घूमते फिरते ,हिलते डुलते ,
सुबह सबेरे , की बेला में ,
सर्द मस्तिष्क में ,
रोधक अवरोधक ख्यालो का ,
माप बनाते , कितने दूर
गर्म लहू के लकीरो को ,
मन ये तेरा मेरा ,
क्यों उकेरे जाते ।
फुदक रही गौरइया रानी ,
कुते टप टप , लार टपकाते।
बंदर , मस्ती की उधम मचाता।
धमाचौकड़ी , पकड़म पकड़ी,
मधुरमय करती सूर्योदय की.
इस बेला को ।
गिरा जो पत्ता , अपनी डाली से ,
सुर्ख समय से सूखता जाता।
टूटी पत्ती ,बिखरी जमी पे ,
कीट, पतंग, चट पट ,
कुतरती इनको।
जमी पे बिखरा , धूल खाता ,
रंग विहीन, टुकड़ो में कुतरा ,
पड़ा ये पत्ता , आज ,
तलाश रहा है ,
मंजर अपना।
मानव अपना,
शून्य इन संयोगो से।
खाका बुनता , उठा पटक का,
दिल में क्यों रखकर ,
अहम का कोलाहल।
पिकचु
सुबह सबेरे , की बेला में ,
सर्द मस्तिष्क में ,
रोधक अवरोधक ख्यालो का ,
माप बनाते , कितने दूर
गर्म लहू के लकीरो को ,
मन ये तेरा मेरा ,
क्यों उकेरे जाते ।
फुदक रही गौरइया रानी ,
कुते टप टप , लार टपकाते।
बंदर , मस्ती की उधम मचाता।
धमाचौकड़ी , पकड़म पकड़ी,
मधुरमय करती सूर्योदय की.
इस बेला को ।
गिरा जो पत्ता , अपनी डाली से ,
सुर्ख समय से सूखता जाता।
टूटी पत्ती ,बिखरी जमी पे ,
कीट, पतंग, चट पट ,
कुतरती इनको।
जमी पे बिखरा , धूल खाता ,
रंग विहीन, टुकड़ो में कुतरा ,
पड़ा ये पत्ता , आज ,
तलाश रहा है ,
मंजर अपना।
मानव अपना,
शून्य इन संयोगो से।
खाका बुनता , उठा पटक का,
दिल में क्यों रखकर ,
अहम का कोलाहल।
पिकचु
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