Wednesday, March 8, 2017

भूखी जिंदगी


अर्थ की प्रार्थना है , अनर्थ की प्रसाद है  ,
जिंदगी अपनी तो , एक जीवंत अवसाद है।

गरीबी , लाचारी , हकीकत की ये  बेचारगी  ,
कौन जिन्दा  ?
यहाँ सब मरे पड़े , इस  मुफलिसी बेचारगी के मियाद में।

हाथ पे हाथ धरे बैठे है , काम की तलाश है ,
दिन में चाँद तारे देखते , राते बीते ,भूखे पेट।

मज़बूरी ,मुफलिशी , मुमकिन नहीं ये जिंदगी है।
खुदा  भी बंद आंख , बंद कान कर,
न बताये, ये बंदिगी, ये  आवारगी , क्यों  कुछ ही करते।

करने की तमन्ना  है , इरादा है , दिल नेक है ,
यकीन किसको ,  मिलती है सजा दौड़ने की,
हर भूख को , और भूख से ।

आज तो कोख चिपका गुजरता, कल तो निश्चित  ही मरता।
शर्मिंदिगी भूल कर , वो  दौड़ती भूख की इस होड़ में।

बहुत है ज्यादा , बहुत है कम , , सारे सपने है पराये।
समाज की ये निर्देशिका , बनाये क्यों ?
इस भ्र्म में हर वक्त, अवसान  है, जिंदगी ,भूखी बेदम।

दौर ये शोर का है , सुन रहा खुदा भी  नही ,
बिक गई है शोख़िया जिंदगी की ,पूंजी के बाजार में।

अठखेलिया ले रही है ,सड़क पे , हाथ फैलाये ,
भूखी जिंदगी मर रही ,  पूंजी तंत्र के गठजोड़ के, इस दौर में।

पिकचु





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