Friday, December 9, 2016

आज का भस्मासुर

बेखुदी के बेफिक्री में,
लहू का कतरा कतरा,
मह के प्याले में ,डुबोकर ,
नशेमन के आगोश हो गए।

कैसा नशा , कैसा गम ,
ये कैसा रंग।
प्रत्येक  क्षण ,
नवीन दौर भ्रम का।

कौन कहे तू काहिल है ,
कौन कहे तू एक क्लेश है ,
कौन कहे तू ,समझ से परे,
इंसान या स्वयम्भू है ।
इतना तो कहु मैं ,
तू सर्वनाशी है।

इंसान तू क्या है ,
विपत्ति की एक आहट से ही ,
जज्बा ये काफूर , निःशक्त हो ,
बन जाता है ,सर्वेश से सर्वहारा तू ।

हँसते है सब , चलो एक पागल है ,
हँसता हु मैं ,
देख कैसी किश्ती के ,खेवैया है ,
उपभोग, सम्भोग के असीम सागर में ,
आतुर खड़ा है , खुदी के बच्चो को मिटाने ,
सर्वत्र ,ये आज का भस्मासुर , खड़ा है।

पिकाचु






 

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