हम तुम जाते शॉपिंग मॉल तफरी करने ,
पर हम तो जाते बच्चे के साथ सब्जी लेने।
लगी लाइन देखो अंदर जाने का ! क्या है अंदर ?
कोई मस्त कलंदर , पता नहीं हमको भाई ,
छोटे - छोटे सटे - सटे पहने ,
नर और नारी ने ऐसे कैसे पहने कपडे।
देख के भइया, ये मन को भाया ,
पूछा इनसे , तूने क्या पहन के आया।
बोला उसने प्रजातंत्र है , जिसका मूलमंत्र है ,
अपनी ढपली , अपना राग, और लगाओ मानवता में आग।
ये कैसा विकास है , जहाँ चारो और मूल्यों का ह्राष है।
दीन यहाँ रह नहीं सकता , दिव्यांग जहाँ जी नहीं सकता।
प्रगति नहीं ये विनाश , मानवता का सर्वनाश है।
झेल रही है धरती हमको , सशक्तिकरण का अभिशाप है ,
बच्चे , बूढ़े और जवान , ग्राहक बन , सब हो गए भक्षक।
उपभोक्तावाद का नारा , सिर्फ पैसा का ही भाईचारा है।
फिर क्यों , फिर क्यों ,रोना रोते, बच्चे नहीं साथ है अपने।
शांती को तो त्याग दिया है , दूरदर्शन , विचल यंत्र का साथ लिया है ,
वैभव - प्रतिक का इसे मान -सम्मान दिया है।
तुम क्या , तुम क्या मानवता की बात लगाए ,
जब हमने माँ -बाप को ही गांव से अपने साथ न रहने लाए।
********************************************************************
No comments:
Post a Comment