हवा का रुख हम न भांप पाये ,
टूटते हुए घरो को हम न जोड़ पाये ,
कुछ करने की चाहत थी, मन में ,
दिल से जुबाँ पे चाहत ,तो ले आये ,
न जाने क्यों ,
बाजुओ में, वो हौसला न ला पाये।
वक्त के इस मंजर पे ,अभी जो तुम न सम्भल पाये ,
घुट घुट के मरोगे तुम।
जो कि , अपने बचेंगे कहाँ , तुम्हारे आसपास ,
उम्र के इस आखिरी पड़ाव पे।
समस्या है बड़ी ये ,
कौन है अपना इस अंतिम दौर में।
रातो नींद उड़ाई थी, जिस बबुआ के लिए ,
नासमझ, वो कमाने को ,
क्यों इतनी दूर निकल है, पड़ा।
पढ़ा है उम्र जीने का बढ़ गया है, दोस्त।
देखा है मौत और दूर थोड़ा चल गया है, दोस्त।
क्या फायदा , अपने जिसके लिए जिये थे, सदा,
वही हाथ छोड़.
किसी और के साथ , उसके घर चला गया है, सदा।
दोस्त , वो खुद को संभालेंगे कि,
गैर की मुसीबत को गले लगाएंगे।
वक्त है आदमी से इंसान तो बन जाओ ,
कब्र में चैन से सोने के लिए , कुछ भला तो कर जाओ।
पिकचु
No comments:
Post a Comment