Thursday, November 10, 2016

मैं तो बूढा हो चला हूं


देखो, ये जहाँ वाले ,
मैं तो बूढा हो चला हूं ।

वक्त कब गुजरा ,
काले से सफ़ेद ,
रंग बालो का हो चला ,
चेहरे पे छाई रौनक ,
कब जंवा से हवा हुई।
देखो ये जहाँ वाले ,
मैं तो बूढा हो चला।


जब हम जंवा थे ,
हम तो फ़ना थे ,
कठिन रास्ते तो  ,
हमारा डगर था ,
हारने  या जितने का ,
हमें तो गम न था।

हौसले भी  उमंग थी ,
बाजुओ में भुजंग थी।

कदमो में हमारे जमी था ।
मुठी में हमारे  आसमां था ।
कहे क्या हम ,
फिजा भी तो इतना  रंगीन था।
वो क्या समय था , सब कुछ जंवा था।


आज क्या हो गया ,
कदम थम सा गया है ,
लहू क्यों जम  गया है ,
शरीर थिथिल  रोगमय है।
ये जमी क्या , ये आसमां क्या।
कही कुछ दिख रहा, नहीं ,
दोस्तों , अब तो मैं,
बूढ़ा हो गया हु।

उम्र अब मेरा, ये  बीत गया  है,
भजन कर,  प्रवचन कर ,
मोक्ष का  रास्ता ,
हम वृद्ध  ढूंढ रहे है।

करीबी ये,  रिश्ते ये, समाज ,
सभी तो हमारे ,
मृत्यु का बाट जोह रहे है।
अस्थियाँ तो  नदी में,
प्रवाहित कर ,वसीयत में,
लिपिबद्ध करने को ,
बच्चे हमारे  व्यग्र हो रहे है।

सब देख, ये मन,
दुखी सा हो गया है ,
दोस्तों , अब तो मैं,
बूढ़ा हो गया हु।

एक सुबह मैंने ,
प्रण ये लिया का ,
मन  अभी भी ,
जंवा है हमारा।

क्यों न  ऐसा,
हुनर हम सिखाये  ,
वृधो को भी स्वालंब बनाये।

नया फलसफा लिख कर ,
इस अंजुमन में ,
क्यों न , नया रास्ता ,
सभी को दिखाए, हम।

दोस्तों , लगता है अब, मैं ,
फिर जंवा हो गया हु ,
इस गुलिस्ता में ,
नए नज्म लिखने को,
मुकम्मल हो गया हु।

पिकाचु 

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