Sunday, November 27, 2016

औ मौला :रहम कर

आज की रात , अमावस की रात ,
अँधेरा चौतरफा , आंखे फाड़े देख रहा।
इन्तेजार था मुझे , उस नूर का , जो ,
रौशनी हो रही है , आज  किसी और कि।

एक आशा मन में , कही अच्छाई मेरी  ,
कही किस्मत का साथ दे ,
तमन्ना दिल कि ,पूरी हो जाये।
थका , लुटा , पीटा , सोच रहा  ,
हारने का गम , या गम को हराने की ,
किस राह , इख़्तियार कर रही है जिंदगी।

मुकम्मल जहाँ नहीं , अपने ही सताते है ,
आसमान से अर्श तक  , गिरने ,गिराने का खेल ,
बेइंतहा खेलती है जिंदगी।
नाम क्या दे इस बेवफ़ा का ,
जात - पात  ,धर्म ,  अमीरी , गरीबी,
या वफ़ा की शुद्ध बेवफाई।

हम ही मिले थे उनको ,
इस खेल के मैदान में।
मेरे खुदा , कुफ्र का आलम ,
कि इंतहाई है ,
हम ही है  क्या , मुसीबतजदा  ,
तेरे बेरुखी के पैमाने में।

इजहार था , इकरार था ,
फिर क्यों ,
ये रार , है , औ मौला।
फरिश्ता नहीं  , इंसान हु ,
दर्द भी है , गरूर भी है।
औ मौला ,
बंद आँखों से न देख ,
दर पर  हू खड़ा  , कुछ रहम कर , कुछ रहम कर।

पिकाचु

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