Sunday, December 18, 2016

धीरे धीरे यू ही

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धीरे धीरे यू  ही ,
तुम लम्हो में ठहर जाते ,
रात यू ही तेरे यादो के ,
आगोश में ,यू ही, गुजर जाती।

यु ही देख रहा हु,
टक टकी लगाए  आसमां को ,
कही, किसी टूटते  तारे में ,
 तू , यू ही,  कही दिख जाये ।

पूछता हु , मैं, यु ही ,
ऐ , मेरे परवरदिगार ,
परीक्षा मेरी ही क्यों ?
साथ , यू ही ,
इस अप्सरा  देख ,
कही, तेरी नियत में तो खोट नहीं।

शिकायत नहीं , इल्तजा है ,
इन्तहा हद से न गुजर जाये ,
कि सब्र  की  बांध ,
यु ही, तेरे रहमोकरम के ,
इन्तेजार में  न टूट जाये।

आ ,अब तो यू ही ,
आगोश में समां जा ,
दिल के अरमान को ,
अपनी जन्नत तो ,
यू ही दिखा जा।


पिकाचु



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