पूर्णिमा की रात को चंद्र के ज्योति से,
जो धरती पे ओज छाता है।
प्रेयसी का ह्रदय प्रीतम के संग पाने को प्यासा हो जाता है।
चन्द्रमा ने ज्योति से बोला , क्यों रौशनी में ,
धरती से ये काले से धब्बे दिख रहे है।
ज्योति ने बोला, चंद्र तू इतरा नहीं , ये इंसान के पदचिन्ह है।
थोड़े ही समय की बात है , चन्द्रमा पे इंसान उड़कर जो आ रहा है ,
चंद्र तेरा ये प्रकाश , छनभर की तो माया है ,
धरती की जो चक्कर लगाई , सूर्य से जो मित्रता निभाई,
इंसान जो तेरे पास है , जल्द ही तेरा सर्वनाश है।
चंद्र ने ज्योति से बोला , चल -चले हम भाग ,
जा छिपे पृथ्वी के ऐसे गर्भ में ,
इंसा का जहाँ कभी न हो एहसास।
ज्योति तू बनके चंद्र की संयोगिता ,
छोड़ कर चंद्रमा की इस सतह को ,
चल चले हम धरती के गर्भ में।
ज्योति जो तेरा साथ है , धरती का गर्भ भी प्रकाशमय है।
चन्द्र का ये अँधेरा , सोख लेगा काले छिद्र सा,
इंसान की ये स्वछंदता की कल्पना।
ज्योति बोली, चंद्र मैं कर नहीं शक्ति हु ऐसा ,
जात -पात और धर्म की चक्रवह्यु में
जा फँसी है चंद्र की ये संयोगिता।
गुरुतवाकर्षण जो मेरा बाप बन बैठा है ,
मेरी विकीर्णता को झितिज से धरती के गर्भ में जाने न दे।
चंद्र अब कुछ बचा नहीं है , देख विनती है ये अब ,
बस और बस इंसान को तू देख आने दे।
और देख कोई गाँधी , मंडेला या लिंकन का पुनर्जन्म का कोई एहसास आने दे ।
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