Tuesday, March 7, 2017

शांति के नवसंचार को

सोच अपनी निःशब्द है , नीति  भी स्तब्ध है।
समाज में बचा कौन , व्यग्र है  सभी यहाँ ,
विकास की  इस राह में , सर्वत्र भस्मासुर यहाँ।

जवलन्त विषय ख़ामोश है ,दुराचार का संचार है।
पतन है व्यक्ति का , समाज का , नैतिक मूल्य का।
निज स्वार्थ में खोये आपा सब ,
सोचे कौन ,सब है  गौण।

वर्तमान अपना शून्य है ,
समाज  भी पूर्णरूपेण मूर्धन्य है।

हम कौन ,
रुग्ण है  , निष्प्राण है , एक अभिशाप है।
इस समाज के जीवंत, कोढ़ के प्रतिबिम्ब है।

विषय ,प्रसांगिकता ,अन्वेषण का ,पता नहीं ,
युद्ध  का अभिषेक कर, बस  लड़ पड़े  है।

चारो ओर हाहाकार है , विध्वंश  की चीत्कार है।
क्या सोच कर ,  प्रतिकार कर ,
सृष्टि का तिरस्कार कर,  क्यों चल पड़े है ,
अधीर बन ,सर्वविनाश को।

विराम क्यों है , ठहराव  क्यों है  ,यशस्वी हो ,
निकल  पड़ो , उत्थान की राह पर।

नवयुग का सूत्रपात्र कर , युगपरुष  बन ,
बस चल पड़ो शांति के नवसंचार को ।

पिकचु





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