Friday, September 23, 2016

काम नहीं है , वक़्त भी ही है ,

काम नहीं है , वक़्त भी ही है ,
कमबख्त बेवक्त,  क्यों लोग काम का रोना रोते है।
बढ़ती - घटती शुतरमुगि चालो में ,  शतरंज की अष्ट चालो में ,
शह या मात की अंधियारी खयालो में , मानवता के ये रखवाले ,
बेवक़्त ही वक़्त का रोना रोते है।

प्रगति की चाह नहीं है, इन्कलाब  की आह नहीं है ,
झर झर कल कल  बहती नदिया , रोक खड़े   ,
धरती की आंगन को फिजूल के कामो में रक्त रंजीत कर ,
महिमामंडित अभिमा के साथ , कोई हमसे छुप के खेल रहा है ,
धीरे धीरे पर सारे  ही , बेवक़्त ही वक़्त का रोना रोते है।



No comments:

Post a Comment