काम नहीं है , वक़्त भी ही है ,
कमबख्त बेवक्त, क्यों लोग काम का रोना रोते है।
बढ़ती - घटती शुतरमुगि चालो में , शतरंज की अष्ट चालो में ,
शह या मात की अंधियारी खयालो में , मानवता के ये रखवाले ,
बेवक़्त ही वक़्त का रोना रोते ।
प्रगति की चाह नहीं है, इन्कलाब की आह नहीं है ,
झर झर कल कल बहती नदिया , रोक खड़े ,
धरती की आंगन को रक्त रंजीत कर ,
महिमामंडित अभिमा के साथ , कोई हमसे छुप के खेल रहा है ,
धीरे धीरे पर सारे ही , बेवक़्त ही वक़्त का रोना रोते है।
क्या था मैं , क्या हु मैं , ये सोच रहा हूं , वक़्त ही वक़्त है ,
मैं सोच रहा हूं।
वक्त का फलसफा कौन पढ़ा है , अगले पल का किसे पता है ,
जिसने इसको जाना है, समझा है , दूर कही वो छुपा खड़ा है ।
वक़्त है बलवान , आज है मेरा कल है तेरा ,
सृष्टि का है शाश्वत सत्य , हमें पता है तुम्हे पता है ,
फिर क्यों बेवक़्त हम वक़्त का रोना रोते है।
तुम हो छोटे , तुम हो निकम्मे , तुम हो गाँव के गंवार ,
ऐसा तुमने सोचा है , पर वक्त पे क्या तेरे कोई अपना साथ खड़ा है।
फिर क्यों रोता है।
कब तक क्रोध, काम, मोह, माया की होली खेलोगे ,
कब तक खुद ही आग लगोगे और बुझाओगे ,
क्या वक़्त इसके लिए रुका पड़ा है।
कमबख्त बेवक्त, क्यों लोग काम का रोना रोते है।
बढ़ती - घटती शुतरमुगि चालो में , शतरंज की अष्ट चालो में ,
शह या मात की अंधियारी खयालो में , मानवता के ये रखवाले ,
बेवक़्त ही वक़्त का रोना रोते ।
प्रगति की चाह नहीं है, इन्कलाब की आह नहीं है ,
झर झर कल कल बहती नदिया , रोक खड़े ,
धरती की आंगन को रक्त रंजीत कर ,
महिमामंडित अभिमा के साथ , कोई हमसे छुप के खेल रहा है ,
धीरे धीरे पर सारे ही , बेवक़्त ही वक़्त का रोना रोते है।
क्या था मैं , क्या हु मैं , ये सोच रहा हूं , वक़्त ही वक़्त है ,
मैं सोच रहा हूं।
वक्त का फलसफा कौन पढ़ा है , अगले पल का किसे पता है ,
जिसने इसको जाना है, समझा है , दूर कही वो छुपा खड़ा है ।
वक़्त है बलवान , आज है मेरा कल है तेरा ,
सृष्टि का है शाश्वत सत्य , हमें पता है तुम्हे पता है ,
फिर क्यों बेवक़्त हम वक़्त का रोना रोते है।
तुम हो छोटे , तुम हो निकम्मे , तुम हो गाँव के गंवार ,
ऐसा तुमने सोचा है , पर वक्त पे क्या तेरे कोई अपना साथ खड़ा है।
फिर क्यों रोता है।
कब तक क्रोध, काम, मोह, माया की होली खेलोगे ,
कब तक खुद ही आग लगोगे और बुझाओगे ,
क्या वक़्त इसके लिए रुका पड़ा है।
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