Monday, November 21, 2016

क्यों खेल रहे है ये मिलकर खेल

समुन्द्र ,में अशांत सी लहरो की थपेड़े ,
कभी ऊपर, कभी निचे ,
कभी दूर पटकती।
पल पल  गति ,
दिशा  परिवर्तित होती।
चुपके से एहसास कराती  ,
जीवन ऐसा ही है।
कुछ कहना मुश्किल है ,
जीवन तो खारा है , पीना भी मुश्किल है।

सूर्य , चन्द्रमा  दूर इतने है ,
गति निर्धारित कैसे  करते ।
विज्ञानं , ज्ञान  , या खेल है
धरती , सूर्य या चंद्र , का।
क्यों खेल रहे है ये मिलकर खेल  ,
पूर्णिमा , अमावयस्आ , ग्रहण का ।

रूचि , अभिरुचि, इक्छा , अनिक्छा ,
तेरा शून्य है क्यों अब।
श्वेत पत्र  की प्रतिक्छा ,  की अभिलाषा में ,
बैठा हु मैं।
आस मेरी है , क्यों नहीं पूरी होती।

हजारो कोशिश , लाख मिन्नतें , असंख्य स्तुति ,
ठोकर  कब तक   , वक्त मेरा क्यों नहीं  आता।
समझ नहीं सका , अब भ्रम में जीना नहीं भाता।

धोखा , फरेब , मतलबी , कुत्सित , विचार,
खून की घूंट नहीं पीना अब।
जाग  उठा हु , लहरे क्या है ,
समुन्द्र का सीना ,चिर चूका हु।
शोध , प्रतिशोध गूंज रहा है ,
जीवन सोचता मैं लहरो में ही खो सा गया है।

पिकाचु




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