Saturday, October 22, 2016

कौवा - काई


एक से है सब ,
दो आंखे , दो कान , एक मुँह,
फिर भी सोच अनेक।

कौवा - काई काले है।
करे कार्य उल्टा।
एक फिसलन रोके ,
दूजा सोच काली कर।
परत दर परत।
कोई सोच न आने दे।

लाभ हानि के खेल में ,
खेल रहे है सब।
पास खड़ा है कौन ,
भूल गए है सब।

टुटा सपना अपना ,
अपना हुआ पराया ,
धन की मंशा में अंश
भी अपभ्रंश  हुआ।
कहे ये सभ्यता , फिर  क्यों ,
सब सभ्रांत हुआ।

आधुनिकता के ग्राफ में ,
खोये अपने रिवायत ,
कुछ को कठोर इतना किया ,
कुछ को लुंज -पुंज सा छोड़ दिया।

नतीजा आज , सब खो दिया है ,
कट्टरता , संकीर्णता  और  मारकाट,
सभी की  बीज,
नवजात में भी हमने बो दिया है।
पूछे चिल्ला - चिल्ला  कर
ये आज का इंन्सा ,
रोते हुए इन नवजातों से ,'क्यों बेटा ,
बता तू हिन्दू, मुस्लिम या क्रिस्टन ,
कौन है भयो !


पिकाचु 



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