अर्थ की प्रार्थना है , अनर्थ की प्रसाद है ,
जिंदगी अपनी तो , एक जीवंत अवसाद है।
गरीबी , लाचारी , हकीकत की ये बेचारगी ,
कौन जिन्दा ?
यहाँ सब मरे पड़े , इस मुफलिसी बेचारगी के मियाद में।
हाथ पे हाथ धरे बैठे है , काम की तलाश है ,
दिन में चाँद तारे देखते , राते बीते ,भूखे पेट।
मज़बूरी ,मुफलिशी , मुमकिन नहीं ये जिंदगी है।
खुदा भी बंद आंख , बंद कान कर,
न बताये, ये बंदिगी, ये आवारगी , क्यों कुछ ही करते।
करने की तमन्ना है , इरादा है , दिल नेक है ,
यकीन किसको , मिलती है सजा दौड़ने की,
हर भूख को , और भूख से ।
आज तो कोख चिपका गुजरता, कल तो निश्चित ही मरता।
शर्मिंदिगी भूल कर , वो दौड़ती भूख की इस होड़ में।
बहुत है ज्यादा , बहुत है कम , , सारे सपने है पराये।
समाज की ये निर्देशिका , बनाये क्यों ?
इस भ्र्म में हर वक्त, अवसान है, जिंदगी ,भूखी बेदम।
दौर ये शोर का है , सुन रहा खुदा भी नही ,
बिक गई है शोख़िया जिंदगी की ,पूंजी के बाजार में।
अठखेलिया ले रही है ,सड़क पे , हाथ फैलाये ,
भूखी जिंदगी मर रही , पूंजी तंत्र के गठजोड़ के, इस दौर में।
पिकचु
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