर लाये ,और ,
गीरते  हुए  मानवीय ,
मूल्यों को और गिरने से बचाये।


पिकाचु


एक तितली : काली सी


शाम हो रही थी ,
लौट रहे थे लोग ,
घर की ओर।

सड़क पे चल रहा था  ,
पों-पों, चे -चे ,
का रेलम पेला।

होड़ लगी  थी ,
क्योंकि छूटे थे,
सब,एक साथ।

इत्मिनान से चल रहा था ,
एक शख्स और  एक बच्चा।
साथ उनके था एक संयोग ,
एक तितली , काली सी  ,
उड़ रही थी, बीचोबीच सड़क  ,
रिक्शा , गाड़ी , मोटर साथ।

गाड़ियों के रफ़्तार से ,
हवा  की नोक झोक से  ,
तितली उड़ती झोके से ,
कभी इधर , कभी उधर ,
हैरान -परेशान ,
जान जोखिम में डाल।

शख्स और बच्चा देख रहे सब ,
तितली का संघर्ष ,
मानव के गमनागमन के साधन  साथ।

तितली आस- पास चित्कारती ,
अनुनय -विनय करती,
शख्स और बच्चे के पास ,
ऐसा लगता, चंद लम्हे में  ,
काली सी  तितली मृत।

क्लिष्ट  ये क्षण ,
पुरुषत्व विहिन वह शख्स ,
मैं था ,
सोच रहा था ,
इस सोच के साथ
रेलम पेले के ,
पों-पों, चे -चे में ,
खो कर संवदेनहीन हो ,
मर गया था, हर शख्स।

पिकाचु

Tuesday, October 25, 2016

हाँ हाँ सब ठीक है


हाँ हाँ ठीक है ,
कहती है वह  ,
सहती है वह  ,
सबकुछ ,
फिर भी कहती है
हाँ हाँ सब ठीक है ।

वक्त बदला ,
लोग बदले ,
मौसम बदला ,
राज्य बदला ,
फिर भी कहती है
हाँ हाँ सब ठीक है ।

नये दौर का
नया फ़साना ,
नया तराना ,
नये फितूर के
नये  कानून ,
फिर भी कहती है
हाँ हाँ सब ठीक है ।

कानून सख्त हो चला ,
अर्थ प्रगतिशील हो चला ,
आवाम कछुए की चाल  भी न  चला ,
अब कहना होगा ,
कुछ भी न ठीक है ।


समय की पुकार है ,
आई नई  ब्यार है ,
शिक्षा की बहार है ,
फसल शिक्षा की बोना है ,
बेटियो को पढ़ाना है ,
समकक्ष उन्हें बनाना है ,
नारा ये लगाना है ,
उन्नति के साथ ,
बेटियो का विकास।

फिर कहेंगे सब साथ
हाँ हाँ सब ठीक है।



पिकाचु




Saturday, October 22, 2016

खोज रहा हू मौत , अभी मिला नहीं



मौत कब आती  है,  कब जाती है ,
खोज रहा हू , मिला नहीं।
अफ़सोस जब भी आती ,
बता के नहीं आती,
सिर्फ और सिर्फ ,
किसी को धीमे से हँसा जाती ,
किसी को गले तक रुला  जाती।
खोज रहा हू मौत ,  अभी मिला नहीं।
पता है तो रास्ता दिखा दो  सही।


मौत का इन्तेजार,  नहीं किसी को ,
भाग रहे है , पता नहीं ,
मरते है हम ,
बेमौत ही मौत के कई  लम्हे।
क्यों भाग रहे है फिर , पता नहीं।

खोज रहा हू मौत ,  अभी मिला नहीं।
पता है तो रास्ता दिखा दो,  सही।  ,

सुप्रभात की बेला में , शव वाहन था खड़ा ,
भीड़ थी उजले कपड़ो की ,
नर थे नारी थे , दूर खड़े थे सारे ,
खड़ा था एक वृद्ध , शव पेटी के साथ ,
कुछ खोया सा , कुछ रोया सा  ,
खड़ा हो गया मैं , ये देख ,क्योंकि ,
खोज रहा हू मौत ,  अभी मिला नहीं।


कैसी महिमा है , खुश है सारे ,
छोड़ उस वृद्ध को ,
लगता कोई उसका अपना खोया !
सोच रहा हूं , कौन है अपना ,
पास खड़े है बेटा -बेटी , कुनबा सारा ,
फिर कौन है अपना।
खोज रहा हू मौत ,  अभी मिला नहीं।


जीवन क्या , मैं भाग रहा था ,
सोच रहा था,  मैं था अपनों के बीच।
कौन है अपना , प्रश्न चिन्ह है।
जाते वक्त तो कोई साथ न है ,
फिर क्यों मोह माया , इन कुनबो पे ,
अंत होने पर, जब हाथ कुछ न होये।

विडम्बना देखो , मेहनत अपना ,
बाँट लिए  इन कुनबे वाले ,
कर्म -कुकर्म , छोड़ गए अपने मत्थे।
कब समझोगे , कब जागोगे  ,
बाँट तो जाओ कुछ -कुछ सबके हिस्से।

खोज रहा हू मौत ,  अभी मिला नहीं।
पता है तो, रास्ता दिखा दो  सही।

 पिकाचु





कौवा - काई


एक से है सब ,
दो आंखे , दो कान , एक मुँह,
फिर भी सोच अनेक।

कौवा - काई काले है।
करे कार्य उल्टा।
एक फिसलन रोके ,
दूजा सोच काली कर।
परत दर परत।
कोई सोच न आने दे।

लाभ हानि के खेल में ,
खेल रहे है सब।
पास खड़ा है कौन ,
भूल गए है सब।

टुटा सपना अपना ,
अपना हुआ पराया ,
धन की मंशा में अंश
भी अपभ्रंश  हुआ।
कहे ये सभ्यता , फिर  क्यों ,
सब सभ्रांत हुआ।

आधुनिकता के ग्राफ में ,
खोये अपने रिवायत ,
कुछ को कठोर इतना किया ,
कुछ को लुंज -पुंज सा छोड़ दिया।

नतीजा आज , सब खो दिया है ,
कट्टरता , संकीर्णता  और  मारकाट,
सभी की  बीज,
नवजात में भी हमने बो दिया है।
पूछे चिल्ला - चिल्ला  कर
ये आज का इंन्सा ,
रोते हुए इन नवजातों से ,'क्यों बेटा ,
बता तू हिन्दू, मुस्लिम या क्रिस्टन ,
कौन है भयो !


पिकाचु 



मोहब्बत ख़रीदे

मैंने मोहब्बत ख़रीदे ,
चंद खिलते हुए चेहरो के लिये।

साथ चाहा है ,
आप सभी का।
जब कभी भी ,
निजात मिल जाये,
अपनी लहराती हुई,
मोबाइल की ,  उंगलियो से।

बता देना तुम,
हमको भी  - उसको भी  ।
चल - चलेंगे।
टुटहा से जिंदगी में,
रौशनी और मोहबत के,
सतरंगी  दिये जलाने।


पिकाचु 











Friday, October 21, 2016

ऐबदार हम तुम


मोहब्बत पाक है।  
मोहबत बरकत है। 
मोहब्बत खुदा की इनायत  है।  

मोहब्बत  जब , जब  ,
बना   अलमस्त  ,
फकत  मोहिनी  का। 
तब - तब,
ऐबदार हम तुम।   

ऐब तो इन कातिल सी ,
हसीनो की फरेबी नजरो में है। 

कब पलकों से उठा कर,
चिलमन से गिरा देंगी ,
सितम दुनिया की ढा देंगी ,
इल्म इसका तो। 
न इनको भी है।
न तुमको भी है।  
न हमको भी है। 
न ज़माने को भी  है। 

बस इतनी सी इल्तेजा है , 
लिखते - लिखते,
न चलते - चलते  हो जाना ,
क्योंकि हसीनो  को 
इब्तिदा से ही ,
खुदा  की सबसे पहले रहमत है। 


  • पिकाचु 






Wednesday, October 19, 2016

बस एक आसरा


थका हु , हारा हू ,
नहीं मैं बेचारा हू।

जमी से आसमां तक
जहाँ तो मेरा है।
सितारों में भी मेरा,
जहाँ , बसाने  का इरादा है।

तिजारत की नहीं है मैंने ,
गमो से लड़ने का जज्बा है।


समां हमने जो बांधा है ,
इन्तेजार बस तेरा ही है।
इल्तेजा इतनी ही है मेरी ,
होश में तू आ जाये तो,
इबादत की इमारत को,
मोहब्बत का कहकशाँ
बनाने की ख्वाहिश है।


चाहत तू ही मेरी है ,
जिंदगी तू ही मेरी है।
पड़ा हु अर्श पे आज जो मैं ,
सितारों तक पहुँचने का
बस एक आसरा ,
 तू ही मेरी  है।


हौसले बुलंद  कर ,
अब बस  तुझे ,
पाने की ही  चाहत  है।
जमी का सीना चीर कर भी ,
तेरा दामन को जीत कर,
मुझे माजिद बनने की,
बस यही आखरी तमन्ना है।


 पिकाचु







Tuesday, October 18, 2016

आज कल जो समय बीत जाता है। वो कबि
वापस नहीं आता है।  अब उस बात को भूल
जाओ सोचो आगे क्या होने वाला है।  

Sunday, October 16, 2016

त्योहार

त्योहार:-

त्योहार का मौसम आया ,
बाजार पट चुका है  सौदों से ,
खरीदार पट पड़े है रस्तो पे ,
गलियो , दुकानों और इन्टरनेट पे।

त्योहार ढूंढ रहा हु मैं ,
सुन रखा  है , होता है ,
ये दिल दिमाग चाक  जिगर में।
बड़े , बूढ़े के आशीर्वादों में ,
बच्चो के खिलखिलाहट में।

आज तो त्योहार सौदों में है ,
लोगो के क्रय शक्ति में है
दुकानों के कोलाहल में है ,
प्रकृति के दोहन में है।

सुना था !
त्योहार तो प्यार है ,
परिवारों के मिलन  के
इजहार , इकरार और तकरार  है।

त्योहार तो बहता कलकल पानी है ,
दुख - सुख , सच्चाई - बुराई ,
एकजुट संयम एकता का प्रतीक है।

हाय ये क्या !
त्योहार तो अब सिर्फ दुकानों के
छूट के प्रस्तावो तक ही सीमित है।

त्योहार तो अब व्यापार  है ,
बेचने खरीदने का बिक्री प्रस्ताव है ,
भावशून्य भावहीन  बेजान धंधा है ,
मूल में छिपा जिसके ,
सिर्फ और सिर्फ चंद आकाओ का लाभ  है।

                                  " पिकाचू"






फरिश्तो के आतिश में

फरिश्तो के आतिश में ,
गमो का रकबा छोटा होता।

दिलो के मिलने से ,
जोड़ियों का  सितारों से  मिलन होता।

बुलंद होती जो किस्मत इस अंजुमन का,
मुफलिसी में मुरादी की  महसूली ,
का इरादा न होता।

प्रलुब्धा सी ये सहचरी  की ख्वाहिश,
न की होती जो मैंने।
निशाचर हो  मैं,
यू गुनगुनाता न, मैं होता।

फ़ना हो,  मैं  वजूद ,
मिटाने को यू आतुर
सितमजदा क्यों होता।
सहारा जो तेरा,
ऐ बेवफा होता ,
यू मैं कलम का सिपाही बन ,
न यू  आवारा होता।



Saturday, October 15, 2016

 एक ही भगवान है पर हम अलग नाम
से बुलाते है। हम ऐसा मानते है। तो
हम क्यो मानते है। तो धरती अलग है।
ऐसा हम मानते है। क्या फिर हम क्यो
मानते है।की भगवान अलग है।




लिखा है। प्रखर नै

आज हम कुछ और होते

आज हम कुछ और होते,
तुम भी कुछ और  होते,
अगर हम साथ होते।

साथ हमारा - तुम्हारा जो होता,
प्यार का तरन्नुम भी होता ,
जिंदगी का फसाना भी होता ,
साथ जो हम होते,
आज हम कुछ और होते
तुम भी कुछ और  होते।

यू भीड़ में खड़ा मैं ,
बिलकुल अकेला न होता  ,
खुद से अनजाना,
यू दीवाना सा न होता ,
साथ जो हम होते,
आज हम कुछ और होते
तुम भी कुछ और  होते।

ये मुनासिब तो नहीं,
यू मुनसिब के दरबार में,
तकरार जो है ,
साथ बैठ अगर हम,
गम हलक  कर लेते ,
आज हम कुछ और होते,
तुम भी कुछ और  होते।


पहचान तलाशते  हम ,
जो फिर रहे है ,
शहर द शहर ,
अपना भी ,
एक घरौंदा  होता,
साथ जो हम होते,
आज हम कुछ और होते
तुम भी कुछ और  होते।

*************

अकेला : भीड़ में खड़ा मैं

भीड़ में खड़ा मैं ,
बिलकुल अकेला ,
खुद से अनजान ,
खो गया ,
खुद की तलाश में ,
बेसुध हू पड़ा ,
मैं खुद की तलाश में।

तलाश,  क्या अब तो एक लाश हू ,
रौशनी की पराबैगनी किरणों ने,
यू जलाया और यू  सताया कि ,
ज्योति की तरंगो से छिपते,
भीड़ में खड़ा मैं ,
बिलकुल अकेला।

काश भीड़ में तू मेरे साथ,
हाथो में हाथ , हमदम सा ,
मेरा साथ देती जो  ,
आज हम कुछ और होते
तुम भी कुछ और  होते। 

सपने देखने की आदत


सपने देखने की आदत थी ,
हर गली , चाक  चौबारे पे ,
निकलती कोई भी किसी चौराहे से ,
सपना बना लेते हम उसे,
इशारे - इशारो  से।

हिदायत थी हम सभी  परवानो को  ,
भूल से भी कोई न काटना,  हमारे रास्तो को ,
भाभी जो तेरी बन गई थी वो सपनो में  ,
निभाना तो था ही, हकीकत में हम सभी अपनों को।

फितरत हमारी कैसे ये हो गई ,
सपनो में कई को उड़ा के ले गई।


मौजो के  मस्ती में डूबे थे हम सभी ,
बस वक़्त  न ठहरा , बढ़ चला।

परवानो के लौ कब बुझने को आये ,
ये तो हम देख न पाए।

हम तो वही है  यारो , चाक चौबारे पे ,
बच्चे खेला रहे है  , मामा बन,
तेरी -मेरी भाभियो के।











कोशिश करना

व्यक्ति से समाज ,
गुरु से ज्ञान ,
व्यव्हार से सम्मान ,
कर्तव्य  है प्रधान ,
सार है इस कवि का।

कोशिश करना ,
सीखना , समझना, पहचानना ,
हारा हु , फिर भी  हारने की चाहत है ,
खुशियाँ बिखेरने की रवायात ,
आधार है, मेरी छोटी सी इस जिंदगी का।



बंदिगी है परवरदिगार की ,
विरक्ति है धर्म के वहम से ,
लोभ है इंसानियत का ,
झोभ है,  नासमझी का ।

इन्तेजार है मुझे
सिर्फ उस यम का।
साथ ले जाने को बैठा मैं
क्रोध , काम , ईष्या ,
द्वेष  मोह -माया को ।

चलो चले मैं , तुम,  हम और  सभी ,
रुखसत करने उस द्वार तक ।
क्या साथ दे पाओगे, आप सभी !.

Friday, October 14, 2016

रिश्ते टूटते है , बिखरती है जिन्दगी


दीवाने को  दर्द का साथ  ,
प्रेमी को प्रेमिका का साथ ,
जिंदगी में हमदर्द का साथ ,
हर गुजरते  लम्हे में ,
किसी न किसी का साथ, न हो  ,
तो , हम भी अधूरे तुम भी अधूरे।

कागज के फूल ,
बिन सुगन्ध के साथ
बिकते है यहाँ।

रिश्ते टूटते है , बिखरती है जिन्दगी ,
समझ है फिर भी नासमझ बन क्यों ,
मेरे सनम, अपने अहम में ,
हमें क्यों उलझाती है जिंदगी।

साथ न अब हो पाओगी ,
दूर जाती हुई लहरो की तरह ,
छु कर निकल जाओगी।
पता है , पर खता क्या है !
हाँ , जो अंश है तुम्हारा ,
उसे क्या बता के जाओगी।

वक़्त है संभल जाओ ,ऐ मेरी जिंदगी,
छदम अहम  को हवा कर , हम-तुम।
अँधेरे से रास्ते को  कुछ खुशनमा सा  ,
बनाते है , ऐ मेरी जिंदगी।





ये चाहत


दीवाने की दीवानगी ,
कवि की रुमानियत ,
आशिक़ की बेकरारी ,
सभी का एक ही करार है ,
ये  चाहत।

चाहता हू मैं तुम्हे ,
चाहती हो तुम मुझे ,
सोचता हु मैं ये जो ,
खुद को कोसता हू मैं।

गैरत क्या बिकी  महबूबा तेरी,
हक़ीक़त को दुःस्वपन बनाया ,
दिल को यू सताया , कि लहू सख्त हो गया,
बर्फ सा सर्द , रंग लाल से सफ़ेद,
भावना बिखर सी गई, दुर्भावना घर कर गई।

आज कल न चाहत है तेरी , सिर्फ बददुआ है मेरी,
न तेरे लिए न मेरे लिए , बस सितमगर ज़माने के लिए।
    

Tuesday, October 11, 2016

कवि की कल्पना

कवि की कल्पना में ,
कवि की कविता में ,
कवि की रचना में ,
कवि और उसकी स्त्रीलिंग  ही है।

लोहे की स्त्री जब गर्म होती है ,
कपडे तब नर्म हो जाते है ,
आड़े ,तिरछे , कपडे की रेखाए ,
सीधी हो जाती है।

कवि  की स्त्री गर्म हो तो ,
कवि की कल्पना,  कविता तथा रचना ,
को ग्रहण लग जाता है।

कवि ही ऐसा व्यक्ति है ,
जो वीर रस , हास्य रस , शौर्य रस ,
कि परिकल्पना से दुनिया इधर से उधर करता है।
यथार्त में कवि के पास न वीरता , न शौर्यता ,  न हास्य , है ?.
बस और बस उसकी बेचारगी है।

*****************



काठ का मानव

कौन ,कहा है,
सच किधर  छिपा है ,
खोज रहे है बेसब्री से ,
हर डाल पर बैठा ,
ये काठ का मानव।


राम कहा है ,
खोज रहे है ,
आज तो भाई दशहरा है।


रावण , कुंम्भकर्ण , मेघनाद,
कि आज  खैर नहीं है।
ये कैसा भ्रम है ,
क्या काठ का मानव जाग उठा है ?.


सोई  है मानवता ,
दूर खड़ा जो राम यहाँ ,
देख के ये सोच रहे है ,
नंगे , भूखे , अगड़ा ,पिछड़ा ,
शोषित , कुपोषित , किन्तु करे उदघोषित ,
क्या यही है  राम - राज्य ?.


रावण ज्ञानी था ,
मार  गया उसे कैसे,
ये कुठारघात।

बस किया ये अज्ञान ,
मर्यादा जो लांघी ,
नारी  सम्मान की ,
स्वर्णिम लंका धू - धू कर ,
कालिख के करुणा से ,
अभिशापित कर ,
लील गया झीरसागर ने।


आज तो हर डाल पर बैठा है ,
रक्षक के भेष में ये भक्षक।
नाम क्या बताऊ ,
संतरी , मंत्री , राजा हो या रंक ,
सभी को मारा , बेशर्मी ने  डंक।


रामजी देखकर ये चले  वनवास,
ऐसी मानवता को नहीं जरुरत है ,
मर्यादा पुरषोत्तम राम का साथ।


Monday, October 10, 2016

खुदगर्ज प्रिय


देखा जो मैंने ,
कैसे ये तूने ,
बेचे ये गैरत।

सौदा जो  किसीका  ,
तुझको निभाना ही था।

मदहोश क्यों कर गए  ,
जब दूर जाना ही  था।

धोखा  जो देना  था ,
अपनी ख़ुशी के लिए,
मेरे खुदगर्ज  प्रिय
बताना था  पहले ,
मुहल्ले से मैं सारे ,
दो चार यार, यूँ ही ले आता।

जनाजे को तुम्हे कांधा ,
देनी की न आती, ये  नौबत ,
शिकायत , फिर ये  तेरी, न होती ,
चाक , चौबारे , मुहल्ले से ।

जनाजा जो तेरे दर से ,
उठता ये  मेरा ,
आहे ये मेरी,
सदा बतलाती ,
कातिल तू है मेरी।

सदाये ये मेरी ,
पीछे है तेरी ,
छोड़ेंगी न यूँ  ही।

आके जरा तुम ,
जनाजे को छू जाओ ,
मेरी मोहब्बत को
सदा के लिए ,
अमर करके
तुम चली जाओ।








Sunday, October 9, 2016

games

खेल--खेल  के होगया बोर अब तुम ही
बताओ आज हम क्या खैले आज है।
दिमाग सोच -सोच के की क्या खेलेंगे
जो खेलतै रोज़ ये खेल कर देते है।
अब तो नया गेम बनाओ। 

Saturday, October 8, 2016

कौन है फूल

सुबह सवेरे मैंने देखे दो फूल ,
सोच मेरी कही खो गई ,
पूछा खुद से, कौन है फूल ,

रंग बिरंगी ,सतरंगी , फूल ,
ठेले पर सजी , पानी सी कुछ भींगी ,
अपनी सुंदरता से मन को मोहे ,
खुसबू  दूर तल्क जिसके बिखेरे ,
आकर्षित हो , सब देखे,
सजे थे ऐसे  फूल।

फूलो को गूँथ रही थी ,
रंग बिरंगी अकारो व मालो में,
वो महिला।
पास खड़े थे ठुमक -ठुमक  करते ,
नंगे बदन , नंगे पैर  ,
दो छोटे  से उसके बच्चे।

फूलो के भक्त, कोई पण्डित , कोई ज्ञानी  ,
सभी सम्भ्रांत , समझ से परिपूर्ण ,
मोल -भाव करने में  तल्लीन ,
लेते चले जाते सूंदर से निर्जीव फूल ,

मैं क्या बोलू समझ न पाया ,
कौन है असली फूल ,
नंगे बदन ये बच्चे या ये  निर्जीव फूल।

मानव की सोच को कैसे  हो गया, ये पक्षघात ,
क्या यही है , वर्तमान का मानव विकास।

रौशनी -अफसाना क्यों बनाया

रचना लग रही है अधूरी ,
सोच साथ नहीं दे रही पूरी।

मौसम में कौन सा ब्यार आया ,
हवा हो गई सारी रूमानियत मेरी।

रौशनी तेरी चकाचौन्ध,  दीवाने को यू इतना सता रही है ,
बंद आँखों से अँधेरे में  तरासने को दिल हो आया है।

सजदे तेरे दीदार को अरसा  हो गया,
पिघले नहीं तुम,
बहने के जगह सर्द बर्फ हो गए।

प्यार ही तो था मेरा ,
अफसाना क्यों बनाया ,
कोई अपनी जात का मिल गया
तो बेगाना बना दिया।


नाराजगी इतनी भी तो न करो कि ,
नाम देख कर  अनजाने हो जाते हो ,
बेखुदी इतनी भी तो न करो ,
चार कंधे मेरे जनाजे को न मिल पाये।

माना की , तुम हमारे दर पे आये  थे कभी,
हमने सर आँखों पे बिठाया था कभी ,
आज वक्त ने तेरी जिंदगी में खुशिया भर दी,
तो बेवफा बन किस बात की सजा दे दी।
 
कब से तेरे दर पर  रहमोकरम को पड़े है,
यू बेरुखी से तो रुखसत न करो अपने दीवाने को ,
कुछ तो रहम करो  इस दीवाने  को।


वक्त की करवटे में , कब से वीराने में पड़े है ,
समय चला गया है मेरा , क्यों ये दिखने को हो।

आबाद होने को आये थे , बर्बादियों के मंजर में ,
जा क्यों फँसाया , ऐ मोहब्बत
दुश्मनी समझू या दोस्ती ,
ये बात समझ में न आया।



मरे हुए को कितनी मौत मरोगे ,
बेखुदी इतनी भी तो न करो ,
इस दीवाने से , दो गज जमीन भी ,
न नसीब हो इस दीवाने को।

माना की ज़माने में हुस्न का ही जलवा होता है ,
परवाने की  आग में जलने की ही सजा होती है।
बता देते है ये , राख हो जायेंगे ,
फिर भी हवा के झोके से ,
मिन्नतें कर , तेरे दर पर ही गिरेंगे।

Friday, October 7, 2016

नाम ही बचा जो हमसाया सा साथ चला ,

नाम ही  बचा जो हमसाया सा साथ चला ,
मृत्यु को भी झुठला ,
अचल , अमर , अविचल, निश्छल,
सदियो से , सदियो के बाद
सिकंदर , पोरस , पृथिवीराज सा,
चल -चला,बस साथ ही चला।

हम - तुम प्रण ये करे ,
निष्कपट , निश्छल ,
कर्तव्य,  कर्मयोगी सा ,
ओत प्रोत  हो ओज  से,
हम तुम सृष्टि का
नव निर्माण करे।
कटुता , कायरता , भूख का प्रतिकार कर
समरसता का नव-संचार करे।




जीवन की है तीन पूंजी


जीवन की  है तीन पूंजी ,
बचपन , जवानी और बुढ़ापा।
समझ के भी जो न समझा ,
वो तो हम , तुम और सब  सारे है।

समझ में जब मेरे आया ,
दुनिया ने समझा  नासमझ।  कहा !

साथ न चलो हमारे, हमें मंजूर है,
रौशनी और साज न बनो , हमें मंजूर है ,
क्यों विचारो से क़त्ल करते हो हमें ,
जंजीर तो मत बनो हमारे ,
ये हमें नामंजूर है ।

अँधेरे में रौशनी ढूंढना ,
आवाज में साज ढूढना ,
ओ मेरे ,सूरदास , बधीरदास ,
वक्त का तकाजा  समझो ,
अँधेरे में तीर, कभी खुद को चीर जाती है।






Wednesday, October 5, 2016

गुमसुम , गमजदा, बच्चे ,

चंचल मन ,कोमल सा ह्रदय ,
अटखेलिया , ठिठोलिया , नटखनापन
तभी तो होते है ये बच्चे ,

रोज सवेरे जाते ये बच्चे ,
बढ़ने और पढ़ने को स्कूल।

देखा जो मैंने आज इनको,
शांत थे सारे ,नहीं थी कोई आवाज
सोचा जो मैंने , ऐसा क्या हुआ ,
कैसे हो गए ये रातोरात, ये बड़े बच्चे।

सोचा जो मैंने ,क्या हुआ ऐसा ,
पूछा जो मैंने अपनेआप से ,
गुमसुम , गमजदा, बच्चे ,
युद्ध या स्कूल , कौन से ओर
ले चले हम इन माटी के कच्चे ,
दिल के सच्चे बच्चो को।

सोचा खुदा के बंदिगी के साथ ,
चले तो हम भी थे एक दिन ,
डगर में इतनी मोड़े थी ,
रास्ता जो भूले हम ,
फसल जो बोई है बैर की,
इम्तिहान है ये शर्मिंदिगी की।


फिर क्यों बनाये इन बच्चो को ,
गुमसुम , गमजदा, बच्चे।

Sunday, October 2, 2016

समझ नहीं आरहा भी अब तुम ही बताओ मेरे 
भाई सुज अब  दिमाग नहीं आरहा।  कूछ तुमा 
रे रास्ते मुजे भी बताओ ऐसे छुपाओ।
 मत
अब बताओ क्यो मुजसे मेतूम से बड़ा 
हूँ। तुमे मरी बात मानो तो मे तुमारी 
भी मनुआंग 
हो गया परेशान अब जीने दो खुल्के दिमाग मै 
ना आता है। कुछ नहीँ आता अब तुम ही बताओ
मेरी बहन भामनी तुमारे पास तो बोहोत आइडिया
होते है। उनमे से एक मुजे देदो फीर मे नहीं होएंगा
परेशान  









खत्म हुई कहानी की छाया सुरु हुई सूरज चाचू की माया जब रात हो                 प्रखर    
जाती है। तो सूरज चाचू गायब हो जाते सूरज चाचू के गायब होने
से चंदा मामा आते है। जब चंदा मामा आते है। तो बोहोत चमकते है।
दिन होने पर चंदा मामा गायब हो जाते फिर सूरज चाचू आजाते
है। 

Saturday, October 1, 2016

चंद्र की ज्योति


पूर्णिमा  की रात  को चंद्र के ज्योति से,
जो धरती पे ओज   छाता   है।
प्रेयसी का ह्रदय प्रीतम के संग पाने को प्यासा  हो जाता है।

चन्द्रमा ने ज्योति से बोला , क्यों रौशनी में ,
धरती से ये काले से धब्बे दिख रहे है।
ज्योति ने बोला,  चंद्र तू इतरा नहीं , ये इंसान के पदचिन्ह है।
थोड़े ही समय की बात है , चन्द्रमा पे इंसान उड़कर जो आ रहा है ,
चंद्र तेरा ये प्रकाश , छनभर की तो माया है ,
धरती की जो  चक्कर लगाई , सूर्य से जो मित्रता निभाई,
इंसान जो तेरे पास है , जल्द ही तेरा सर्वनाश है।

चंद्र ने ज्योति से बोला , चल -चले हम भाग  ,
जा छिपे पृथ्वी के ऐसे गर्भ में ,
इंसा का  जहाँ कभी न हो एहसास।
ज्योति तू बनके चंद्र की  संयोगिता ,
छोड़ कर चंद्रमा की इस सतह को ,
चल चले हम धरती के गर्भ में।
 ज्योति जो तेरा साथ है , धरती का गर्भ भी प्रकाशमय है।

चन्द्र का ये अँधेरा ,     सोख लेगा काले छिद्र सा,
इंसान की ये स्वछंदता  की कल्पना।

ज्योति बोली,  चंद्र मैं कर नहीं शक्ति हु ऐसा ,
जात -पात और धर्म की चक्रवह्यु  में
जा फँसी है चंद्र की ये  संयोगिता।
गुरुतवाकर्षण जो मेरा बाप बन बैठा है ,
मेरी विकीर्णता को झितिज से धरती के गर्भ में जाने न दे।
चंद्र अब कुछ बचा नहीं है , देख विनती है  ये अब ,
बस और बस  इंसान को तू  देख  आने दे।
और देख कोई गाँधी , मंडेला  या लिंकन  का पुनर्जन्म का कोई एहसास आने दे  ।