Friday, December 9, 2016

दलान , आंगन , सिमटकर बिखर गई

हुआ करते थे , आज है नहीं ,
वक्त के अग्र वेग में , धूमिल है कई।
कभी जवान थे , कमाते थे ,
आज धूल खाती कुर्सियों में ,
करहाते से कातर ,
उनके  रामहोकरम को  पड़े है।


कभी घर की दलान थे हम ,
गूँजती थी कहकशो मेहमान की।
कभी घर की आँगन थे हम ,
तुलसी की सुगंध से  , गुलजार थे हम।


कौन से दौर में हम आकर ,कहा खो गए।
परिवार टूट कर कर बिखर गई ,
विश्वास तार तार हो बेजार हो गई ।

आज सूर्य भी गर्म हो ,
रौशनी की किरणों को कर रही ,
वस्त्रहीन शरीर के आरपार।

दूर हो गए  है सब ,
दलान , आंगन , सिमट कर ,
संकुचित हो गया कुछ वर्ग क्षेत्रफल में।

बाग कुछ गमलो में जा छिपा है ,
और मैं ,
लज्जित , प्रभावहीन , शर्मिंदा हो ,
बीती हुई वक्त के ,
गलतियों के बही खाता को   ,
अकेला झेलता खड़ा हूं।

पिकाचु



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