सोच अपनी निःशब्द है , नीति भी स्तब्ध है।
समाज में बचा कौन , व्यग्र है सभी यहाँ ,
विकास की इस राह में , सर्वत्र भस्मासुर यहाँ।
जवलन्त विषय ख़ामोश है ,दुराचार का संचार है।
पतन है व्यक्ति का , समाज का , नैतिक मूल्य का।
निज स्वार्थ में खोये आपा सब ,
सोचे कौन ,सब है गौण।
वर्तमान अपना शून्य है ,
समाज भी पूर्णरूपेण मूर्धन्य है।
हम कौन ,
रुग्ण है , निष्प्राण है , एक अभिशाप है।
इस समाज के जीवंत, कोढ़ के प्रतिबिम्ब है।
विषय ,प्रसांगिकता ,अन्वेषण का ,पता नहीं ,
युद्ध का अभिषेक कर, बस लड़ पड़े है।
चारो ओर हाहाकार है , विध्वंश की चीत्कार है।
क्या सोच कर , प्रतिकार कर ,
सृष्टि का तिरस्कार कर, क्यों चल पड़े है ,
अधीर बन ,सर्वविनाश को।
विराम क्यों है , ठहराव क्यों है ,यशस्वी हो ,
निकल पड़ो , उत्थान की राह पर।
नवयुग का सूत्रपात्र कर , युगपरुष बन ,
बस चल पड़ो शांति के नवसंचार को ।
पिकचु
समाज में बचा कौन , व्यग्र है सभी यहाँ ,
विकास की इस राह में , सर्वत्र भस्मासुर यहाँ।
जवलन्त विषय ख़ामोश है ,दुराचार का संचार है।
पतन है व्यक्ति का , समाज का , नैतिक मूल्य का।
निज स्वार्थ में खोये आपा सब ,
सोचे कौन ,सब है गौण।
वर्तमान अपना शून्य है ,
समाज भी पूर्णरूपेण मूर्धन्य है।
रुग्ण है , निष्प्राण है , एक अभिशाप है।
इस समाज के जीवंत, कोढ़ के प्रतिबिम्ब है।
विषय ,प्रसांगिकता ,अन्वेषण का ,पता नहीं ,
युद्ध का अभिषेक कर, बस लड़ पड़े है।
चारो ओर हाहाकार है , विध्वंश की चीत्कार है।
क्या सोच कर , प्रतिकार कर ,
सृष्टि का तिरस्कार कर, क्यों चल पड़े है ,
अधीर बन ,सर्वविनाश को।
विराम क्यों है , ठहराव क्यों है ,यशस्वी हो ,
निकल पड़ो , उत्थान की राह पर।
नवयुग का सूत्रपात्र कर , युगपरुष बन ,
बस चल पड़ो शांति के नवसंचार को ।
पिकचु
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