Thursday, November 3, 2016

एक रुमाल :एक रद्दी के टोकरी में

एक रुमाल थी,
एक हसीना की,
दीवाने के हाथो में।

शोख  सी हसीना ,
निर्दोष सा दीवाना ,
तन्हाई के आलम में ,
ग़मख़्याली के
जुगाली में लगे थे।

एक कप कॉफ़ी का ,
बड़े चाह से ,
लुत्फ़ उठाते थे।
दोनों जब कभी
रश्क कर जाती थी दुनिया।

आह निकले दीवाने की।
कभी ये हसीना  ,
अपनी लबो से चुम कर ,
ब्लैक कॉफी भी
मीठी  कर जाती  थी।

आज आलम यह है,
समा भी है, परवाना भी है ,
साथ में मीठी कॉफी भी है ,
न जाने  क्यों,
हसीना की इनायत जफ़ा है।

क्यों जुदा हो ,
सदा कर गई ,
दीवाने को।
हल ये दास्तान ,
किसको पता था ,
बस साथ था एक रुमाल ,
हसीना का,दीवाने के हाथो में।

बचा क्या था ,
अक्स , अफ़सोस या अलाप।
कॅपकॅपा रहा था , दीवाना,
ठण्ड या लथपथ पसीने से।
पास न था कोई,
हमसाथ था बस एक रुमाल।


हसीना का ये खबर,
एक  तमाचा था ,
अफ़सोस प्यार तो,
एक  तगादा था ,
बिक चूका है आज वह।
हसीना किसी और परवाने की
हूर हो रही है।


चाँद दिनों की मेहमान हू ,
अब मैं किसी और की जान हू।
दीवाना , बेगाना सा हुआ ,
बदहवास हो आग्रह किया ,
चलो भाग चले , कही और चले।

हसीनो का जलवा देखो ,
आग बबूला हो बोली ,
मोहब्बत तो ,
कुछ दिनों की सौगात है।
जीवन तो सुक़ून से बिताने दो
इज्जजत  परिवार की, निभानी दो ।


दीवाने के हाथो में रुमाल था ,
रोश में सोच न था।
बस संभाल कर रखा ,
वो रुमाल , सोचकर
किसी दिन हसीना का,
बहते हुए अक्स से गीली करेगा।

आज दीवाने के हाथो में ,
साथ रहता,जो हमसाये सा।
बटुए के एक कोने में,
न जाने वह रुमाल न था।


न जाने क्यों दीवाने ने ,
फ़ेंक दिया आज  ,
एक रुमाल को,
एक  रद्दी  के टोकरी में।
खास था वह लम्हा!
मैं ही वो दीवाना हु ,
आज खुद से खुद
पूछ रहा हू ,
क्यों फ़ेंक दिया,
उस , एक रुमाल को
एक , रद्दी  के टोकरी में।

पिकाचु


No comments:

Post a Comment