- ज्योति
ज्योति के आने से अँधियारा छंटता है।
ज्योति के जाने से दिल फटता है।
पर ज्योति को क्या फर्क पड़ता है ,
वो तो ज्योति की गति से मेरे आँखों से ओझिल हो गई ,
और हम अभी भी ह्रदय के धमनियों में , हृदयाघात से बचने के लिए ,
ज्योति के तरंगो के आस में जी रहे है।
ज्योति आप महान हो , आपने अपने दिल के दुकान में ,
कई ज्योति छुप्पा रखा है , जो रंग बदलती वक़्त के साथ ,
मृग तृष्णा की तरह , रेत की टीलो में हरियाली बिखेरने की जगह ,
अपनी ज्योति जला , अपना ही रंग बिखेरते ,
किट पतंगों को जलाते हुए , अपनी ही गति से गतिमान है।
ज्योति को अपनी गति का अभिमान है , अपने पे ही गुमान है ,
तुम कौन हो , तुम्हारा दर्द क्या है , तुम्हारा अस्तित्व क्या ,
ज्योति इन सब से बेखबर, सैर करती है इस आकाशगंगा में ,
असंख्य टिमटिमाते हुए टूटते तारे , ज्योति की तरफ देखते है ,
ज्योति न तो रुदाली है , न ही तेरे साथ की हम ख्याली है ,
ज्योति तो सिर्फ अपना वक़्त देखती है और गतीमान हो ,
अपना स्वार्थ साधते हुए , बहती हुई आँखों को चोंधियाते हुए
अपनी ही ज्योति जलाते ओझिल हो जाती है ।
ज्योति की रंग बदलती सतरंगी इंद्रधनुष चालो को
ये किट, पतंग शत -शत नमन करते है ।
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