Tuesday, February 14, 2017

भगवन कितना कंद्रन करता

भगवन कितना परेशान होगा ,
मन ही मन , इंसान देख,
कंद्रन करता।

सृष्टि की रचना की मद में , भूल गया ,
भगवन अपना , साधुवाद की अमृतवाणी।

रचते रचते,  इतने इंसान ,शिथिल हो गया,
भगवन अपना।
मंद पड़ गयी , इसकी शिल्पशाला।

किट,  कीटाणु , खग या  खर ,
परिस्थिति परिवेश में पलते बढ़ते।
मिलजुल कर ये ताल तन्मयता से ,
धरती को धुरी धरा पे चलने  देते।

क्या सोचा था , नर नारी रचकर ,
सहज सुगमता की, अलाख जगेगी।

मन ही  मन  क्या सोच रहा है ,
कर्म किया है,  तो , भोग तू  भगवन।

इतने  मानव , कितनी मस्तिष्क ,
असंख्य सृजनशीलता , कब तक,
तू ,सहन करेगा।

कही लूट -  खसोट , कही झूठपाट  ,
कही ऊंच नीच  , कही भेद भाव।
राजनीति की इन दोधारी पाटो को ,
कौन रीत से विध्वंश करेगा।

समझ रहा हु ,पीड़ा  तेरी।
इंसान तेरा,  सर्वेसर्वा ,
अहम के,छद्मम में ,लील रहा है,
तेरी , पुण्य प्रताप की मायाजाल।

भगवन कितना निशब्द है ,
इंसान इसका  आज हैवान है।

पिकाचु

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