Wednesday, February 22, 2017

जमी पे बिखरा पत्ता

घूमते फिरते ,हिलते डुलते ,
सुबह सबेरे , की बेला में ,
सर्द मस्तिष्क में ,
रोधक अवरोधक ख्यालो का ,
माप बनाते ,  कितने दूर
गर्म लहू के लकीरो को ,
मन ये तेरा मेरा ,
क्यों  उकेरे जाते ।

फुदक रही गौरइया रानी  ,
कुते टप टप , लार टपकाते।
बंदर , मस्ती की उधम मचाता।

धमाचौकड़ी , पकड़म पकड़ी,
मधुरमय करती सूर्योदय की.
इस बेला को ।

गिरा  जो पत्ता , अपनी डाली से ,
सुर्ख समय से सूखता जाता।
टूटी पत्ती ,बिखरी जमी पे ,
कीट, पतंग, चट पट ,
कुतरती इनको।

जमी पे बिखरा , धूल  खाता ,
रंग विहीन, टुकड़ो में कुतरा ,
पड़ा ये  पत्ता  , आज ,
तलाश रहा है ,
मंजर अपना।

मानव अपना,
शून्य इन संयोगो से।
खाका बुनता ,  उठा पटक का,
दिल  में क्यों रखकर ,
अहम का कोलाहल।

पिकचु






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