Saturday, December 31, 2016

ये मौनव्रत , कब तक

मन की ज्वाला,  धधक रही है ,
मुँह की सिलन,  खटक रही है ,
जड़मत हो तुम, क्यों  शोषित होने,
अंदर अंदर  , क्यों सुलग रहे हो,
स्वयम्भू हो तुम , इंसान हो तुम ,
मौनव्रत ,  क्यों भोग रहे हो।

कष्ट झेल रहे हो,  तुम सदियो से,
आभाव तुम्हारा,
क्यों, जन्मसिद्ध अधिकार है।
तरस रहा हु मैं , सदियो से प्रतिकार को ,
ये मौनव्रत , कब तक।


मन , मष्तिक , इन्द्रिया , शाश्वत  क्यों ,
दीन , दरिद्र , निर्बल , जात पात , मजहब ,क्यों।
इंसान हो तुम , मुआ नहीं ,
गर्म  लहू है , सर्द नहीं है ,
धमनियों में प्रवाह, निरंतर।
फिर , सोच में तेरे ,
ये मौनव्रत , कब तक।

अधीर अग्र बन , झकझोर करो ,
मानव की ये , विषमता को,
ओ मौनी तुम अब  ध्वस्त  करो।
सब्र नहीं , अभ्यास नहीं , अब कोई जड़मत नहीं ,
वक्त की बेदी पर चढ़ने को ,
यहाँ कोई ,अब मौनव्रत नहीं।

पिकाचु

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