दीवाने की दीवानगी ,
कवि की रुमानियत ,
आशिक़ की बेकरारी ,
सभी का एक ही करार है ,
ये चाहत।
चाहता हू मैं तुम्हे ,
चाहती हो तुम मुझे ,
सोचता हु मैं ये जो ,
खुद को कोसता हू मैं।
गैरत क्या बिकी महबूबा तेरी,
हक़ीक़त को दुःस्वपन बनाया ,
दिल को यू सताया , कि लहू सख्त हो गया,
बर्फ सा सर्द , रंग लाल से सफ़ेद,
भावना बिखर सी गई, दुर्भावना घर कर गई।
आज कल न चाहत है तेरी , सिर्फ बददुआ है मेरी,
न तेरे लिए न मेरे लिए , बस सितमगर ज़माने के लिए।
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