भगवन कितना परेशान होगा ,
मन ही मन , इंसान देख,
कंद्रन करता।
सृष्टि की रचना की मद में , भूल गया ,
भगवन अपना , साधुवाद की अमृतवाणी।
रचते रचते, इतने इंसान ,शिथिल हो गया,
भगवन अपना।
मंद पड़ गयी , इसकी शिल्पशाला।
किट, कीटाणु , खग या खर ,
परिस्थिति परिवेश में पलते बढ़ते।
मिलजुल कर ये ताल तन्मयता से ,
धरती को धुरी धरा पे चलने देते।
क्या सोचा था , नर नारी रचकर ,
सहज सुगमता की, अलाख जगेगी।
मन ही मन क्या सोच रहा है ,
कर्म किया है, तो , भोग तू भगवन।
इतने मानव , कितनी मस्तिष्क ,
असंख्य सृजनशीलता , कब तक,
तू ,सहन करेगा।
कही लूट - खसोट , कही झूठपाट ,
कही ऊंच नीच , कही भेद भाव।
राजनीति की इन दोधारी पाटो को ,
कौन रीत से विध्वंश करेगा।
समझ रहा हु ,पीड़ा तेरी।
इंसान तेरा, सर्वेसर्वा ,
अहम के,छद्मम में ,लील रहा है,
तेरी , पुण्य प्रताप की मायाजाल।
भगवन कितना निशब्द है ,
इंसान इसका आज हैवान है।
पिकाचु
मन ही मन , इंसान देख,
कंद्रन करता।
सृष्टि की रचना की मद में , भूल गया ,
भगवन अपना , साधुवाद की अमृतवाणी।
रचते रचते, इतने इंसान ,शिथिल हो गया,
भगवन अपना।
मंद पड़ गयी , इसकी शिल्पशाला।
किट, कीटाणु , खग या खर ,
परिस्थिति परिवेश में पलते बढ़ते।
मिलजुल कर ये ताल तन्मयता से ,
धरती को धुरी धरा पे चलने देते।
क्या सोचा था , नर नारी रचकर ,
सहज सुगमता की, अलाख जगेगी।
मन ही मन क्या सोच रहा है ,
कर्म किया है, तो , भोग तू भगवन।
इतने मानव , कितनी मस्तिष्क ,
असंख्य सृजनशीलता , कब तक,
तू ,सहन करेगा।
कही लूट - खसोट , कही झूठपाट ,
कही ऊंच नीच , कही भेद भाव।
राजनीति की इन दोधारी पाटो को ,
कौन रीत से विध्वंश करेगा।
समझ रहा हु ,पीड़ा तेरी।
इंसान तेरा, सर्वेसर्वा ,
अहम के,छद्मम में ,लील रहा है,
तेरी , पुण्य प्रताप की मायाजाल।
भगवन कितना निशब्द है ,
इंसान इसका आज हैवान है।
पिकाचु
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