Monday, September 26, 2016

एक मछहर ने काटा मुझको

एक मछहर   ने काटा मुझको ,
देखा मैंने बहुत छोटा था , काला था , दन्त नोकीले ,

मैंने  सोचा हो गया डेंगू, मलेरिया या  चिकनगुनिया।
झट से मैंने हाथ उठाया , मच्छर को कुछ समझ न आया ,
उसने भी जोर से डंक मारा, मैंने भी उसे जान से मारा।

मन ही मन खुश हो रहा था , मच्छर मरा गिरा जमीं पर ,
देख के मन में विचार आया , सृष्टि ने क्या जीवन रचाया ,
इंसान को ही  सर्वश्रेष्ठ बनाया , थोड़ी देर में देखा मैंने।
लाल -काली सी हिलती -डुलती रेखाये कुछ छोटी कुछ लंबी ,
मच्छर लिए मुँह में दबाकर , सरक रही थी थोड़ी थोड़ी।

मन में  सोचा हम तो इंसा ,  सर्वश्रेष्ठ , रोको इनको, हाथ लगाया,
धीरे से ही , पर ऐसा काटा , हो गए हम गुप्प लाल।

छोटा - बड़ा कोई न होता , वक्त और परिस्थिति एक सा न होता ,
जीवन की ये  है लंबी डगर , वक़्त को है न धैर्य तुम्हारा।
हो अधीर अधीर तुम , दौड़ पड़ो तुम,दौड़ पड़ो तुम।
कर्तव्य का साथ ,कर्म की डंका , मदमस्त हो तुम रण अवतार बनो।
दोष न देना , इन मच्छर को , साथ भी इनका है सम्मान हमारा।
हमने की है प्रकृति से छेड़छाड़ , अब प्रकृति करेगी  तिरस्कार हमारा ।




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