Saturday, March 11, 2017

इंसान ये तेरा इतना , दिलचला है


ढनढन घर  में  ,
टाट का  पैबंद है।
ढकने को तन है ,
अर्थ के आभाव में ,
ठंडी गर्मी , बारिश ,
लिपलिपाते ही ,नंगे बदन है।

मजमून इतने तंगी में ,
कैसे इस अंजुमन में ,
इंसान ये तेरा इतना,
निहायत ही सभ्य है।  

घर है ,  घर के बाहर , एक गली है ,
टिप टिप सी  बारीश में,
खोजे है गली है या गड्ढा है।
ऐसे आसियाने में ,
कालिख में  रहते भी ,
कीचड़ के छिटो से ,बचते बचाते ,
ख्वाबो का कारवाँ उड़ाते ,
इंसान ये तेरा , पत्थर सा  अविचल  है।

मच्छर है , मक्खी है ,
कीड़े है, मकोड़े है,
धोखे है , मक्कारी है।
सियासत की पिचकारी से ,
इंसान , तेरे इस लश्कर को ही, नुकसान है ।

लेकिन किन्तु परंतु  या और भी उपमा है ,
इस बर्रे में भिनभिनाते,
हड़्ड़ो का सितमगर  काफिला है।
डगमग इस डगर पे , निश्चित ,
कुदरत की खुदाई का ही, ये  जलवा है ,
जो कि पल पल के बलवे  में भी ,
इंसान ये तेरा इतना , दिलचला है।

पिकचु




 



Wednesday, March 8, 2017

भूखी जिंदगी


अर्थ की प्रार्थना है , अनर्थ की प्रसाद है  ,
जिंदगी अपनी तो , एक जीवंत अवसाद है।

गरीबी , लाचारी , हकीकत की ये  बेचारगी  ,
कौन जिन्दा  ?
यहाँ सब मरे पड़े , इस  मुफलिसी बेचारगी के मियाद में।

हाथ पे हाथ धरे बैठे है , काम की तलाश है ,
दिन में चाँद तारे देखते , राते बीते ,भूखे पेट।

मज़बूरी ,मुफलिशी , मुमकिन नहीं ये जिंदगी है।
खुदा  भी बंद आंख , बंद कान कर,
न बताये, ये बंदिगी, ये  आवारगी , क्यों  कुछ ही करते।

करने की तमन्ना  है , इरादा है , दिल नेक है ,
यकीन किसको ,  मिलती है सजा दौड़ने की,
हर भूख को , और भूख से ।

आज तो कोख चिपका गुजरता, कल तो निश्चित  ही मरता।
शर्मिंदिगी भूल कर , वो  दौड़ती भूख की इस होड़ में।

बहुत है ज्यादा , बहुत है कम , , सारे सपने है पराये।
समाज की ये निर्देशिका , बनाये क्यों ?
इस भ्र्म में हर वक्त, अवसान  है, जिंदगी ,भूखी बेदम।

दौर ये शोर का है , सुन रहा खुदा भी  नही ,
बिक गई है शोख़िया जिंदगी की ,पूंजी के बाजार में।

अठखेलिया ले रही है ,सड़क पे , हाथ फैलाये ,
भूखी जिंदगी मर रही ,  पूंजी तंत्र के गठजोड़ के, इस दौर में।

पिकचु





Tuesday, March 7, 2017

शांति के नवसंचार को

सोच अपनी निःशब्द है , नीति  भी स्तब्ध है।
समाज में बचा कौन , व्यग्र है  सभी यहाँ ,
विकास की  इस राह में , सर्वत्र भस्मासुर यहाँ।

जवलन्त विषय ख़ामोश है ,दुराचार का संचार है।
पतन है व्यक्ति का , समाज का , नैतिक मूल्य का।
निज स्वार्थ में खोये आपा सब ,
सोचे कौन ,सब है  गौण।

वर्तमान अपना शून्य है ,
समाज  भी पूर्णरूपेण मूर्धन्य है।

हम कौन ,
रुग्ण है  , निष्प्राण है , एक अभिशाप है।
इस समाज के जीवंत, कोढ़ के प्रतिबिम्ब है।

विषय ,प्रसांगिकता ,अन्वेषण का ,पता नहीं ,
युद्ध  का अभिषेक कर, बस  लड़ पड़े  है।

चारो ओर हाहाकार है , विध्वंश  की चीत्कार है।
क्या सोच कर ,  प्रतिकार कर ,
सृष्टि का तिरस्कार कर,  क्यों चल पड़े है ,
अधीर बन ,सर्वविनाश को।

विराम क्यों है , ठहराव  क्यों है  ,यशस्वी हो ,
निकल  पड़ो , उत्थान की राह पर।

नवयुग का सूत्रपात्र कर , युगपरुष  बन ,
बस चल पड़ो शांति के नवसंचार को ।

पिकचु





ये जमी है अपनी हिंदोस्तान की ।



बसते  है, फरिश्ते हर डाल पर ,
कहते है हम इसे हिंदोस्तान।

मौसम है, जहाँ खुशनुमा ,
आबोहवा है ,यहाँ हर ओर जंवा, ये जमी  है अपनी हिंदोस्तान की ।


हर रात यहाँ  रौशनी ,  कातिल यहाँ कोई नहीं ,
सैयाद भी गाते जहा , प्यार  के  नगमें सदा।
कहते  है दुनिया में, अगर कोई जन्नत है कही ,
वो  जमी कोई और नहीं ,  वो हिन्दोस्तान है।


बहती है गंगा चतुरार्थ  की ,
खेतो  में है फसल पुरुसार्थ की।
क्या आदमी क्या जानवर ,
मिलजुलकर हर जीव जहाँ,
संबल देता अनेको अनुष्ठान की ,  ये जमी  है अपनी हिंदोस्तान की ।

वक्त की जहाँ पहचान है ,
संसार की हर जीव का जहाँ सम्मान है, वो  हिंदोस्तान है ।


हर सख्स यहाँ शहंशाह  है,
हर गुलिस्तां यहाँ गुलजार है  ,
हर पर्व  है यहाँ उल्लास का ,
हर पैगाम है यहाँ अमन  का  ,   ये जमी  है अपनी हिंदोस्तान की ।


पिकचु