पर्व और त्यौहार
सुना कभी था ,
हमने -तुमने।
रिश्तो की गर्माहट ही
पर्व और त्यौहार है ।
पता नहीं क्यों ,
लुटे पिटे फिर हम,
ढूंढ रहे है खुशिया ,
बाजारों में , अवहारो में।
सोच तो अपना,
हो गया बेगाना।
भौतिकवाद ने ,
कर अभिशापित।
देश को ऐसा ,
ग्रसित किया है।
सांस्कृतिक , मान मर्यादा,
को पूर्ण रूपेण से ,
दिग्भ्रमित किया है ।
दादा - दादी ,
नाना -नानी ,
अब तो हो गए,
एक अफ़साने।
जाना किनको,
इनसे मिंलने ,
समय कहा है,
अपनों को।
परिवार कहा है ,
सिमटा है जो ?
मम्मी -डैडी और बच्चो में!
क्यों हम , क्यों हम ,
काका -काकी ,
भैया - भाभी ,
बड़े छोटे को
भूल गए है।
क्यों भौतिकवाद में ,
घुल - मिलकर ,
रिश्तो का हम ,
चूक चुके है।
परवाह किसे है ,
चाह किसे है ,
अपना कौन पराया है।
भूल गए, हम सब
पता नहीं ,
नियति की, ये कैसी ,
अभिशापित माया है।
देखो , फिर भी हम ,
रिश्तो की इस ,
बंजर सी धरती पर ,
ये कैसा त्यौहार मना रहे है।
ये कैसा त्यौहार मना रहे है. .......
पिकाचु
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