Friday, September 23, 2016

काम नहीं है , वक़्त भी ही है ,

काम नहीं है , वक़्त भी ही है ,
कमबख्त बेवक्त,  क्यों लोग काम का रोना रोते है।
बढ़ती - घटती शुतरमुगि चालो में ,  शतरंज की अष्ट चालो में ,
शह या मात की अंधियारी खयालो में , मानवता के ये रखवाले ,
बेवक़्त ही वक़्त का रोना रोते है।

प्रगति की चाह नहीं है, इन्कलाब  की आह नहीं है ,
झर झर कल कल  बहती नदिया , रोक खड़े   ,
धरती की आंगन को रक्त रंजीत कर ,
महिमामंडित अभिमा के साथ , कोई हमसे छुप के खेल रहा है ,
धीरे धीरे पर सारे  ही , बेवक़्त ही वक़्त का रोना रोते है।

क्या था मैं  क्या हु मैं  ये सोच रहा हूं , वक़्त ही वक़्त है ,
मैं सोच रहा हूं।  

वक्त का फलसफा कौन पढ़ा है , अगले पल का किसे  पता है ,
जिसने इसको जाना है,  समझा है , दूर कही वो  छुपा खड़ा है ।
वक़्त है बलवान , आज है मेरा कल है तेरा ,
सृष्टि  का है शाश्वत सत्य , हमें पता है तुम्हे पता है ,
फिर क्यों बेवक़्त हम  वक़्त का रोना रोते है।

तुम हो छोटे , तुम हो निकम्मे , तुम हो गाँव के गंवार ,
ऐसा तुमने सोचा है , पर वक्त पे क्या तेरे कोई अपना साथ खड़ा है।
फिर क्यों रोता है।
कब तक क्रोध, काम मोह माया की होली खेलोगे   ,
कब तक  खुद ही आग लगोगे और बुझाओगे  ,
 क्या वक़्त इसके लिए रुका  पड़ा है।
 





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