काम नहीं है , वक़्त भी ही है ,
कमबख्त बेवक्त, क्यों लोग काम का रोना रोते है।
बढ़ती - घटती शुतरमुगि चालो में , शतरंज की अष्ट चालो में ,
शह या मात की अंधियारी खयालो में , मानवता के ये रखवाले ,
बेवक़्त ही वक़्त का रोना रोते है।
प्रगति की चाह नहीं है, इन्कलाब की आह नहीं है ,
झर झर कल कल बहती नदिया , रोक खड़े ,
धरती की आंगन को फिजूल के कामो में रक्त रंजीत कर ,
महिमामंडित अभिमा के साथ , कोई हमसे छुप के खेल रहा है ,
धीरे धीरे पर सारे ही , बेवक़्त ही वक़्त का रोना रोते है।
कमबख्त बेवक्त, क्यों लोग काम का रोना रोते है।
बढ़ती - घटती शुतरमुगि चालो में , शतरंज की अष्ट चालो में ,
शह या मात की अंधियारी खयालो में , मानवता के ये रखवाले ,
बेवक़्त ही वक़्त का रोना रोते है।
प्रगति की चाह नहीं है, इन्कलाब की आह नहीं है ,
झर झर कल कल बहती नदिया , रोक खड़े ,
धरती की आंगन को फिजूल के कामो में रक्त रंजीत कर ,
महिमामंडित अभिमा के साथ , कोई हमसे छुप के खेल रहा है ,
धीरे धीरे पर सारे ही , बेवक़्त ही वक़्त का रोना रोते है।
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