Sunday, September 25, 2016

उपभोक्तावाद का नारा



हम तुम जाते शॉपिंग मॉल तफरी करने ,
पर हम तो जाते बच्चे के साथ सब्जी लेने।

लगी लाइन  देखो अंदर जाने का !  क्या है अंदर ?
कोई मस्त कलंदर , पता नहीं हमको भाई ,

छोटे - छोटे  सटे - सटे पहने ,
नर और नारी ने ऐसे कैसे पहने कपडे।

देख के भइया, ये मन को भाया ,
पूछा इनसे , तूने  क्या पहन के आया।

बोला उसने प्रजातंत्र है , जिसका  मूलमंत्र है ,
अपनी ढपली , अपना राग,  और लगाओ  मानवता में  आग।

ये कैसा विकास है , जहाँ चारो और मूल्यों का ह्राष है।
दीन यहाँ रह नहीं सकता , दिव्यांग जहाँ जी नहीं सकता।  
प्रगति नहीं ये विनाश , मानवता का सर्वनाश है।

झेल रही है धरती हमको , सशक्तिकरण का अभिशाप है ,
बच्चे , बूढ़े और जवान  , ग्राहक बन ,  सब  हो गए भक्षक।

उपभोक्तावाद का नारा , सिर्फ पैसा का ही भाईचारा है।
फिर क्यों , फिर क्यों ,रोना रोते, बच्चे नहीं साथ है अपने।

शांती को तो त्याग दिया है , दूरदर्शन , विचल यंत्र का साथ लिया है ,
वैभव - प्रतिक का इसे मान -सम्मान  दिया है।

तुम क्या , तुम क्या  मानवता की बात लगाए ,
जब हमने माँ -बाप को ही गांव से अपने साथ न रहने लाए।  

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