आधा चंद्र , आधा पूर्णमासी ,
आधा अमावस्या ,
आधा रौशनी ,आधा अंधकार।
यही सत्य है।
तेरे मेरे हमारे जीवन का।
अँधेरा है , रौशनी के इन्तेजार में सभी खड़े।
विनती इतनी ,
भ्रम , विभ्रम , स्वार्थ का त्याग कर ,
निःस्वार्थ भाव से ,
क्यों न ,
स्वयं का अभयदान कर , दिव्यता का उत्सर्जन करे।
ये समय चक्र कब तक ,
घुम रहे विभ्रम में सब ,
साथ स्वस्थ शरीर, तब तक।
फिर क्या।
वक्त है जाग , रच नयी सरंचना।
अभयदान नही है क्षमादान , प्रकृति मांगे अनन्योन्याश्रय।
निरंतरता की गतिशीलता , स्वयं ने खोकर।
उपभोग की स्थिलता का श्रृंगार कर ,
आनंदात की मादकता में लवलीन है।
त्रिष्कार कैसे , अपकार क्यों ,
उपकार कब , समझ नहीं।
अग्निहोत्र कर , आलसता में डूब गये है।
क्या सरंचना , क्या उद्घोष ,
जलजले का आभास है।
फिर क्यों,
किस आनन्द की प्रतीक्षा में खड़े सब ।
क्यों ये सोच है, मेरी ।
क्यों उपहास को , मैं खड़ा,
आधे रौशनी, आधे अंधकार के,
अर्ध सत्य में , अर्ध इन्सान बन खड़ा।
पिकाचु
,
आधा अमावस्या ,
आधा रौशनी ,आधा अंधकार।
यही सत्य है।
तेरे मेरे हमारे जीवन का।
अँधेरा है , रौशनी के इन्तेजार में सभी खड़े।
विनती इतनी ,
भ्रम , विभ्रम , स्वार्थ का त्याग कर ,
निःस्वार्थ भाव से ,
क्यों न ,
स्वयं का अभयदान कर , दिव्यता का उत्सर्जन करे।
ये समय चक्र कब तक ,
घुम रहे विभ्रम में सब ,
साथ स्वस्थ शरीर, तब तक।
फिर क्या।
वक्त है जाग , रच नयी सरंचना।
अभयदान नही है क्षमादान , प्रकृति मांगे अनन्योन्याश्रय।
निरंतरता की गतिशीलता , स्वयं ने खोकर।
उपभोग की स्थिलता का श्रृंगार कर ,
आनंदात की मादकता में लवलीन है।
त्रिष्कार कैसे , अपकार क्यों ,
उपकार कब , समझ नहीं।
अग्निहोत्र कर , आलसता में डूब गये है।
क्या सरंचना , क्या उद्घोष ,
जलजले का आभास है।
फिर क्यों,
किस आनन्द की प्रतीक्षा में खड़े सब ।
क्यों ये सोच है, मेरी ।
क्यों उपहास को , मैं खड़ा,
आधे रौशनी, आधे अंधकार के,
अर्ध सत्य में , अर्ध इन्सान बन खड़ा।
पिकाचु
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