Sunday, November 13, 2016

हरे ,लाल ,कागज


क्या लिखू , इस पल ,
तन्हा हु मैं , लिए
हाथ में  बस ,
चंद कागज के टुकड़े।

पागल  थी दुनिया ,
कुछ पल पहले ,
हरे ,लाल ,कागज के ,
टुकड़े के पीछे ।


तनहा है ये अब ,
पूछता है ये अब ,
घायल हु ,क्यों मैं ,
परेशान हु, क्यों  मैं
साथ क्यों नहीं कोई ,
सोचता हु मैं  अब।

मुरीद, सारे ,
जो थे हमारे ।
क्यों, एक पल में ,
हवा हो,  क्यों ,
रुखसत हो गये।

दिन तो बदलती है सबकी ,
हँसता हु मैं ,
रंगत बदलने में ,
मुझ सा,
सानी था,
न कोई।

इतराती थी ,
बलखाती थी,
आबो हवा में मेरे आने से,
सूरा और  शबाब ,
बदमस्त हो जाती  थी।

देखो कैसा ,
ये  वक़्त है ,
इंसां न कोई ,
हरे ,लाल ,कागज को ,
देखे, इसे अब।


किस्से थे मेरे  ,
जाने हर और कितने ,
बेचारे थे, हम तुम, इनके बिना।

ऐसा ये , देशकाल आया ,
देखो जरा आज , रुस्वा है सब ,
लाचार हो सब  ,
अपमानीत कर मुझे ,
क्यों ,
फेंके जा रहे है,
 नदी , नालो ,में अब ।

शोभा कभी था ,
आभा कभी था ,
उत्सव भी ,मैं था ,
सभी कुछ तो, था मैं ही।
क्यों डरते है आज ,
मुझसे सभी,  यू ही ।


रिश्ते , वफ़ा, नाते ,
ईशारो पे मेरे,
बिकते थे,  सब तो सारे।

कहु क्या, मैं इसको  ,
कहते है किस्मत ,
जो इसको।
कैसे बदल गई।
न तुम हो , न वो है।
बस तनहा हु  मैं ,
खड़ा हु मैं , खड़ा हु मैं।

पिकाचु

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