Saturday, December 31, 2016

ये मौनव्रत , कब तक

मन की ज्वाला,  धधक रही है ,
मुँह की सिलन,  खटक रही है ,
जड़मत हो तुम, क्यों  शोषित होने,
अंदर अंदर  , क्यों सुलग रहे हो,
स्वयम्भू हो तुम , इंसान हो तुम ,
मौनव्रत ,  क्यों भोग रहे हो।

कष्ट झेल रहे हो,  तुम सदियो से,
आभाव तुम्हारा,
क्यों, जन्मसिद्ध अधिकार है।
तरस रहा हु मैं , सदियो से प्रतिकार को ,
ये मौनव्रत , कब तक।


मन , मष्तिक , इन्द्रिया , शाश्वत  क्यों ,
दीन , दरिद्र , निर्बल , जात पात , मजहब ,क्यों।
इंसान हो तुम , मुआ नहीं ,
गर्म  लहू है , सर्द नहीं है ,
धमनियों में प्रवाह, निरंतर।
फिर , सोच में तेरे ,
ये मौनव्रत , कब तक।

अधीर अग्र बन , झकझोर करो ,
मानव की ये , विषमता को,
ओ मौनी तुम अब  ध्वस्त  करो।
सब्र नहीं , अभ्यास नहीं , अब कोई जड़मत नहीं ,
वक्त की बेदी पर चढ़ने को ,
यहाँ कोई ,अब मौनव्रत नहीं।

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Friday, December 23, 2016

बाप रे बाप , क्या हो रहा है

बाप रे बाप , ये क्या हो रहा है ,
अपना काम खुद करो ,
बच्चे नहीं हो , अब हो बड़े ,
बाप का बोझ , कुछ तो ढो ,
समझा रहा था कौन ,
एक बाप , एक बेटे  को।

बाप रे बाप , ये क्या हो रहा है ,
वही बाप , गरजा ,
अपने बाप को।
बुढे हो, सठिया गये हो ,
खाना खाओ , जाकर  सो।

बाप रे बाप , क्या हो रहा है ,
बाप का बाप और  ,बेटा , बाप का  ,
कैसा  है  ये , खेला।
कौन है श्रवण , कौन है दुर्योधन ,
कौन है  धृतराष्ट्र , कौन है पितामह।
भैया ये तो ,
रफूचक्कर होते वक्त का खेल,
है सारा।


बाप रे बाप ,
किसे सुनाओ , किसे बताओ ,
घर घर की है यही कहानी।
नए वक्त की , नई रवानी ,
शून्यता , अधिरता के ,
है, ये पुजारी ।

बाप रे बाप ,
समझ से ही है , ढीठ है सारे ,
हर साख पे बैठा, है ,यहाँ  ,
इंटरनेट के ज्ञाता।

बकबक करते ये ,
काठ के लल्लू ,
बनते जैसे ,
विश्वकोश के प्रकांड पंड़ित।

बेटा , बाप , और बाप का बाप
किसने की है गलती भैया।
थानेदार जब है स्वार्थ है भैया।
भस्मासुर बन ये खेल रचाया।

मंझधार में फंसे है सारे ,
खोज रहे है केवट सारे।
बोल रहे है, सारे मिलकर ,
ये  अविश्वास के खेल में।
भैया ,
बाप रे बाप , क्या हो रहा है।

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Thursday, December 22, 2016

मेरा नाम शुमार नहीं

अरसा है, तरशा  हु ,
गमजदा  हो खुद में,
वर्षो से न  बरशा हु ।

छोड़ने ,तोड़ने ,मरोड़ने।
कि ख्वाहिश न  थी ,
बुत सा खडा ,
क्यों मैं , ऐ  खुदा,
झेलता ,
दावानल , मूषलाधर , विभीषिका।

एक दिन सब्र ने जवाब दी ,
पूछा , ऐ  खुदा, नेकबंद हु ,
फिर क्यों सजा दी।

नेमत क्या इतनी है ,
ऐ  खुदा,
जरा जरा मेरा ये ,
जमी में मिलने का इन्तेजार ही  ,
इनायत है आपका।


एक  गज जमीन की दरकार  नहीं ,
एक  दमड़ी की सरोकार नहीं ,
एक  इल्तेजा  है ,
क्या खता है कि ,
वक्त की  बुलंदियों में,
कभी मेरा नाम शुमार नहीं।

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Sunday, December 18, 2016

धीरे धीरे यू ही

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धीरे धीरे यू  ही ,
तुम लम्हो में ठहर जाते ,
रात यू ही तेरे यादो के ,
आगोश में ,यू ही, गुजर जाती।

यु ही देख रहा हु,
टक टकी लगाए  आसमां को ,
कही, किसी टूटते  तारे में ,
 तू , यू ही,  कही दिख जाये ।

पूछता हु , मैं, यु ही ,
ऐ , मेरे परवरदिगार ,
परीक्षा मेरी ही क्यों ?
साथ , यू ही ,
इस अप्सरा  देख ,
कही, तेरी नियत में तो खोट नहीं।

शिकायत नहीं , इल्तजा है ,
इन्तहा हद से न गुजर जाये ,
कि सब्र  की  बांध ,
यु ही, तेरे रहमोकरम के ,
इन्तेजार में  न टूट जाये।

आ ,अब तो यू ही ,
आगोश में समां जा ,
दिल के अरमान को ,
अपनी जन्नत तो ,
यू ही दिखा जा।


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Monday, December 12, 2016

काश ,मैं इंसानियत बसा होता

काश मैं होता खाश ,
जिंदगी में जब  होता ,
कोई संज्ञा , कोई क्रिया और,
एक विशेषण  का साथ।

काश किस्मत होती साथ ,
वक्त लिखता अपनी ,
दोनों  हाथो ,से एक साथ।

काश खेल में नहीं होते ,
इतने शह मात की  सांप सीढ़ी,
होता एक पाशा ,जिसकी संख्या,
काश हथेलियो की मुठीबन्द में,
मनमुताफिक रहता,  अपने पास ।


काश ,मैं एक बुत होता ,
काश मैं एक  संवेदना होता ,
काश , मैं ही मैं होता ,
तो क्या ,
जीत , हार , ख़ुशी ,
गम , धोखा , बेखुदी  नहीं होता।

काश  एक ऐसा जमी होता ,
जहाँ कोई कमी नहीं होता ,
जहाँ  मजहब , जात पात ,
या इंसान का रंग  नहीं होता
बस, इंसानियत  बसा  होता।

काश मेरी तलाश , में,
आपका साथ होता , तो
ये दुनिया सभी के लिए ,
खुशियो  का सौगात होता।

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Friday, December 9, 2016

आज का भस्मासुर

बेखुदी के बेफिक्री में,
लहू का कतरा कतरा,
मह के प्याले में ,डुबोकर ,
नशेमन के आगोश हो गए।

कैसा नशा , कैसा गम ,
ये कैसा रंग।
प्रत्येक  क्षण ,
नवीन दौर भ्रम का।

कौन कहे तू काहिल है ,
कौन कहे तू एक क्लेश है ,
कौन कहे तू ,समझ से परे,
इंसान या स्वयम्भू है ।
इतना तो कहु मैं ,
तू सर्वनाशी है।

इंसान तू क्या है ,
विपत्ति की एक आहट से ही ,
जज्बा ये काफूर , निःशक्त हो ,
बन जाता है ,सर्वेश से सर्वहारा तू ।

हँसते है सब , चलो एक पागल है ,
हँसता हु मैं ,
देख कैसी किश्ती के ,खेवैया है ,
उपभोग, सम्भोग के असीम सागर में ,
आतुर खड़ा है , खुदी के बच्चो को मिटाने ,
सर्वत्र ,ये आज का भस्मासुर , खड़ा है।

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छड़ी बन हम-तुम

लहर है लहर ,
प्यार तो तेरा,
था , एक जहर।

कहर है कहर ,
तेरी हुस्न का था  ,
ये कहर।

मौजू हु मैं ,
साहिल हु मैं ,
फाजिल हु मैं ,'
ये कैसी अहम में ,
घायल थे, हम।

ये ग्रहण था, कैसा।
हम तुम तो लड़ते ,
बुझा  दी जवानी ,
झुलसा दी रवानी ,
आबो हवा की , गर्मी  में क्यों।

चले हम तुम कब।
हाथो में हाथ ,
पाके मुहब्बत के ,
सच्चे जज्बे  के साथ।

कमर थी झुकी ,
नजर थी बुझी,
कोई न था जब।
तब  छड़ी बन हम-तुम,
हर वहम को मिटा,
हर अहम को हटा ,
चले एक दूजे  के हो ,
हर डगर पे साथ।

मुहब्बत का तराना,
गाते हुए ,
लहरो के सहारे,
डगमगाते हुए ,जिंदगी की ,
आखरी पड़ाव पे  ,
हर सितम को भुला ,
चले हम तुम साथ।
बस चले हम तुम साथ।

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दलान , आंगन , सिमटकर बिखर गई

हुआ करते थे , आज है नहीं ,
वक्त के अग्र वेग में , धूमिल है कई।
कभी जवान थे , कमाते थे ,
आज धूल खाती कुर्सियों में ,
करहाते से कातर ,
उनके  रामहोकरम को  पड़े है।


कभी घर की दलान थे हम ,
गूँजती थी कहकशो मेहमान की।
कभी घर की आँगन थे हम ,
तुलसी की सुगंध से  , गुलजार थे हम।


कौन से दौर में हम आकर ,कहा खो गए।
परिवार टूट कर कर बिखर गई ,
विश्वास तार तार हो बेजार हो गई ।

आज सूर्य भी गर्म हो ,
रौशनी की किरणों को कर रही ,
वस्त्रहीन शरीर के आरपार।

दूर हो गए  है सब ,
दलान , आंगन , सिमट कर ,
संकुचित हो गया कुछ वर्ग क्षेत्रफल में।

बाग कुछ गमलो में जा छिपा है ,
और मैं ,
लज्जित , प्रभावहीन , शर्मिंदा हो ,
बीती हुई वक्त के ,
गलतियों के बही खाता को   ,
अकेला झेलता खड़ा हूं।

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Wednesday, December 7, 2016

आधा रौशनी ,आधा अंधकार

आधा चंद्र , आधा पूर्णमासी ,
आधा अमावस्या ,
आधा रौशनी ,आधा अंधकार।
यही सत्य है।
तेरे मेरे हमारे जीवन का।

अँधेरा है , रौशनी के इन्तेजार में सभी खड़े।
विनती इतनी ,
भ्रम , विभ्रम , स्वार्थ  का त्याग कर ,
निःस्वार्थ भाव से ,
क्यों न ,
स्वयं का अभयदान कर , दिव्यता का उत्सर्जन करे।

ये समय चक्र कब तक ,
घुम रहे विभ्रम में सब ,
साथ  स्वस्थ शरीर,  तब तक।
फिर क्या।
वक्त है जाग , रच नयी सरंचना।
अभयदान नही है क्षमादान , प्रकृति मांगे अनन्योन्याश्रय।

निरंतरता की गतिशीलता , स्वयं ने खोकर।
उपभोग की स्थिलता का श्रृंगार कर ,
आनंदात की मादकता में लवलीन है।

त्रिष्कार कैसे  , अपकार क्यों  ,
उपकार कब , समझ नहीं।
अग्निहोत्र कर , आलसता में डूब गये  है।
क्या सरंचना , क्या उद्घोष ,
जलजले का आभास है।
फिर क्यों,
किस आनन्द की प्रतीक्षा में खड़े सब ।

क्यों ये सोच है, मेरी ।
क्यों उपहास को , मैं  खड़ा,
आधे रौशनी, आधे अंधकार के,
अर्ध सत्य में , अर्ध इन्सान बन खड़ा।

पिकाचु
 ,





Monday, December 5, 2016

व्यवस्था ही यम है

ठण्ड की ठिठुरन में ,
ठिठक ठिठक कर ,
टिक टिक करती समय।

घने कोहरे को चीरते आवाज आई।
घुप सा इंसान , असमंजस में पड़ा।
ठिठका , सोचा चलो कोई तो है।
आवाज पास आई ,
कहा चलो , चल चले ,
तेरा वक्त आ  गया , यम हु मैं।

सिहरन, कंपकपी , डर ,  फिर मैं निडर।
यम का ठिकाना , स्वर्ग , नर्क या धरती।
यम तो  मैं  हु, मेरी  काल यम नहीं, मैं हु।

मैं सोचा , यम मैं तो !
क्यों ठिठका , रुका , चरमराई व्यवस्था में।
जाना है मैं को ,
अविनाशी नहीं , फिर कौन सी व्यवस्था।

व्यवस्था ही यम है , अहम है , विनाशी है।
पश्चाताप , पछतावा , शोक , छोड़ ,
मैं की  जी और  मैं की रक्षा कर।

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Thursday, December 1, 2016

भ्रम छोड़ रण में


चक्र है अनमोल , भ्रम छोड़ ,
रण  में खड़ा है, रणवीर तू।
सुप्त , गुप्त , लुप्त , कौन ,
यौवन की शाश्वत  मोह माया ,
अभेद को भेद,  के चीर तू।

भोगी , मौनी , योगी ,
कौन  है  , ये भूल मत।
अधीर बन  रण क्षेत्र में  ,
तिलक कर, रणविजय  हो  ।

भेद तू चक्रवह्यु , रुक मत।
आगे बढ़ , ओ अभिमन्यु।
आगाज दे, आवाज कर ,
अचल , अमर , यशस्वी हो।


उठा पटक , लटक  ,झटक
विजयी बन, इन्हें ,फटक ।
आघात दे ओ वीर तू  ,
क्रोध , काम , स्वाद झटक  ,
अटक न मोह, माया  में।



विषम , परिस्थि  या विष भुजंग।
संघार कर, वीर है  , तू  रूद्र बन।
अश्वमेध कर , अभिषेक कर ,
कर्तव्य का प्रतियमान बन ।

निर्भीक  हो  ,
दहाड़ कर ,
चिंघाड़ कर
ललकार दे।
कौन रोके , कौन टोके ,
शत्रु का विनाश कर।

ओत -प्रोत हो ,
अपने  ओज को ,
गति दे ,
इष्ट , लक्ष्य  , अभिप्रेत  को।


सृष्टि को  उपकार दे ,
दुराचारी का शंघार हो  ,
धरती का उद्धार कर,
शांती के  प्रचार में  , ओ धरती पुत्र तू युद्ध का अभिषेक कर ।

पिकाचु




Wednesday, November 30, 2016

कल्पना हु मैं


कल्पना हु मैं , मेरे  दीवाने की ,
वर्तमान हु मैं, मेरे परवाने की।
हमसफ़र हु मैं , मेरे मेहमान की।

मल्हम हु मैं , मेरे  जख्म की,
साथी हु मैं , मेरे दुखते रग  की।

शमा हु मैं बुझती आशिक़ी  की ,
दरिया  हु मैं , फफकते लौ की।

अँधेरा  हु मैं  ,  अमावास की ,
रौशनी हु मैं , पूर्णिमा की।

चंदा हु मैं अपने चकोर की ,
मीरा हु मैं , मेरे कृष्ण की।
धरती हु मैं , मेरे अम्बर की।
मंजिल नहीं रास्ता हु मैं  , राही  का ,
बस एक साहिल हु, मैं तेरे भँवर का।


ढूंढता हु मैं किनारा , एक ऐसे  चमन का ,
जहाँ रिश्ता हो प्यार का , एकरार और मीठी तकरार का।
जहाँ पाने की सिवा खोने की चिंता न हो किसी मुसाफिर का।

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Monday, November 28, 2016

मैं , मैं , में ही खुद हु

मैं अम्बर हु ,
मैं धरती हु ,
मैं सृष्टि हु ,
मैं ब्रह्मा हु ,
फिर क्यों मैं ,
मैं , मैं , में ही खुद हु।

मेरी आशा ,
मेरी अभिलाषा ,
मेरी महत्वाकांछा ,
मेरी श्रेष्ठता की परिभाषा ,
मैं , मैं , मैं , में ही है ।

मेरी उमंग ,
मेरी तरंग ,
मेरी उड़ान ,
मेरी  अहम में।
भूल गया मैं,
मैं  मैं में ,
मैं तो एक हु ,एक अदना सा इंसान।

मैं की दोहन ,
मैं की विनाश ,
मैं की  विभित्सका के  ,
प्रारब्ध सोच  से ,
थर थर थर ,
काँप रहे है, हम -सब ।

मैं की चाल, एक  विनाशकाल है।
अवनि ,अम्बर का सुप्त काल  है।
फिर क्यों मैं ,
मैं , मैं , में ही खुद हु।

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Sunday, November 27, 2016

औ मौला :रहम कर

आज की रात , अमावस की रात ,
अँधेरा चौतरफा , आंखे फाड़े देख रहा।
इन्तेजार था मुझे , उस नूर का , जो ,
रौशनी हो रही है , आज  किसी और कि।

एक आशा मन में , कही अच्छाई मेरी  ,
कही किस्मत का साथ दे ,
तमन्ना दिल कि ,पूरी हो जाये।
थका , लुटा , पीटा , सोच रहा  ,
हारने का गम , या गम को हराने की ,
किस राह , इख़्तियार कर रही है जिंदगी।

मुकम्मल जहाँ नहीं , अपने ही सताते है ,
आसमान से अर्श तक  , गिरने ,गिराने का खेल ,
बेइंतहा खेलती है जिंदगी।
नाम क्या दे इस बेवफ़ा का ,
जात - पात  ,धर्म ,  अमीरी , गरीबी,
या वफ़ा की शुद्ध बेवफाई।

हम ही मिले थे उनको ,
इस खेल के मैदान में।
मेरे खुदा , कुफ्र का आलम ,
कि इंतहाई है ,
हम ही है  क्या , मुसीबतजदा  ,
तेरे बेरुखी के पैमाने में।

इजहार था , इकरार था ,
फिर क्यों ,
ये रार , है , औ मौला।
फरिश्ता नहीं  , इंसान हु ,
दर्द भी है , गरूर भी है।
औ मौला ,
बंद आँखों से न देख ,
दर पर  हू खड़ा  , कुछ रहम कर , कुछ रहम कर।

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जन जन को है बोध कराया


कौन है अपना , कौन है पराया ,
वक़्त ने  ऐसा फेर लगाया।

इंसान ने खुद ही खुद को ,
सृष्टि का भगवान, जो माना।
बाँट दिया है , काट दिया है ,
मानवता को तार तार किया है।

ऊपर निचे ,दाये बाये ,
आगे पीछे ,सभी दिशायें।
राजनीती  के  रंग महल से ,
हे  इंसान,
क्यों ऐसा ,कुठारघात किया है।

उल्टा पुल्टा , रंग बिरंगी ,
सतरंगी इंद्रधनुष  में।
क्यों , हे  इंसान,
विकृति , विभित्स विचार का,
महिमांडित उद्गार किया है।

जात - पात , ऊंच नीच।
धर्म अधर्म  के कुचक्र में। 
हम सबने तो खुद ही खुद से। 
रिश्तो को मंझधार में लाया।
परिपाटी को धूल चटाया।

समय ये ऐसा , आया है
हमने तुमने , सबने मिलकर।
आज ,
काला धन का  सम्मान किया है  ,
सज्जनता को बदनाम किया है ।

मैंने , तुमने ,हम , सबने,
जन जन को है  बोध कराया ,
मिथ्या , माया, धन की छाया ,
ही ,जीवन का अमिट सत्य है।

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Saturday, November 26, 2016

इरादा अब तो गढ़ ले तू

एहसास धड़कनो का ,
धड़कते दिल  में रहता है।

एहसासो की मायूसी में ,
हम तुम क्यों , यू ही ,
गीले शिकवे की नुमाईश,
भरी  मजलिश में करते है।

पता है तुमको जो  ,
इरादे ,ईमान के।
चंद सिक्को में ही,
इंसान के  आज  डोलते है।

रिश्तो की दरकने
की आवाजे ,
दिल के सुराखों से ,
निकलकर,
निर्बाध  हो ,
लबो की आहो से ,
आहिस्ता , आहिस्ता
एहसासों के टूटने का
इजहार करता  है।

एहसासों की तिजारत ,
हसीनो की वफाई है।

फिर क्यों ,
दीवानो ने सदियो से
अमिट  ये रीति ,
बना रखी है।
शारबो की महफ़िल में ,
गमो को हलक करना ,
क्यों जिंदगी का  मनोविनोद ,
बना रखा  है।

मायूसी में फसाने का,
सिरा पकड़ना ,
छोड़ के अब तुम।
उड़ने की तमन्ना,
जिगर में  पाल, ले,
अब  तू।

थपेड़ो से किनारा कर ,
प्रतिघात करने का ,
इरादा,
अब तो गढ़ ले तू।
अहसासों का साथ,
अब तो ,छोड़ दे तू।

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Friday, November 25, 2016

ओ यारा

अपना कौन , पराया कौन ,
यारा ,ये कैसा है,
दुनिया का वहम।

पल पल, रोता मन मेरा ,
साथ न तेरा , क्यों यारा।
शीतल है  तू ,ओ यारा।
प्यासा हु मैं , तेरा,
ओ यारा।

सुख दुख , मेरी तू यारा ,
जान भी मेरी, तू यारा।
खो गई क्यों , तू ,
ओ   यारा।


भूल क्या मेरा , ओ यारा।
पर्वत , नदिया , उड़ते पंछी ,
धरती- अम्बर  ,
अधूरा ,
क्यों तुम बिन ,
ओ   यारा।

भोलापन तेरा  देख ,
साथ तो चाहा  ,
ओ यारा।

निश्छल , क्या तुम ,
अविचल क्या तुम।
मोह माया में , खोकर
क्यों तुम  ।
साथ  न हो , ओ यारा।

पिकाचु

Wednesday, November 23, 2016

मैं दृढ़ हु


ये सच है , आज मैं परेशान हु ,
हैरान हु , जिंदगी से।




मैं परेशान हु , क्यों  रुका  हू।
वक्त , मौसम , महीने बदले।
जिंदगी यु ही , नाराज हो  दुखी  है।
मैं परेशान हु।

निर्जीव, जड़वत हु  क्या मैं ,
सजीव हु ,मैं परेशान हु।
स्थिर है जिंदगी , अधीर हु मैं ,
 सोचता हु की , मैं हु की नहीं।


मैं परेशान हु , मैं  विस्मित  हु।
आपत्ति है वक्त से,
क्यों अपमानित हु।
दुःख , व्यथा , क्लेश,
क्या इनसे ,
अपना जन्मो का नाता है।

मैं परेशान हु , क्यों  मैं तम हू।
मुस्कुराने को क्यों व्याकुल हु।
मैं इंसान हू , न कोई मिथ्या हू।
मैं परेशान हू ,
मैं नीति से चला , अब तू ही बता,
अवनति फिर क्यों साथ हो चला।

मैँ अविरल हु , मैं बहता हु ,
मैं , मैं ,में ही अब रहता हु।

दुःख सुख का सरोकार  नहीं ,
उचित अनुचित , विधि विधान,
अब इनका आधार नहीं।

मैं परेशान नहीं ,मैं दृढ़ हु।
मैं मुरीद हु , उस  प्रीत का,
जहाँ संगम हो विशुद्ध ,
प्यार का।

पिकाचु
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Tuesday, November 22, 2016

भीड़ में दौड़ लगी

भीड़ में दौड़ लगी ,
जमात है,
ऐसी  जनता जनार्दन  की ,
भूखे , अर्ध नग्न , शोषित , कुपोषित ,
नाच रहे है , पूंजीपति , नेताओ के ,'
वादे , शरारते , झूठ के पुलिंदों में।


यकीन हमें नहीं होता , करते है चर्चा परिचर्चा ,
क्या सोच की आयाम इतनी   विनयमित ,
भुखमरी ,
क्या , दृष्टिहीन इंसान पैदा करती।

कोशिश करो , कुछ भूखे रहो , गन्दी नाली ,
भिनभिनाते मछर , चिपके - पिचके
कुपोषित अमाशय के मध्य ।
संयोग नहीं ,  सम्भोग करो इनका।

भूल जाओगे तुम  ये आसय ,
क्या इतने असहाय भूख कर दे ?
यकीं के साथ तुम कहोगे ,
जागना है हमें  , इंसान हु ,
इंसान के लिए लड़ाई लड़नी है।

पूछता है तबका ये ,
कितने है साथ अपने ,
तुम हो या और भी कोई ,
एक अकेला कुछ नहीं।
शंखनाद , बिगुल का , बनाओ न शगल ,
मिट जाओगे , मिटा दिए जाओगे ,
रुको तुम बहो नहीं।

मेरी जमीर जागी नहीं, अभी भी एकाग्रता कैद है।
नहीं लड़ पाउँगा।
मोबाइल , वातानाकूलक , मोटर ,
लपटा , चिपटा हो इनसे शर्प सा  ,
क्यों विचार मेरे लापता हो रहे है ?
रुक नहीं सकता , विलासिता , यौन क्रिया ,
दहाड़ मारे,  शोषित होने बुला रही है।

मैं हु इस देश का माध्यम वर्ग , सड़ गया हू ।
निकलना है गर्त से।
इन्तेजार नहीं , वक्त नहीं ,धैर्य नहीं।
स्वयम का आधार बनाना है।
जागना है मुझे , तुम्हे  और सबको 
जगाने के लिए नहीं ,आगे की श्रृंखला के ,
सुखमय , स्वस्थ , स्वर्णिम भविष्य
के कोशिश , इन्तेजार और आगाज में।


पिकाचु








Monday, November 21, 2016

क्यों खेल रहे है ये मिलकर खेल

समुन्द्र ,में अशांत सी लहरो की थपेड़े ,
कभी ऊपर, कभी निचे ,
कभी दूर पटकती।
पल पल  गति ,
दिशा  परिवर्तित होती।
चुपके से एहसास कराती  ,
जीवन ऐसा ही है।
कुछ कहना मुश्किल है ,
जीवन तो खारा है , पीना भी मुश्किल है।

सूर्य , चन्द्रमा  दूर इतने है ,
गति निर्धारित कैसे  करते ।
विज्ञानं , ज्ञान  , या खेल है
धरती , सूर्य या चंद्र , का।
क्यों खेल रहे है ये मिलकर खेल  ,
पूर्णिमा , अमावयस्आ , ग्रहण का ।

रूचि , अभिरुचि, इक्छा , अनिक्छा ,
तेरा शून्य है क्यों अब।
श्वेत पत्र  की प्रतिक्छा ,  की अभिलाषा में ,
बैठा हु मैं।
आस मेरी है , क्यों नहीं पूरी होती।

हजारो कोशिश , लाख मिन्नतें , असंख्य स्तुति ,
ठोकर  कब तक   , वक्त मेरा क्यों नहीं  आता।
समझ नहीं सका , अब भ्रम में जीना नहीं भाता।

धोखा , फरेब , मतलबी , कुत्सित , विचार,
खून की घूंट नहीं पीना अब।
जाग  उठा हु , लहरे क्या है ,
समुन्द्र का सीना ,चिर चूका हु।
शोध , प्रतिशोध गूंज रहा है ,
जीवन सोचता मैं लहरो में ही खो सा गया है।

पिकाचु




Saturday, November 19, 2016

पगली सी है वो , हारा सा हु मैं

पगली सी  है वो  ,
उलझी से है वो ,
जिरह करती रहती है वो ,
वफ़ा भी है , बेवफा भी है वो ,
क्या बोलु ,
वो तो है ,
हमसाया , हमसफ़र मेरा।

कभी शाया  सी थी , आज छाया भी,
न है वो।
कभी अर्थ थी वो ,
आज अनर्थ है वो।
कैसी सुरूप  थी वो ,
आज निकृष्ट है वो।
कभी दिल के पास थी वो ,
आज इतनी दूर है वो।
कुछ अनकही से कहानी है वो ,
खोज रहा हु मैं वो , जो है , अपना हमसाया , हमसफ़र।

मिली है आज वो ,
कहती है चंचल से नयने उसकी ,
हारा सा हु मैं , जीती सी है वो।

ठगा सा  खड़ा हु ,
सोच रहा हू ,
प्यार के लिए ,प्यार में यू क्यों,
वक्त जाया किया।
छाया , माया , अर्थ , अनर्थ कि ,
चक्रव्यू में
जीवन को यूँ  ही ,
वो की चाह में, क्यों खो दिया।

पिकाचु



चलो मैं हारा , चलो तुम जीती


रिश्तो की ख्वाहिश , अनंतर बसी है ,
कुछ मेरे मन में , कुछ तेरे मन में।

चलो हम तुम ,
कुछ मुकम्मल  करते है,
इस प्रतिकूल में,कुछ अनुकूल करते है।

कुछ अभिनव , कुछ अद्भुत ,
चलो हम तुम, निर्विरोध हो,
कुछ नूतन सा  अफसाना ,
थोड़ा तुम , थोड़ा हम ,
चलो मिलकर, रचते है।

कुछ लम्हा पास,
हम -तुम ने बिताया ,
कुछ उसने रुलाया ,
कुछ हमने रुलाया ।
क्यों हम -दोनों ने  ही,
खुद को  यूँ ही, क्यों सताया।
समझती  नहीं वो ,समझता नहीं वो।
थोड़ा तुम समझो , थोड़ा मैं समझू।

पता है तुम्हे , पता है मुझे ,
नाराज हो  तुम  , नाराज हू मैं।
फिर भी ,
पास आने की चाहत में ,
यूँ ही आकुल , है क्यों।
थोड़ा हम, थोड़ा तुम।


कुछ तुम चलो , कुछ मैं चलू ,
कुछ मैं भूलू , कुछ तुम भूलो।
ऐसा कुछ कर,  हम दोनों,
क्यों न हम, ये  गम भूले।
जरा तुम सोचो , जरा मैं सोचु ,
क्यों न हम, ये अहम भूले।


कुछ मेरे मन में है , कुछ तेरे मन में है,
एक दोनों में , दोनों ही बसे है।
ये विनती है, हम तुम से,
चलो मैं हारा , चलो तुम जीती ,
जीवन के रस्ते में,
चलो साथ होकर , सबकुछ  भूलकर
थोड़ा हम चले , थोड़ा तुम चलो।

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Friday, November 18, 2016

दुख मिला ख़ुशी से


दुख मिला ख़ुशी से ,
झूम उठा ख़ुशी से।

रोता मिला हँसते से ,
हँसाते गया ज़माने से।

गम मिला शराब से ,
हलक हुआ है गले से।

प्रेयसी  मिले जो  प्रेमी से ,
अग्न बुझे  है  जिस्म से ।

नीति मिला राजनीति से ,
लिख दिया विधान को।

दोस्त मिला जो दोस्ती से ,
खो न देना दुश्मनी में।

आशिक़ मिला आशिक़ी से ,
बेशुद्ध हुआ है  खुदी से।

ज्योति मिली रवि से ,
दम्भित हुई है गर्व से।

कर्तव्य मिला योगी  से ,
कर्मठ  हो उठा, इंसान स्वयं से।

देश मिले है किस्मत से ,
खो न देना इसे वैमन्सय से।


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Monday, November 14, 2016

छोड़े जा रहा हु मैं


छोड़ दिया ,
अब मैंने उड़ने को सोचना।
छोड़ दिया ,
इतने बंदिशो में, जीने की आशा।

छोड़कर , जा रहा हु मैं ,
सियासत के मिथ्या, सियापा को।

छोड़कर,
चुपके से मैं , जा रहा हूं ,
उलझनों के पहेली से ,
न सुलझ कर , न उलझ कर।


छोड़कर ,
अविरल से बहते हुए, नयनो  को ,
खुद में ही खुद  को सिमटकर।
जा रहा हु मैं ,  जा रहा हु मैं।

छोड़कर ,
तुम्हे मैं , मुझे तुम ,
अहम के  खडाका में  ,
बखेड़ा , झमेला कर  ,
लोचा जो हमने ,
जो तुमने ,किया है ,
सभी छोड़े ,
जा रहा हु मैं ,  जा रहा हु मैं।

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Sunday, November 13, 2016

हरे ,लाल ,कागज


क्या लिखू , इस पल ,
तन्हा हु मैं , लिए
हाथ में  बस ,
चंद कागज के टुकड़े।

पागल  थी दुनिया ,
कुछ पल पहले ,
हरे ,लाल ,कागज के ,
टुकड़े के पीछे ।


तनहा है ये अब ,
पूछता है ये अब ,
घायल हु ,क्यों मैं ,
परेशान हु, क्यों  मैं
साथ क्यों नहीं कोई ,
सोचता हु मैं  अब।

मुरीद, सारे ,
जो थे हमारे ।
क्यों, एक पल में ,
हवा हो,  क्यों ,
रुखसत हो गये।

दिन तो बदलती है सबकी ,
हँसता हु मैं ,
रंगत बदलने में ,
मुझ सा,
सानी था,
न कोई।

इतराती थी ,
बलखाती थी,
आबो हवा में मेरे आने से,
सूरा और  शबाब ,
बदमस्त हो जाती  थी।

देखो कैसा ,
ये  वक़्त है ,
इंसां न कोई ,
हरे ,लाल ,कागज को ,
देखे, इसे अब।


किस्से थे मेरे  ,
जाने हर और कितने ,
बेचारे थे, हम तुम, इनके बिना।

ऐसा ये , देशकाल आया ,
देखो जरा आज , रुस्वा है सब ,
लाचार हो सब  ,
अपमानीत कर मुझे ,
क्यों ,
फेंके जा रहे है,
 नदी , नालो ,में अब ।

शोभा कभी था ,
आभा कभी था ,
उत्सव भी ,मैं था ,
सभी कुछ तो, था मैं ही।
क्यों डरते है आज ,
मुझसे सभी,  यू ही ।


रिश्ते , वफ़ा, नाते ,
ईशारो पे मेरे,
बिकते थे,  सब तो सारे।

कहु क्या, मैं इसको  ,
कहते है किस्मत ,
जो इसको।
कैसे बदल गई।
न तुम हो , न वो है।
बस तनहा हु  मैं ,
खड़ा हु मैं , खड़ा हु मैं।

पिकाचु

Friday, November 11, 2016

हर पल ,हर पथ , हर झन

बेपरवाह , बेख़ौफ़ , बेमिसाल ,
लुत्फ़ उठा रहे है ,
आज कल के सियासतदार।

रुतबा , रोब ,  रेशमी रुखसार ,
सभी कुछ ,
हथेलियों में कैद कर रखा है।

खुदावंद बन खुदसाख़्ता,
है, हर  चाल इनका ,
बचा ,क्या?
कुछ नहीं।
प्यादे है हम।

बेहाल हो रही जिंदगी।

संकुचन , ह्राष हो रहा है ,
मुद्रा , नीति , चरित्र ,
कचनार का।

व्यय क्या अपव्यय क्या।

स्वयम्भू के जय में,
सर्वत्र विनाशक की उद्घोष में ,
मानव निरंतर अवनति के ओर ,
हर पल ,हर पथ , हर झन ,
अग्रसर, अग्रसर , अग्रसर।


पिकाचु





लिखता हु मैं , दिखती है तू


लिखता हु मैं , दिखती है तू ,
तड़पता हु मैं , तड़पती है तू।
प्यार ये मेरा , सिर्फ है तेरा ,
समझता हु मैं , समझती है तू।

आज अधीर हो मैं , तरसता हु क्यों ,
मेरी नहीं तू , गैर की क्यों।
बताते तो पहले , ये लिखता नहीं मैं ,
तस्वीर हु मैं, मेरी छाया है तू।


जाने जहाँ , जाते हो जो ,
कसमे , वादे , वफ़ा तो,
अपने ये लेते , तो जाओ।
जा के ,कही  तुम इनको ,
दफना के आना।

प्यार तो , तेरा ये  मेरा,
है सदियो  पुराना।
अनुरोध है जो,  बस  इतना ही तुमसे  ,
भूल के भी , हम तुम  कभी  भी ।
मदमस्त, बेपरवाह होकर,
तकलुफ़ न कर  दे  ।

सोच उत्कर्ष का रखना हमेशा,  
भला हो तेरा भी - भला हो मेरा भी।
सदैव स्मृति  में ,
तुम ये  अपनी रखना।
जीवंत  है जब तक, इसी जहाँ में।
रहना मुझे भी , रहना तुम्हे भी ,


पिकाचु


Thursday, November 10, 2016

एक इंकलाब , सैलाब , और एक महात्मा


आधा सच , आधा झूठ  ,
आधा इकरार , आधा करार ,
यही तो सच है ,मेरे तेरे ,
सबकी रंग बदलती दुनिया की।


आधा प्यार  , आधा धोखा ,
आधा वफ़ा , आधा जफ़ा ,
आधा दूध  , आधा पानी ,
आधा शराब , खाली बोतल ,
पूरा सच ,
नाचती दुनिया,   पीछे इनके।


सत्य वचन , कही न सुना ,
झूठा वचन , हर से सुना।
निंदित वचन , स्तुति वंदन ,
वर्तमान युग , हिंसा का तांडव ,
मिथ्या माया ,सर्वस्व छाया।


विश्व में आतंक , वैमनस्य सर्वत्र ,
वैचारिक मतवेद ,थम गया वैश्विक चाल ,
राजनीती की चाल , आम आदमी बेहाल।
कटुता , कुटिलता , काम की अग्न ,
दफ़न हो रही  इंसानियत।
इन्तेजार बस एक  इंकलाब , सैलाब , और एक महात्मा का।


पिकाचु



मैं तो बूढा हो चला हूं


देखो, ये जहाँ वाले ,
मैं तो बूढा हो चला हूं ।

वक्त कब गुजरा ,
काले से सफ़ेद ,
रंग बालो का हो चला ,
चेहरे पे छाई रौनक ,
कब जंवा से हवा हुई।
देखो ये जहाँ वाले ,
मैं तो बूढा हो चला।


जब हम जंवा थे ,
हम तो फ़ना थे ,
कठिन रास्ते तो  ,
हमारा डगर था ,
हारने  या जितने का ,
हमें तो गम न था।

हौसले भी  उमंग थी ,
बाजुओ में भुजंग थी।

कदमो में हमारे जमी था ।
मुठी में हमारे  आसमां था ।
कहे क्या हम ,
फिजा भी तो इतना  रंगीन था।
वो क्या समय था , सब कुछ जंवा था।


आज क्या हो गया ,
कदम थम सा गया है ,
लहू क्यों जम  गया है ,
शरीर थिथिल  रोगमय है।
ये जमी क्या , ये आसमां क्या।
कही कुछ दिख रहा, नहीं ,
दोस्तों , अब तो मैं,
बूढ़ा हो गया हु।

उम्र अब मेरा, ये  बीत गया  है,
भजन कर,  प्रवचन कर ,
मोक्ष का  रास्ता ,
हम वृद्ध  ढूंढ रहे है।

करीबी ये,  रिश्ते ये, समाज ,
सभी तो हमारे ,
मृत्यु का बाट जोह रहे है।
अस्थियाँ तो  नदी में,
प्रवाहित कर ,वसीयत में,
लिपिबद्ध करने को ,
बच्चे हमारे  व्यग्र हो रहे है।

सब देख, ये मन,
दुखी सा हो गया है ,
दोस्तों , अब तो मैं,
बूढ़ा हो गया हु।

एक सुबह मैंने ,
प्रण ये लिया का ,
मन  अभी भी ,
जंवा है हमारा।

क्यों न  ऐसा,
हुनर हम सिखाये  ,
वृधो को भी स्वालंब बनाये।

नया फलसफा लिख कर ,
इस अंजुमन में ,
क्यों न , नया रास्ता ,
सभी को दिखाए, हम।

दोस्तों , लगता है अब, मैं ,
फिर जंवा हो गया हु ,
इस गुलिस्ता में ,
नए नज्म लिखने को,
मुकम्मल हो गया हु।

पिकाचु 

Sunday, November 6, 2016

कवि तो फकीरी है

पागल , दीवाना ,
तो हु मै ,
जो कविता  कर रहा हु ,
ठहरा हुआ,
तो हु मैं ,
तभी तो शब्दो  की,
आवारगी कर रहा,
हु , मैं।

मन में गुबार है ,
यही तो मेरी कविता  का आधार है।
इसके बिना मैं क्या ,
मेरा जीवन ही निराधार है।

आप चंद लोगो की,
शोहबत ही ,अच्छी है।
न जाने कवियों की,
तोहमत तो न अच्छी है।


कवि  तो फकीरी  है ,
भाग्यवाले को ही,
ये नसीबी है।
ये तो ईद की ईदी है,
पाक , पवित्र , खाविंदी है ,
नेमत है , इनायत है।
खुदा का , खुदा के बन्दों पर।


मत समझना ये ,
वक्त का , भाग्य का ,
दोष है।

ये तो टूटते हुए सितारों को ,
फिर से चमकने का पैगाम है।
ठहरे हुए पानी का,
बहने का आयाम है।
खुशहाल गाँवो में
बैसाखी , बिहू , ओणम ,
के त्यौहार में सबकी मुरादे
पूरी करने का स्वर्णिम आगाज  है।


पिकाचु

Saturday, November 5, 2016

हक़ीक़त

वो आज आई सवेरे ,
ख्वाबो में खयालो में ,
पूछा मैंने उससे , क्यों ,
हक़ीक़त में तनहा कर ,
ख्वाबो में रूबरू होते हो।

स्वप्निल सवेरा तो ,
खुदा की बंदिगी है।
इबादत है, रौशनी ,
उजाला है ओज का।

चण्ड , प्रचंड ,
होकर प्रखर तुम,
साहिल की तसवुर का ,
इरादा ,अपने  बाजुओ में ,
तू हमेशा  बुलंद  रख।


पैगाम हमारी ,
तो ये लेते जाओ।
गरूर गैर की बाहो का,
ये तो  अबस है।
इस निगाहबां का काबू तो  ,
जन्नत से जहनूम तक है।


एहसास का टुकड़ा ,
जो टूट कर बिखर गया है ,
बिसरने  का वक्त है।
गिर अगर गए तो
संभलने का वक्त है।

खो न देना बीतते,
हुए लम्हे ,
इस बेगैरत गम में ,
ऐ मेरे हमदर्द ,
तेरी कश्ती का किनारा,
अभी तो बहुत दूर है।


,पिकाचु





  • तसव्वुर= कल्पना, दिवास्वप्न, विचार
  • अबस= लाभहीन, बेकार, व्यर्थ, तुच्छ
  • निगाहबां= रक्षक, देख भाल करने वाला
  • क़ाबू= शक्ति, अधिकार, वश, पकड़
  • बादिया= उजाड़, मस्र्स्थल
  • तारीक= अन्धेरा, धुंधला
  • तर्स= भय, आंतक
  • तबाह= विनष्ट, बिगड़ा हुआ, बुरा, दुष्ट
  • अबस= लाभहीन, बेकार, व्यर्थ, तुच्छ
  • गु़बार= वाष्प, धुंध, फुहार, धूल, दु:ख

  • नादिम= लज्जाशील, नम्र, लज्जित
  • गऱूर= गर्व, घमंड
  • गै़र= अजनबी, परदेसी
  • पैगा़म= संदेश, समाचार, विमश
  • क़ाबू= शक्ति, अधिकार, वश, पकड़

क्या लिखू

क्या लिखू ,
तेरा नाम लिखू
कि ना लिखू।

तुझे नाम दू ,
या बदनाम करू।

कसमे वादे ,
याद  रखु ,
कि भूल जाऊ।

अब तू ही बता,
की मैं क्या लिखू।

प्यार की सदाये ,
या तेरी अदाये।
तू ही बता कि,
क्या याद रखु ,
और क्या बिसरू ।

रखने को संभाल कर ,
सब कुछ रखा है।
प्यार, वफ़ा
और तेरा ये  जफ़ा।
सभी है साथ ,
कही कोई  दूर नहीं।

मेरे नसीबी से
बदनसीबी कि ,
ये  कहानी
जुबानी याद है।
क्या लिखू ,
तेरा नाम लिखू
कि ना  लिखू।


जोश में हु ,
फिर क्यों ,
होश में हु।

क्यों सोच में हु?
गर तो  गहरा है।
प्यार तो मेरा ,
तेरी समझ में ,
थिथिल झील,
सा उथला है।

आबरू से बेआबरू
हो गया मैं ,
पूनम से अमावस
छा गया ये ,
फिर क्यों न  लिखू।


हमदम मेरे ,
प्यार तो तेरा
जुमा - जुमा है,
हमने तो हजारो लाखो में
तुम्हे चुना है।

प्यार तो पाक , पवित्र ,
दिल के तरंग और
नेक दिल उमंग है।
भवबंधन नहीं ,
दिलो का बंधन है,
अमरत्व का भवभंजन है।

तेरी समझ तो नहीं ,
मेरी समझ तो है।
वांछित नहीं ,
अवांछित हु मैं।
सोच रहा हु क्या लिखू।

बस प्यार तो,
मेरा तेरे लिए,
सदियो से सदियो तक,
अजर अमर कालातीत है।

तभी तो ,
मैं भी , तू भी  ,
सोच रहे।

क्या लिखू।
तेरा नाम लिखू
कि ना  लिखू।


पिकाचु




Thursday, November 3, 2016

एक रुमाल :एक रद्दी के टोकरी में

एक रुमाल थी,
एक हसीना की,
दीवाने के हाथो में।

शोख  सी हसीना ,
निर्दोष सा दीवाना ,
तन्हाई के आलम में ,
ग़मख़्याली के
जुगाली में लगे थे।

एक कप कॉफ़ी का ,
बड़े चाह से ,
लुत्फ़ उठाते थे।
दोनों जब कभी
रश्क कर जाती थी दुनिया।

आह निकले दीवाने की।
कभी ये हसीना  ,
अपनी लबो से चुम कर ,
ब्लैक कॉफी भी
मीठी  कर जाती  थी।

आज आलम यह है,
समा भी है, परवाना भी है ,
साथ में मीठी कॉफी भी है ,
न जाने  क्यों,
हसीना की इनायत जफ़ा है।

क्यों जुदा हो ,
सदा कर गई ,
दीवाने को।
हल ये दास्तान ,
किसको पता था ,
बस साथ था एक रुमाल ,
हसीना का,दीवाने के हाथो में।

बचा क्या था ,
अक्स , अफ़सोस या अलाप।
कॅपकॅपा रहा था , दीवाना,
ठण्ड या लथपथ पसीने से।
पास न था कोई,
हमसाथ था बस एक रुमाल।


हसीना का ये खबर,
एक  तमाचा था ,
अफ़सोस प्यार तो,
एक  तगादा था ,
बिक चूका है आज वह।
हसीना किसी और परवाने की
हूर हो रही है।


चाँद दिनों की मेहमान हू ,
अब मैं किसी और की जान हू।
दीवाना , बेगाना सा हुआ ,
बदहवास हो आग्रह किया ,
चलो भाग चले , कही और चले।

हसीनो का जलवा देखो ,
आग बबूला हो बोली ,
मोहब्बत तो ,
कुछ दिनों की सौगात है।
जीवन तो सुक़ून से बिताने दो
इज्जजत  परिवार की, निभानी दो ।


दीवाने के हाथो में रुमाल था ,
रोश में सोच न था।
बस संभाल कर रखा ,
वो रुमाल , सोचकर
किसी दिन हसीना का,
बहते हुए अक्स से गीली करेगा।

आज दीवाने के हाथो में ,
साथ रहता,जो हमसाये सा।
बटुए के एक कोने में,
न जाने वह रुमाल न था।


न जाने क्यों दीवाने ने ,
फ़ेंक दिया आज  ,
एक रुमाल को,
एक  रद्दी  के टोकरी में।
खास था वह लम्हा।


मैं ही वो दीवाना हु ,
आज खुद से खुद
पूछ रहा हू ,
क्यों फ़ेंक दिया,
उस , एक रुमाल को
एक , रद्दी  के टोकरी में।

पिकाचु


एक रुमाल :एक रद्दी के टोकरी में

एक रुमाल थी,
एक हसीना की,
दीवाने के हाथो में।

शोख  सी हसीना ,
निर्दोष सा दीवाना ,
तन्हाई के आलम में ,
ग़मख़्याली के
जुगाली में लगे थे।

एक कप कॉफ़ी का ,
बड़े चाह से ,
लुत्फ़ उठाते थे।
दोनों जब कभी
रश्क कर जाती थी दुनिया।

आह निकले दीवाने की।
कभी ये हसीना  ,
अपनी लबो से चुम कर ,
ब्लैक कॉफी भी
मीठी  कर जाती  थी।

आज आलम यह है,
समा भी है, परवाना भी है ,
साथ में मीठी कॉफी भी है ,
न जाने  क्यों,
हसीना की इनायत जफ़ा है।

क्यों जुदा हो ,
सदा कर गई ,
दीवाने को।
हल ये दास्तान ,
किसको पता था ,
बस साथ था एक रुमाल ,
हसीना का,दीवाने के हाथो में।

बचा क्या था ,
अक्स , अफ़सोस या अलाप।
कॅपकॅपा रहा था , दीवाना,
ठण्ड या लथपथ पसीने से।
पास न था कोई,
हमसाथ था बस एक रुमाल।


हसीना का ये खबर,
एक  तमाचा था ,
अफ़सोस प्यार तो,
एक  तगादा था ,
बिक चूका है आज वह।
हसीना किसी और परवाने की
हूर हो रही है।


चाँद दिनों की मेहमान हू ,
अब मैं किसी और की जान हू।
दीवाना , बेगाना सा हुआ ,
बदहवास हो आग्रह किया ,
चलो भाग चले , कही और चले।

हसीनो का जलवा देखो ,
आग बबूला हो बोली ,
मोहब्बत तो ,
कुछ दिनों की सौगात है।
जीवन तो सुक़ून से बिताने दो
इज्जजत  परिवार की, निभानी दो ।


दीवाने के हाथो में रुमाल था ,
रोश में सोच न था।
बस संभाल कर रखा ,
वो रुमाल , सोचकर
किसी दिन हसीना का,
बहते हुए अक्स से गीली करेगा।

आज दीवाने के हाथो में ,
साथ रहता,जो हमसाये सा।
बटुए के एक कोने में,
न जाने वह रुमाल न था।


न जाने क्यों दीवाने ने ,
फ़ेंक दिया आज  ,
एक रुमाल को,
एक  रद्दी  के टोकरी में।
खास था वह लम्हा!
मैं ही वो दीवाना हु ,
आज खुद से खुद
पूछ रहा हू ,
क्यों फ़ेंक दिया,
उस , एक रुमाल को
एक , रद्दी  के टोकरी में।

पिकाचु


एक रुमाल :एक रद्दी के टोकरी में

एक रुमाल थी,
एक हसीना की,
दीवाने के हाथो में।

शोख  सी हसीना ,
निर्दोष सा दीवाना ,
तन्हाई के आलम में ,
ग़मख़्याली के
जुगाली में लगे थे।

एक कप कॉफ़ी का ,
बड़े चाह से ,
लुत्फ़ उठाते थे।
दोनों जब कभी
रश्क कर जाती थी दुनिया।

आह निकले दीवाने की।
कभी ये हसीना  ,
अपनी लबो से चुम कर ,
ब्लैक कॉफी भी
मीठी  कर जाती  थी।

आज आलम यह है,
समा भी है, परवाना भी है ,
साथ में मीठी कॉफी भी है ,
न जाने  क्यों,
हसीना की इनायत जफ़ा है।

क्यों जुदा हो ,
सदा कर गई ,
दीवाने को।
हल ये दास्तान ,
किसको पता था ,
बस साथ था एक रुमाल ,
हसीना का,दीवाने के हाथो में।

बचा क्या था ,
अक्स , अफ़सोस या अलाप।
कॅपकॅपा रहा था , दीवाना,
ठण्ड या लथपथ पसीने से।
पास न था कोई,
हमसाथ था बस एक रुमाल।


हसीना का ये खबर,
एक  तमाचा था ,
अफ़सोस प्यार तो,
एक  तगादा था ,
बिक चूका है आज वह।
हसीना किसी और परवाने की
हूर हो रही है।  


चाँद दिनों की मेहमान हू ,
अब मैं किसी और की जान हू।
दीवाना , बेगाना सा हुआ ,
बदहवास हो आग्रह किया ,
चलो भाग चले , कही और चले।

हसीनो का जलवा देखो ,
आग बबूला हो बोली ,
मोहब्बत तो ,
कुछ दिनों की सौगात है।
जीवन तो सुक़ून से बिताने दो
इज्जजत  परिवार की, निभानी दो ।


दीवाने के हाथो में रुमाल था ,
रोश में सोच न था।
बस संभाल कर रखा ,
वो रुमाल , सोचकर
किसी दिन हसीना का,
बहते हुए अक्स से गीली करेगा।

आज दीवाने के हाथो में ,
साथ रहता , जो हमसाये सा ,
बटुए के एक कोने में।
न जाने वह रुमाल न था ,


न जाने क्यों दीवाने ने ,
फ़ेंक दिया आज  ,
एक रुमाल को,
एक  रद्दी  के टोकरी में।
खास था वह लम्हा!
मैं ही वो दीवाना हु ,
आज खुद से खुद
पूछ रहा हू ,
क्यों फ़ेंक दिया,
उस , एक रुमाल को
एक , रद्दी  के टोकरी में।

पिकाचु


Tuesday, November 1, 2016

ये चलती रेल


सटर, पटर, खटर
आवाज करती है ,
ये चलती  रेल।


ईटा , पत्थर, सीमेंट,
कल ,पुर्जे , कपडे, लते ,
ढोती, ये सरपट रेल।
,

मुसाफिर तो इसका  है ,
सारा देश,
जात - पात,   न
धर्म या भेष ,
कोई भेद न करती ,
ये चलती   रेल।  

सबका साथ - सबका विकास
आदर्शोक्ति है  ,
ये सरपट  रेल।
 
हवा के तेजी से दौड़ती है  ,
दूरियां छोटी करती है ,
हर कोने को जोड़ती है ,
ये चलती   रेल।    


कब, कैसे ,हो गया,  लक्ष्य ,
इसका मुनाफा-खाना !
क्यों नीति में राज -नीति ,
साधती आज ,
ये चलती रेल।


माना इमदाद  है,
साधारण दर्जे की,
आम आदमी की यात्रा।
फिर क्यों, बारबार टिकट
पर प्रदर्शित कर
हमें इमदादी बताकर ,
अपने  रहमदिली और
रहमोकरम का ढिंढोरा
बजाकर , खुद क्यों ?
रहनुमा बनती,
 ये चलती रेल।

क्यों खास, ये
धीरे धीरे  बनती ,
ये चलती रेल।

क्यों हमारी,
कमर तोड़ती ,
ये चलती रेल।

क्यों टिकट ,
कभी मिलते नहीं?
फिर भी वजीर साहेब ,
कभी बघारते, थकते नहीं ,
ये  चलती रेल।


क्यों , आधुनिकता के नाम पर,
गति , प्राद्योगिकी, निवेश को
तरसती ये चलती   रेल।

क्यों , निजीकरण के दौर में ,
समाजीकरण का शऊर
भूलती ,ये चलती रेल।

क्यों अवर होती जाती ,
हमारी ये चलती रेल।

आप क्यों नहीं बताते ,
कहा लिए जाते ,
हमारे ये चलती रेल।



पिकाचु
                         


इमदाद-  सब्सिडी मदद पाने वाला
इमामत-नेतृत्व



Friday, October 28, 2016

रिश्तो का त्यौहार



रिश्तो का त्यौहार

सुना कभी था ,
हमने - तुमने।
रिश्तो की गर्माहट ही
पर्व और त्यौहार है

सोच तो अपना,
हो गया बेगाना।

दादा - दादी,
नाना -नानी,
अब तो हो गए,
एक अफ़साने।

क्यों हम- क्यों हम
काका -काकी,
भैया - भाभी,
बड़े छोटे को,
भूल गए है।

जाना किनको,
इनसे मिंलने,
समय कहा है,
अपनों को।

 क्यों भौतिकवाद में ,
घुल - मिलकर,
रिश्तो का हम,
चूक चुके है।

परवाह किसे है ,
चाह किसे है ,
अपना कौन पराया है।

भूल गए,हम सब,
देखो , फिर भी हम,
रिश्तो की इस,
बंजर सी धरती पर ,
ये कैसा त्यौहार मना रहे है।

ये कैसा त्यौहार मना रहे है . .......
पिकाचु
 

रिश्तो की , बंजर धरती पर : पर्व और त्यौहार

पर्व और त्यौहार

सुना कभी था ,
हमने -तुमने।
रिश्तो की गर्माहट ही
पर्व और त्यौहार  है ।

पता नहीं क्यों ,
लुटे पिटे फिर हम,
ढूंढ रहे है खुशिया  ,
बाजारों में , अवहारो में।

सोच तो अपना,
हो गया बेगाना।

भौतिकवाद ने ,
कर अभिशापित।
देश को ऐसा ,
ग्रसित किया है।
सांस्कृतिक ,  मान मर्यादा,
को पूर्ण रूपेण से  ,
दिग्भ्रमित किया है ।

दादा - दादी ,
नाना -नानी ,
अब तो हो गए,
एक  अफ़साने।

जाना किनको,
इनसे मिंलने ,
समय कहा है,
अपनों को।

परिवार कहा है ,
सिमटा  है  जो ?
मम्मी -डैडी और बच्चो में!

क्यों हम , क्यों हम ,
काका -काकी ,
भैया - भाभी ,
बड़े छोटे को
भूल  गए है।

क्यों  भौतिकवाद में ,
घुल - मिलकर ,
रिश्तो का हम ,
चूक चुके  है।

परवाह किसे है ,
चाह किसे है ,
अपना कौन पराया है।

भूल गए, हम सब
पता नहीं ,
नियति की, ये कैसी  ,
अभिशापित माया है।

देखो , फिर भी हम  ,
रिश्तो की  इस ,
बंजर सी धरती पर ,
ये कैसा त्यौहार मना रहे है।  
ये कैसा त्यौहार मना रहे है. .......

पिकाचु






Thursday, October 27, 2016

एक मिनट रुकिए


एक मिनट रुकिए ,
आज तो पर्व है ,
धन का "धनतेरस"
कुबेर ने  खजाना खोल दिया,
लूट सके तो लूट लो ,
का ऑफर है ,
अवहार , उपहार, का मौसम आया ,
किस्तो में ,रिश्ते निभाने का ,
अनोखे वितीय  प्रस्ताओ,
की बहार है।

संसार रंगीन है ,
फिर भी कुछ लोग है ,
जो ग़मगीन है ,
तमाशबीन बन,
दूर खड़े धनतेरस में,
धन को तरश रहे है।

देश भी हमारा अनोखा है ,
अजूबो से पट्टा पड़ा है ,
कुछ है जिनके पास,
सब कुछ है ,सब ख़ुशी है।

कुछ है ,जो हमारे नजर में ,
आदमी ही   नहीं है ,
निरही , उदासीन , दुखी ,
जो वक्त के  बोझ तले दबे है ।

नौ लखा हार कहाँ ,
दो जून की रोटी नसीबी ,
एक त्यौहार है, उनका।
प्रदुषण , गंदगी , अराजकता से ,
रोज का दो चार है  इनका।

दोस्तों  , पर्व  धनतेरस का है  ,
आओ ,चल  चले ,
उजाला फ़ैलाने ,
कुछ अपनों को उठाये ,
नसीबी और खुसनसीबी ,
का दौर लाये ,और ,
गीरते  हुए  मानवीय ,
मूल्यों को और गिरने से बचाये।


पिकाचु


एक तितली : काली सी


शाम हो रही थी ,
लौट रहे थे लोग ,
घर की ओर।

सड़क पे चल रहा था  ,
पों-पों, चे -चे ,
का रेलम पेला।

होड़ लगी  थी ,
क्योंकि छूटे थे,
सब,एक साथ।

इत्मिनान से चल रहा था ,
एक शख्स और  एक बच्चा।
साथ उनके था एक संयोग ,
एक तितली , काली सी  ,
उड़ रही थी, बीचोबीच सड़क  ,
रिक्शा , गाड़ी , मोटर साथ।

गाड़ियों के रफ़्तार से ,
हवा  की नोक झोक से  ,
तितली उड़ती झोके से ,
कभी इधर , कभी उधर ,
हैरान -परेशान ,
जान जोखिम में डाल।

शख्स और बच्चा देख रहे सब ,
तितली का संघर्ष ,
मानव के गमनागमन के साधन  साथ।

तितली आस- पास चित्कारती ,
अनुनय -विनय करती,
शख्स और बच्चे के पास ,
ऐसा लगता, चंद लम्हे में  ,
काली सी  तितली मृत।

क्लिष्ट  ये क्षण ,
पुरुषत्व विहिन वह शख्स ,
मैं था ,
सोच रहा था ,
इस सोच के साथ
रेलम पेले के ,
पों-पों, चे -चे में ,
खो कर संवदेनहीन हो ,
मर गया था, हर शख्स।

पिकाचु

Tuesday, October 25, 2016

हाँ हाँ सब ठीक है


हाँ हाँ ठीक है ,
कहती है वह  ,
सहती है वह  ,
सबकुछ ,
फिर भी कहती है
हाँ हाँ सब ठीक है ।

वक्त बदला ,
लोग बदले ,
मौसम बदला ,
राज्य बदला ,
फिर भी कहती है
हाँ हाँ सब ठीक है ।

नये दौर का
नया फ़साना ,
नया तराना ,
नये फितूर के
नये  कानून ,
फिर भी कहती है
हाँ हाँ सब ठीक है ।

कानून सख्त हो चला ,
अर्थ प्रगतिशील हो चला ,
आवाम कछुए की चाल  भी न  चला ,
अब कहना होगा ,
कुछ भी न ठीक है ।


समय की पुकार है ,
आई नई  ब्यार है ,
शिक्षा की बहार है ,
फसल शिक्षा की बोना है ,
बेटियो को पढ़ाना है ,
समकक्ष उन्हें बनाना है ,
नारा ये लगाना है ,
उन्नति के साथ ,
बेटियो का विकास।

फिर कहेंगे सब साथ
हाँ हाँ सब ठीक है।



पिकाचु




Saturday, October 22, 2016

खोज रहा हू मौत , अभी मिला नहीं



मौत कब आती  है,  कब जाती है ,
खोज रहा हू , मिला नहीं।
अफ़सोस जब भी आती ,
बता के नहीं आती,
सिर्फ और सिर्फ ,
किसी को धीमे से हँसा जाती ,
किसी को गले तक रुला  जाती।
खोज रहा हू मौत ,  अभी मिला नहीं।
पता है तो रास्ता दिखा दो  सही।


मौत का इन्तेजार,  नहीं किसी को ,
भाग रहे है , पता नहीं ,
मरते है हम ,
बेमौत ही मौत के कई  लम्हे।
क्यों भाग रहे है फिर , पता नहीं।

खोज रहा हू मौत ,  अभी मिला नहीं।
पता है तो रास्ता दिखा दो,  सही।  ,

सुप्रभात की बेला में , शव वाहन था खड़ा ,
भीड़ थी उजले कपड़ो की ,
नर थे नारी थे , दूर खड़े थे सारे ,
खड़ा था एक वृद्ध , शव पेटी के साथ ,
कुछ खोया सा , कुछ रोया सा  ,
खड़ा हो गया मैं , ये देख ,क्योंकि ,
खोज रहा हू मौत ,  अभी मिला नहीं।


कैसी महिमा है , खुश है सारे ,
छोड़ उस वृद्ध को ,
लगता कोई उसका अपना खोया !
सोच रहा हूं , कौन है अपना ,
पास खड़े है बेटा -बेटी , कुनबा सारा ,
फिर कौन है अपना।
खोज रहा हू मौत ,  अभी मिला नहीं।


जीवन क्या , मैं भाग रहा था ,
सोच रहा था,  मैं था अपनों के बीच।
कौन है अपना , प्रश्न चिन्ह है।
जाते वक्त तो कोई साथ न है ,
फिर क्यों मोह माया , इन कुनबो पे ,
अंत होने पर, जब हाथ कुछ न होये।

विडम्बना देखो , मेहनत अपना ,
बाँट लिए  इन कुनबे वाले ,
कर्म -कुकर्म , छोड़ गए अपने मत्थे।
कब समझोगे , कब जागोगे  ,
बाँट तो जाओ कुछ -कुछ सबके हिस्से।

खोज रहा हू मौत ,  अभी मिला नहीं।
पता है तो, रास्ता दिखा दो  सही।

 पिकाचु





कौवा - काई


एक से है सब ,
दो आंखे , दो कान , एक मुँह,
फिर भी सोच अनेक।

कौवा - काई काले है।
करे कार्य उल्टा।
एक फिसलन रोके ,
दूजा सोच काली कर।
परत दर परत।
कोई सोच न आने दे।

लाभ हानि के खेल में ,
खेल रहे है सब।
पास खड़ा है कौन ,
भूल गए है सब।

टुटा सपना अपना ,
अपना हुआ पराया ,
धन की मंशा में अंश
भी अपभ्रंश  हुआ।
कहे ये सभ्यता , फिर  क्यों ,
सब सभ्रांत हुआ।

आधुनिकता के ग्राफ में ,
खोये अपने रिवायत ,
कुछ को कठोर इतना किया ,
कुछ को लुंज -पुंज सा छोड़ दिया।

नतीजा आज , सब खो दिया है ,
कट्टरता , संकीर्णता  और  मारकाट,
सभी की  बीज,
नवजात में भी हमने बो दिया है।
पूछे चिल्ला - चिल्ला  कर
ये आज का इंन्सा ,
रोते हुए इन नवजातों से ,'क्यों बेटा ,
बता तू हिन्दू, मुस्लिम या क्रिस्टन ,
कौन है भयो !


पिकाचु 



मोहब्बत ख़रीदे

मैंने मोहब्बत ख़रीदे ,
चंद खिलते हुए चेहरो के लिये।

साथ चाहा है ,
आप सभी का।
जब कभी भी ,
निजात मिल जाये,
अपनी लहराती हुई,
मोबाइल की ,  उंगलियो से।

बता देना तुम,
हमको भी  - उसको भी  ।
चल - चलेंगे।
टुटहा से जिंदगी में,
रौशनी और मोहबत के,
सतरंगी  दिये जलाने।


पिकाचु 











Friday, October 21, 2016

ऐबदार हम तुम


मोहब्बत पाक है।  
मोहबत बरकत है। 
मोहब्बत खुदा की इनायत  है।  

मोहब्बत  जब , जब  ,
बना   अलमस्त  ,
फकत  मोहिनी  का। 
तब - तब,
ऐबदार हम तुम।   

ऐब तो इन कातिल सी ,
हसीनो की फरेबी नजरो में है। 

कब पलकों से उठा कर,
चिलमन से गिरा देंगी ,
सितम दुनिया की ढा देंगी ,
इल्म इसका तो। 
न इनको भी है।
न तुमको भी है।  
न हमको भी है। 
न ज़माने को भी  है। 

बस इतनी सी इल्तेजा है , 
लिखते - लिखते,
न चलते - चलते  हो जाना ,
क्योंकि हसीनो  को 
इब्तिदा से ही ,
खुदा  की सबसे पहले रहमत है। 


  • पिकाचु 






Wednesday, October 19, 2016

बस एक आसरा


थका हु , हारा हू ,
नहीं मैं बेचारा हू।

जमी से आसमां तक
जहाँ तो मेरा है।
सितारों में भी मेरा,
जहाँ , बसाने  का इरादा है।

तिजारत की नहीं है मैंने ,
गमो से लड़ने का जज्बा है।


समां हमने जो बांधा है ,
इन्तेजार बस तेरा ही है।
इल्तेजा इतनी ही है मेरी ,
होश में तू आ जाये तो,
इबादत की इमारत को,
मोहब्बत का कहकशाँ
बनाने की ख्वाहिश है।


चाहत तू ही मेरी है ,
जिंदगी तू ही मेरी है।
पड़ा हु अर्श पे आज जो मैं ,
सितारों तक पहुँचने का
बस एक आसरा ,
 तू ही मेरी  है।


हौसले बुलंद  कर ,
अब बस  तुझे ,
पाने की ही  चाहत  है।
जमी का सीना चीर कर भी ,
तेरा दामन को जीत कर,
मुझे माजिद बनने की,
बस यही आखरी तमन्ना है।


 पिकाचु







Tuesday, October 18, 2016

आज कल जो समय बीत जाता है। वो कबि
वापस नहीं आता है।  अब उस बात को भूल
जाओ सोचो आगे क्या होने वाला है।  

Sunday, October 16, 2016

त्योहार

त्योहार:-

त्योहार का मौसम आया ,
बाजार पट चुका है  सौदों से ,
खरीदार पट पड़े है रस्तो पे ,
गलियो , दुकानों और इन्टरनेट पे।

त्योहार ढूंढ रहा हु मैं ,
सुन रखा  है , होता है ,
ये दिल दिमाग चाक  जिगर में।
बड़े , बूढ़े के आशीर्वादों में ,
बच्चो के खिलखिलाहट में।

आज तो त्योहार सौदों में है ,
लोगो के क्रय शक्ति में है
दुकानों के कोलाहल में है ,
प्रकृति के दोहन में है।

सुना था !
त्योहार तो प्यार है ,
परिवारों के मिलन  के
इजहार , इकरार और तकरार  है।

त्योहार तो बहता कलकल पानी है ,
दुख - सुख , सच्चाई - बुराई ,
एकजुट संयम एकता का प्रतीक है।

हाय ये क्या !
त्योहार तो अब सिर्फ दुकानों के
छूट के प्रस्तावो तक ही सीमित है।

त्योहार तो अब व्यापार  है ,
बेचने खरीदने का बिक्री प्रस्ताव है ,
भावशून्य भावहीन  बेजान धंधा है ,
मूल में छिपा जिसके ,
सिर्फ और सिर्फ चंद आकाओ का लाभ  है।

                                  " पिकाचू"






फरिश्तो के आतिश में

फरिश्तो के आतिश में ,
गमो का रकबा छोटा होता।

दिलो के मिलने से ,
जोड़ियों का  सितारों से  मिलन होता।

बुलंद होती जो किस्मत इस अंजुमन का,
मुफलिसी में मुरादी की  महसूली ,
का इरादा न होता।

प्रलुब्धा सी ये सहचरी  की ख्वाहिश,
न की होती जो मैंने।
निशाचर हो  मैं,
यू गुनगुनाता न, मैं होता।

फ़ना हो,  मैं  वजूद ,
मिटाने को यू आतुर
सितमजदा क्यों होता।
सहारा जो तेरा,
ऐ बेवफा होता ,
यू मैं कलम का सिपाही बन ,
न यू  आवारा होता।



Saturday, October 15, 2016

 एक ही भगवान है पर हम अलग नाम
से बुलाते है। हम ऐसा मानते है। तो
हम क्यो मानते है। तो धरती अलग है।
ऐसा हम मानते है। क्या फिर हम क्यो
मानते है।की भगवान अलग है।




लिखा है। प्रखर नै

आज हम कुछ और होते

आज हम कुछ और होते,
तुम भी कुछ और  होते,
अगर हम साथ होते।

साथ हमारा - तुम्हारा जो होता,
प्यार का तरन्नुम भी होता ,
जिंदगी का फसाना भी होता ,
साथ जो हम होते,
आज हम कुछ और होते
तुम भी कुछ और  होते।

यू भीड़ में खड़ा मैं ,
बिलकुल अकेला न होता  ,
खुद से अनजाना,
यू दीवाना सा न होता ,
साथ जो हम होते,
आज हम कुछ और होते
तुम भी कुछ और  होते।

ये मुनासिब तो नहीं,
यू मुनसिब के दरबार में,
तकरार जो है ,
साथ बैठ अगर हम,
गम हलक  कर लेते ,
आज हम कुछ और होते,
तुम भी कुछ और  होते।


पहचान तलाशते  हम ,
जो फिर रहे है ,
शहर द शहर ,
अपना भी ,
एक घरौंदा  होता,
साथ जो हम होते,
आज हम कुछ और होते
तुम भी कुछ और  होते।

*************

अकेला : भीड़ में खड़ा मैं

भीड़ में खड़ा मैं ,
बिलकुल अकेला ,
खुद से अनजान ,
खो गया ,
खुद की तलाश में ,
बेसुध हू पड़ा ,
मैं खुद की तलाश में।

तलाश,  क्या अब तो एक लाश हू ,
रौशनी की पराबैगनी किरणों ने,
यू जलाया और यू  सताया कि ,
ज्योति की तरंगो से छिपते,
भीड़ में खड़ा मैं ,
बिलकुल अकेला।

काश भीड़ में तू मेरे साथ,
हाथो में हाथ , हमदम सा ,
मेरा साथ देती जो  ,
आज हम कुछ और होते
तुम भी कुछ और  होते।