Saturday, November 19, 2016

पगली सी है वो , हारा सा हु मैं

पगली सी  है वो  ,
उलझी से है वो ,
जिरह करती रहती है वो ,
वफ़ा भी है , बेवफा भी है वो ,
क्या बोलु ,
वो तो है ,
हमसाया , हमसफ़र मेरा।

कभी शाया  सी थी , आज छाया भी,
न है वो।
कभी अर्थ थी वो ,
आज अनर्थ है वो।
कैसी सुरूप  थी वो ,
आज निकृष्ट है वो।
कभी दिल के पास थी वो ,
आज इतनी दूर है वो।
कुछ अनकही से कहानी है वो ,
खोज रहा हु मैं वो , जो है , अपना हमसाया , हमसफ़र।

मिली है आज वो ,
कहती है चंचल से नयने उसकी ,
हारा सा हु मैं , जीती सी है वो।

ठगा सा  खड़ा हु ,
सोच रहा हू ,
प्यार के लिए ,प्यार में यू क्यों,
वक्त जाया किया।
छाया , माया , अर्थ , अनर्थ कि ,
चक्रव्यू में
जीवन को यूँ  ही ,
वो की चाह में, क्यों खो दिया।

पिकाचु



No comments:

Post a Comment