Saturday, October 8, 2016

रौशनी -अफसाना क्यों बनाया

रचना लग रही है अधूरी ,
सोच साथ नहीं दे रही पूरी।

मौसम में कौन सा ब्यार आया ,
हवा हो गई सारी रूमानियत मेरी।

रौशनी तेरी चकाचौन्ध,  दीवाने को यू इतना सता रही है ,
बंद आँखों से अँधेरे में  तरासने को दिल हो आया है।

सजदे तेरे दीदार को अरसा  हो गया,
पिघले नहीं तुम,
बहने के जगह सर्द बर्फ हो गए।

प्यार ही तो था मेरा ,
अफसाना क्यों बनाया ,
कोई अपनी जात का मिल गया
तो बेगाना बना दिया।


नाराजगी इतनी भी तो न करो कि ,
नाम देख कर  अनजाने हो जाते हो ,
बेखुदी इतनी भी तो न करो ,
चार कंधे मेरे जनाजे को न मिल पाये।

माना की , तुम हमारे दर पे आये  थे कभी,
हमने सर आँखों पे बिठाया था कभी ,
आज वक्त ने तेरी जिंदगी में खुशिया भर दी,
तो बेवफा बन किस बात की सजा दे दी।
 
कब से तेरे दर पर  रहमोकरम को पड़े है,
यू बेरुखी से तो रुखसत न करो अपने दीवाने को ,
कुछ तो रहम करो  इस दीवाने  को।


वक्त की करवटे में , कब से वीराने में पड़े है ,
समय चला गया है मेरा , क्यों ये दिखने को हो।

आबाद होने को आये थे , बर्बादियों के मंजर में ,
जा क्यों फँसाया , ऐ मोहब्बत
दुश्मनी समझू या दोस्ती ,
ये बात समझ में न आया।



मरे हुए को कितनी मौत मरोगे ,
बेखुदी इतनी भी तो न करो ,
इस दीवाने से , दो गज जमीन भी ,
न नसीब हो इस दीवाने को।

माना की ज़माने में हुस्न का ही जलवा होता है ,
परवाने की  आग में जलने की ही सजा होती है।
बता देते है ये , राख हो जायेंगे ,
फिर भी हवा के झोके से ,
मिन्नतें कर , तेरे दर पर ही गिरेंगे।

No comments:

Post a Comment