सपने देखने की आदत थी ,
हर गली , चाक चौबारे पे ,
निकलती कोई भी किसी चौराहे से ,
सपना बना लेते हम उसे,
इशारे - इशारो से।
हिदायत थी हम सभी परवानो को ,
भूल से भी कोई न काटना, हमारे रास्तो को ,
भाभी जो तेरी बन गई थी वो सपनो में ,
निभाना तो था ही, हकीकत में हम सभी अपनों को।
फितरत हमारी कैसे ये हो गई ,
सपनो में कई को उड़ा के ले गई।
मौजो के मस्ती में डूबे थे हम सभी ,
बस वक़्त न ठहरा , बढ़ चला।
परवानो के लौ कब बुझने को आये ,
ये तो हम देख न पाए।
हम तो वही है यारो , चाक चौबारे पे ,
बच्चे खेला रहे है , मामा बन,
तेरी -मेरी भाभियो के।
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